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निश्चित समय पर होने वाले चुनाव, एक लोकतंत्र को मज़बूत करते हैं

राष्ट्रीय            Jun 18, 2019


राकेश दुबे।
भाजपा ने अपनी मंशा के तहत “एक देश-एक चुनाव” पर आनेवाले कल अर्थात 19 जून को बैठक बुलाई है। यह बैठक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पहल पर हो रही है। यह मुद्दा पहले भी उठा था, तब विपक्ष विरोध में था।

इस चुनाव में हुए घोषित भारी खर्च और अघोषित अनाप-शनाप खर्च ने सारे राजनीतिक दलों को “एक देश –एक चुनाव” पर सोचने को मजबूर कर दिया है। वैसे चुनाव किसी भी लोकतांत्रिक देश की मुख्य पहचान होते हैं।

सच कहा जाए तो चुनाव बिना लोकतंत्र की कल्पना नहीं की जा सकती है। एक निश्चित समय पर होने वाले चुनाव, एक लोकतंत्र को मज़बूत करते है।

भारत के चुनाव आयोग ने 1983 में एक साथ चुनाव कराने का सुझाव दिया था। 1999 में जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी की अध्यक्षता वाले लॉ कमीशन ने कहा था कि हमें उस व्यवस्था में वापस जाना चाहिए। जहां लोकसभा और सभी विधानसभा चुनावों को एक साथ कराया जा सके।

2015 में पार्लियामेंट की स्टैंडिंग कमेटी ने भी चुनावों को एक साथ कराने की सिफारिश की थी। अब समजवादी पार्टी, जेडीयू और टीआरएस जैसे क्षेत्रीय दल एक साथ चुनाव कराने के लिए भाजपा के साथ एकमत दिख रहे हैं। डीएमके ने इसे पहले भी संविधान की मूल भावना के खिलाफ बताया था।

बड़े चुनाव लोकसभा और विधानसभा के होते हैं। लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने के पक्ष में यह भी तर्क दिया जा रहा है कि इससे राजनीतिक स्थिरता आएगी। कल्पना करें, चुनाव के बाद अगर सरकार किन्हीं कारणों से गिर जाती है, तो एक तय समय के बाद ही चुनाव होगा।

तब? दूसरी परिस्थिति अगर किसी को बहुमत नहीं मिलता है, तो भी अगला चुनाव एक तय समय के बाद ही होगा। ऐसे में राजनीतिक स्थिरता का तर्क कहाँ जायेगा ? चुनावों के एक साथ कराने के पक्ष में दूसरा बड़ा तर्क यह दिया जा रहा है कि इससे चुनावी खर्च में कमी आएगी।

देश के आकार और बढती जनसंख्या पर ध्यान दे तो यह तर्क भी काफी मजबूत नहीं है। सरकारी खर्च के आंकड़े तो जैसे- तैसे मिल जाते हैं, राजनीतिक दल तो अपने खर्च बताते तक नहीं हैं। यह आंकड़ा सरकारी चुनाव खर्च से कई गुना होता है।

चुनावों को एक साथ कराने के पक्ष में यह दलील भी दी जा रही है कि देश में एक बहुत बड़ी ऐसी आबादी है, जो रोजगार की जुगाड़ में अपने मूल निवास से अलग रहने चली जाती है। ऐसे में अगर एक बार चुनाव होगा तो यह आबादी वोट डालने अपने मूल निवास पर आ जाएगी। क्या अभी किसी का वोट किसी के नाम नहीं डलता है ?

हमारे देश के नेता चुनाव के बाद गायब होने के लिए कुख्यात हैं। बार-बार चुनाव होने से उन्हें जनता के सम्मुख उपस्थित होना ही होता है, इससे उनकी जवाबदेही बढ़ती है, ऐसे में अगर चुनाव एक साथ होंगे तो वे कभी नजर ही नहीं आयेंगे।

एक साथ चुनाव कराने का नुकसान यह भी है कि ऐसे में राष्ट्रीय मुद्दे क्षेत्रीय मुद्दों पर भारी पड़ जाएंगे। क्षेत्रीय मुद्दों के साथ-साथ क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व पर भी संकट उत्पन्न हो जाएगा। ऐसा इसलिए होगा क्योंकि चुनाव जीतेने के लिए बड़े राष्ट्रीय दलभारी पैमाने पर संसाधन झोकेंगे, इन संसाधनों का मुकाबला करना क्षेत्रीय दलों के बस की बात नहीं होगी।

ऐसे में क्षेत्रीय दल ख़त्म होते जायेंगे और क्षेत्रीय मुद्दों का निवारण भी मुश्किल हो जाएगा। क्षेत्रीय दलों के ख़त्म हो जाने से लोकतंत्र में केवल कुछ ही बड़े दलों का बोलबाला हो जाएगा। यह लोकतंत्र की आत्मा के खिलाफ होगा।

एक बड़ा खतरा यह भी है कि एक साथ चुनाव होने से चुनाव केवल एक व्यक्ति के आसपास केन्द्रित हो जाएगा जैसा इस बार लोकसभा चुनाव में देखने को मिला। अंतिम चरणों में प्रधानमंत्री कहने लगे थे आपका वोट सीधा मेरे को जायेगा।

ऐसे में मतदाता ने उस ही पार्टी को वोट दिया जिसके प्रधानमंत्री को वह कुर्सी पर देखना चाहता था। एक साथ चुनाव कराने में संवैधानिक पेंच भी है, अगर किसी राज्य में त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति बनती है तो क्या उस राज्य को अगले चुनाव तक इंतजार करना पड़ेगा।

वहीं अगर लोकसभा में किन्हीं कारणों से सरकार गिर जाती है तो बाकी राज्यों को अपनी चुनी हुई सरकारों को निरस्त कर दुबारा चुनाव कराने की जहमत कोई उठाएगा ?

यदि बैठक में इस बात के पक्ष में सर्वसम्मति बनती है, तो इसके लिए संविधान में परिवर्तन करना पड़ेगा।

इसके लिए भी जनता से राय {वोट} मांगी जाएगी। प्रसिद्ध् विद्वान् मार्क ट्वेन कहा है कि यदि वोट देने से कुछ बदलता है तो व्यवस्था में सबसे ऊपर बैठे लोग जनता को ऐसा करने ही नहीं देंगे।

 



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