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विक्की कौशल का कौशल, मेघना की कमजोरी है सैम बहादुर

पेज-थ्री            Dec 03, 2023


डॉ. प्रकाश हिन्दुस्तानी!

सैम बहादुर देखनीय फिल्म है।  भारत के स्वर्णिम इतिहास की झलक इसमें है। विक्की कौशल ने मानेकशॉ के रोल में जान डाल दी। यह विक्की कौशल और डायरेक्टर मेघना गुलज़ार की फिल्म है।

सैम बहादुर भारत के पहले फील्ड मार्शल मानेकशॉ के जीवन पर आधारित फिल्म है, जिसमें विक्की कौशल ने मानेकशॉ का भूमिका की है। वे भारत के सबसे लोकप्रिय सेना नायकों में से थे और 1971 में बांग्लादेश के जन्म के समय भारत-पाक युद्ध के समय चीफ ऑफ़ आर्मी स्टाफ थे। उनकी रणनीति के अनुसार ही भारत ने वह युद्ध लड़ा, जीता और पाकिस्तान का विभाजन करवाया। उनका नाम सैम मानेकशॉ था लेकिन लोग उन्हें सैम बहादुर इसलिए कहते थे, क्योंकि वे गोरखा राइफल्स के प्रभारी बनाये गए थे।

मेघना ने फिल्म में बारीकियां पर बहुत ध्यान दिया है।  1971 में पाकिस्तान की सेवा के आत्मसमर्पण के असली फूटेज  डाल देने से फिल्म की विश्वसनीय बढ़ गई है, लेकिन फिल्म के कई पा त्रों को मेघा गुजर गुलजार ने ठीक से उभारा ही  नहीं है या जानबूझकर उनके साथ नाइंसाफी की है। ये  तमाम बातें खटकती भी हैं।

मानेकशॉ मैं बहुत सारी खूबियां थीं। वे  किसी भी मामले की तरह तक जाते थे। अमृतसर में जन्मे और पढ़े-बढ़े, इसलिए पंजाबी और हिंदी तो अच्छी आती ही थी। पारसी थे तो  घर में गुजराती बोली जाती थी।  पढ़ाई और कामकाज के कारण अंग्रेजी जानते थे।  गोरखा राइफल्स में रहे तो नेपाली भी सीख गए।  इसके अलावा उन्होंने पश्तो भाषा भी सीखी। जो उनके लिए अतिरिक्त योग्यता थी। इस फिल्म में मेघना गुलजार ने भारतीय सेना के भीतर की राजनीति के सतही  तौर पर छूने की कोशिश भी की है। यह कहना शायद जरूरी नहीं है कि   मानेकशॉ   ने खुद भी शीर्ष स्तर पर नेताओं से निजी राब्ता बना लिया था और वे नेहरू जी के प्रिय रहे।  पहले फील्ड मार्शल भी बने। 

मेघना गुलजार की गलती यह  रही कि   मानेकशॉ   के चरित्र को उभरने की कोशिश में उन्होंने कई ऐतिहासिक और बड़े  पात्रों  को नीचे गिरा दिया या उनके साथ नाइंसाफी की। जैसे इस फिल्म में जवाहरलाल नेहरू के चरित्र को बहुत ही कमजोर दिखाया गया है।  शारीरिक रूप से भी। उन्हें व्यक्तित्वहीन दिखाने की कोशिश की गई है। सरदार पटेल और जगजीवन राम के चरित्र को भी उभारने की कोई कोशिश नहीं की गई।  शायद उन्हें लगा हो कि वे  सब  जरूरी नहीं थे। लेकिन मूल चरित्र को आगे लाने के प्रयास में दूसरे चरित्र दबा दिए गए, यह निर्देशक की कमजोरी है। उनके साथ नाइंसाफी भी है।

 

 मानेकशॉ को लोग अलग-अलग नाम से पुकारते थे।  गोरखा रेजीमेंट के प्रभारी होने कारण लोग उन्हें नेपाली समझते थे।  फिल्म में वह  जोक भी  है कि अगर कोई व्यक्ति कहता है कि मैं किसी से नहीं डरता तो वह या तो झूठा है या गोरखा।  इस फिल्म में इंदिरा गांधी के चरित्र को जिस तरह नीचा दिखाने की कोशिश की गई है, वह निंदनीय है।  ऐसे कई दृश्य दिखाए गए। जिनमें संवाद बिल्कुल नहीं थे, लेकिन इंदिरा गांधी जिस तरह   मानेकशॉ  को देखती हैं,  लगता है मानो वे  मानेकशॉ  पर फिदा हैं और उससे मन ही मैन प्रेम करने लगी हैं।  पता नहीं इसमें कितनी सच्चाई है, लेकिन फिल्म तो ऐसा दिखाया गया है।

एक सीन में आकाशवाणी पर समाचार आते हैं कि इंदिरा गांधी का विवाह फिरोज गांधी से होने जा रहा है।  तब उसे समाचार को सुनकर   मानेकशॉ   कहते हैं कि गुड चॉइस ! पारसी लोग बहुत अच्छे हस्बैंड होते हैं।  पता नहीं ऐसा समाचार सरकारी रेडियो पर आया भी होगा या नहीं?

