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सनी देओल की जाट का नाम होना था उखाड़चंद

पेज-थ्री            Apr 11, 2025


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी!

जाट फ़िल्म का असल नाम होना था - उखाड़चंद! ग़दर में मारपीट के दौरान हैंड पम्प उखाड़नेवाला सरदार तारा सिंह अब पक्का उखाड़चंद हो गया है। जो भी मिलता है, उखाड़कर लड़ने लगता है।  पंखा, रेलिंग, अलमारी, 'दरवज्जा', झाड़.... अब बस भी कर भाई, क्या क्या उखाड़ेगा?

सनी देओल की जाट असल मे ग़दर 3 है। यह दर्शकों की बुद्धि पर यह सरदार तारा सिंह का ढाई किलो का हाथ है। ग़दर में तारा सिंह अपनी माशूका को लेने पाकिस्तान गया था। सबको धो कर उसे ले आया। दर्शक खुश। दशकों बाद तारा सिंह ग़दर 2 में फिर पाकिस्तान गया, बेटे को लेने। फिर मारपीट कर उसे ले आया। दर्शक फिर खुश!

दो साल बाद अब वह बेचारा फिर अपना ढाई किलो का हाथ लेकर पाकिस्तान जाने से तो रहा।  तो वह ट्रेकिंग के लिए दक्षिण भारत में कहीं जा रहा है। 

अयोध्या वाली तीर्थ नगरी ट्रेन है। साधु संतों का साथ है। स्लीपर क्लास है। आगे कोई मालगाड़ी पटरी पर उतरने से उसकी ट्रेन रुकती है। वो दूर बनी झोपड़ीनुमा गुमटी में इडली खाने जाता है।...इडली खा रहा है कि गुंडे की टक्कर से इडली की प्लेट गिरती है और 'पिच्चर' की कहानी उठती है।

तारा सिंह बोला - भिया, इडली गिरा दी, माफी मांग।

गुंडा कहता है - नी मांगूंगा। उखाड़ ले, जो उखाड़ना है।

अब भिया, इडली गिरने, माफ़ी की मांग और उखाड़ने-मारने में ही हॉफ टाइम हो जाता है। दर्शक लोग भी पॉप कॉर्न खाकर आ जाता है। अब क्या उखाड़े बेचारा तारा सिंह?

गुंडों की पिटाई, गुंडों के बॉस की पिटाई, फिर उसके बॉस की पिटाई की कड़ी में हीरो पहुंच जाता है विलेन के पास। माफी मंगवाने के लिए। अब विलेन तो विलेन है। वो वीर सावरकर का रोल कियेला रहता है। झट बोल देता है - सॉरी! पर तारा सिंह को उल्लू बनाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन है।

फ़िल्म बे सिर पैर की बातों से भरी है। श्रीलंका का गृहयुद्ध, लिट्टे, तमिल ईलम, भारत में अवैध घुसपैठ कर झूठे दस्तावेज बनाने, भ्रष्ट नेता, बिकी हुई पुलिस, बेईमान कलेक्टर, कुछ बहादुर महिला पुलिसकर्मी, राष्ट्रपति को चिट्ठी और उनकी त्वरित एक्शन, गांववालों का शोषण, तस्करी और 25,000 करोड़ की डील, आइटम सांग आदि भी बैकड्रॉप में है, लेकिन मुख्य तो तारा सिंह की मार पिटाई ही है।

इसके निर्माताओं ने पुष्पा भी बनाई थी। इसमें भी हिंसा अपने वीभत्सतम रूप में दिखाई गई है। ढिशुम ढिशुम करता हीरो उस विलेन से लड़ता है जिसका शौक पुलिसवालों के सिर काटकर घूमना है। विलेन की बीवी भी उतनी ही हिंसक है। फ़िल्म का आधा वक्त केवल मारपीट और हिंसा में ही गुजरता है। फ़िल्म का कोई गाना याद नहीं रहता, कोई संवाद दिल को नहीं छूता, कोई सीन आत्मा को नहीं झंझोड़ता। महावीर जयंती पर लगी फ़िल्म में इतनी हिंसा!

मानसिक बीमारी फैलाने वाली फिल्म है।  मत जाना।

अझेलनीय फ़िल्म जाट।

 

 


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