प्रकाश भटनागर।
कांग्रेस एक बार फिर एकता कपूर की शैली वाला ‘घर-घर’ खेलती दिख रही है। एकता में अनेकता के नये सोपान आरम्भ हो गये हैं।
महाराष्ट्र में पार्टी के वरिष्ठ नेता संजय निरुपम विधानसभा चुनाव में टिकट वितरण को लेकर बागी तेवर दिखा रहे हैं। हरियाणा में पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अशोक तंवर ने टिकट की बंदरबांट की रेट लिस्ट सार्वजनिक करने के बाद सभी पदों से इस्तीफा दे दिया है।
उत्तरप्रदेश में विशिष्ट राजनीतिक शैली के धनी अखिलेश सिंह की विधायक बेटी अदिति ने पार्टी लाइन से परे जाकर भाजपा सरकार द्वारा आयोजित विधानसभा के विशेष सत्र में शामिल होकर आलाकमान की बेचैनी बढ़ा दी है।
खबर यह भी है कि इस सत्र के बहिष्कार के फैसले से नाराज कुछ पार्टी विधायकों ने अध्यक्ष सोनिया गांधी को पत्र लिखकर उन्हें अपने विरोध से अवगत करा दिया है।
यह उठापटक पहली बार हो रही हो और ऐसा कांग्रेस में ही होता हो, यह कदापि नहीं है। किंतु पहले ही बेहद कमजोर पायदान पर खड़े होकर सियासी सफर कर रहे किसी दल के लिए ऐन चुनाव से पहले ऐसे हालात गंभीर संकट का प्रतीक कहे जा सकते हैं।
खास बात यह कि ऐसा उन राज्यों में हो रहा है, जहां पार्टी विपक्ष में है और उसकी कमजोरी दूर किए जाने के ईमानदार प्रयासों की उन जगहों पर कमी आज भी महसूस की जा रही है। हरियाणा में भूपिंदर सिंह हुड्डा पर आंख मूंदकर जताया गया यकीन उनके विरोधी कांग्रेसियों की आंखों में खून उतारने वाला निर्णय साबित हुआ है। तंवर की पीड़ा स्वाभविक है।
करीब बीते पांच साल से राज्य की भाजपा सरकार के विरुद्ध संघर्ष करने के बावजूद उन्हें दूध की मक्खी की तरह टिकट की निर्णायक प्रक्रिया से दूर कर दिया गया।
संजय निरुपम जब सोनिया गांधी के खास लोगों पर पार्टी को कमजोर करने की कोशिश का आरोप लगाते हैं तो समझ जाना चाहिए कि उनके निशाने पर पार्टी के प्रदेश प्रभारी मल्लिकार्जुन खड़गे हैं।
लेकिन इन सबसे बढ़कर गौर करने लायक घटनाक्रम उत्तरप्रदेश का है।
जहां भाजपा के अंध-विरोध की फितरत ने कांग्रेस को दोमुंही स्थिति को एक बार फिर सामने ला दिया है। योगी सरकार ने विशेष सत्र महात्मा गांधी को समर्पित किया था। वही गांधी, जिनके नाम की कसमें खाते-खाते कई कांग्रेसियों ने राजनीति में नैतिक-अनैतिक, दोनो तरीकों से अपार तरक्की हासिल की है। पार्टी को राष्ट्रपिता के लिए अघोषित रूप से पेटेंट वाला दावा करने जैसा जतन करने से भी नहीं चूकती।
वह स्वयं को बापू के आदर्शों पर चलने वाला बताते हुए नहीं थकती। फिर क्या वजह रही कि इसी महापुरुष पर केंद्रित एक आयोजन का उसने बहिष्कार कर दिया? इस बचकाने निर्णय का असर यह हुआ कि अदिति सिंह ने खुद को पढ़ा-लिखा बताते हुए विधानसभा सत्र में हिस्सा ले लिया।
अब वह कांग्रेस से दूर और भाजपा के नजदीक दिखती हैं। यानी किसी भी समय पार्टी के सदस्यों की संख्या में यहां कमी दर्ज की जा सकती है।
ऐसे बेतुके फैसले यही बताते हैं कि देश के सबसे पुराने राजनीतिक दल में नयी हवा के आवागमन की कमी हो गयी है।
नाकाबिल संतान के चलते सोनिया गांधी ने एक बार फिर पार्टी अध्यक्ष का पद तो स्वीकार लिया, किंतु स्वास्थ्यगत कारणों से वह पुरानी ऊर्जा के साथ इस काम को अंजाम नहीं दे पा रही हैं। उस पर राहुल गांधी द्वारा अध्यक्षीय कार्यकाल में खोदे गये अनगिनत गड्ढों को भरने में ही श्रीमती गांधी का लम्बा समय जाया होता जा रहा है।
इस सबके बीच नयेपन की गुंजाइश ही नहीं बचती है और पुरानी कांग्रेस तो वही है, जिसमें गुटबाजी, मौकापरस्ती तथा बगावत आम बात हो चुकी थी। जब तक बांसी हवा बहती रहेगी, इन दुगुर्णों की बदबू तो इस दल को सहना ही होगी।
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