मेघना गुलजार ने अपने निर्देशन के निम्नतम स्तर को भी तब  छुआ, जब इस फिल्म के एक सीन में  इंदिरा गांधी सुबह-सुबह   मानेकशॉ   को फोन करती हैं और पूछती है कि क्या ब्रेकफास्ट कर लिया?

मानेकशॉ कहते हैं - हां कर लिया।

इंदिरा गांधी पूछती हैं - किसके साथ?

मानेकशॉ कहते हैं - वाइफ के साथ।

जवाब में इंदिरा गांधी कहती हैं - कभी हमारे साथ भी करो (फिर एक पॉज़ के बाद कहती हैं)  ब्रेकफास्ट!

यह भाषा और ऐसी जगह पर संवाद के बीच का पॉज़ क्या बताता है? मेघना गुलज़ार का मानसिक स्तर ! कभी हमारे साथ भी करो!

फिर इंदिरा गांधी पूछती हैं कि क्या पहने हुए हो और फिर तत्काल  कहती हैं कि अभी यूनिफॉर्म पहनकर मेरे यहां आ जाओ।

जब   मानेकशॉ   इंदिरा गांधी के यहां पहुंचते हैं तब वहां अमेरिकी राष्ट्रपति के सलाहकार हेनरी किसिंजर नाश्ते के लिए  आए हुए थे।   इंदिरा गांधी किसिंजर  से कहती हैं कि अपने राष्ट्रपति से कहिए कि पाकिस्तान पर दबाव डालें कि वह पूर्वी पाकिस्तान ( वर्तमान बांग्लादेश)  से आए 70 लाख शरणार्थियों को वापस अपने यहां ले जाने की व्यवस्था करे।

किसिंजर कहते हैं कि प्रेसिडेंट यह नहीं कर कर सकते।

इंदिरा गांधी यूनिफॉर्म पहने हुए आर्मी के  चीफ़  मानेकशॉ   की तरफ इशारा करते हुए कहती हैं कि फिर मुझे इनसे इस बारे में कुछ करने के लिए कहना पड़ेगा।  क्या प्रधानमंत्री के यहाँ नाश्ते पर आनेवालों की लिस्ट काफी पहले नहीं बनती है? वह भी जब अमेरिकी दूत के साथ हो? यह कोई छप्पन दुकान पर जाकर पोहे जलेबी खाने  का कार्यक्रम होता है ?

इस पूरी फिल्म में इंदिरा गांधी को इतना संकुचित, सकुचाया हुआ,  छुईमुई जैसा दिखाया गया है, जैसी वे थीं नहीं।  सब जानते हैं कि है कि इंदिरा गांधी फायर ब्रांड यानी अगिया बेताल थीं  और उनके आगे बड़े-बड़े लोग कुछ भी कहने से कांपते थे। मुझे ऐसा लगा कि मेघना गुलजार ने   मानेकशॉ   के चरित्र को ऊंचा दिखाने के लिए इंदिरा गांधी के चरित्र के साथ नाइंसाफी की।

जब   मानेकशॉ  को फील्ड मार्शल बनाने का प्रस्ताव था, तब भी राजनीति चली। इस बारे में मेघना गुलजार ने इशारा किया है।  जगजीवन राम की शक्ल वाले एक चरित्र को सैम   मानेकशॉ  को श्याम बहादुर कहते हुए भी दिखाया।  मुझे लगता है कि यह जगजीवन राम की बेइज्जती करने की कोशिश है। क्या देश के इतने बड़े नेता को   मानेकशॉ   का नाम मालूम नहीं होगा?

फिल्म का पहला हिस्सा मानेकशॉ के जन्म से लेकर आर्मी चीफ बनाने की कहानी धीमी गति से बताता है और बाद के हिस्से में इंदिरा गांधी के दौर को, 1971 के पाकिस्तान क्राइसिस को दिखाया गया है।  इंदिरा गाँधी अप्रैल में ही पाकिस्तान को सबक सिखाना  चाहती थीं, लेकिन मानेकशॉ राजी नहीं थे और युद्ध की तारीख 5 दिसंबर लिखकर दे दी थी क्योंकि गर्मियों में हिमालय की बर्फ पिघलने और बरसात में बाढ़ के कारण सेना की मुश्किलें बढ़ जातीं। 

मानेकशॉ की जिंदादिली को अनेक दृश्यों में उकेरा गया है। उनकी पत्नी, खानसामे, जवानों से बातचीत और कभी कभार मीडिया से चर्चा दिलचस्प तरीके से दिखाई गई है।  लेकिन नेहरू, सरदार पटेल, जगजीवन राम, इंदिरा गांधी के चरित्रों को दबाया गया है।  यही इस फिल्म की कमजोरी है। 1971 के युद्ध के कई  वास्तविक फुटेज का इस्तेमाल करके कहानी को विश्वसनीय बनाने की  कोशिश की गई है। फिल्म में सैनिकों के दृश्यों का फिल्मांकन एक्स्ट्राज़ की जगह असली सैनिकों ने किया है।  शंकर-एहसान-लॉय का संगीत, गुलजार के लिखे गीत अच्छे  हैं।

 



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