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बेचैनी प्रासंगिकता बनाए रखने की:इंदिरा, अटल, राजीव से अलग है मोदी का मामला

राजनीति            May 15, 2019


हेमंत कुमार झा।
यह तो समझा जा सकता है कि कार्यकाल पूरा होने के बाद अगले जनादेश की जद्दोजहद में किसी भी पदासीन प्रधानमंत्री को बेचैनी होती ही है। लेकिन, मोदी की बेचैनी कुछ अधिक ही है। ऐसी बेचैनी...जो झलकती है क्यों?

1977 में इंदिरा गांधी चुनाव हार कर सत्ता से बाहर हो गई थीं। यह सामान्य हार नहीं थी, बल्कि जनता का कोप उन पर फूटा था। लेकिन, चुनावी पराजय के बावजूद भारतीय राजनीति में उनकी प्रासंगिकता बनी रही। ढाई-तीन वर्ष बीतते न बीतते वे पुनः चुनाव जीतीं और प्रधानमंत्री बनीं।

1989 में राजीव गांधी चुनाव हारे। यह भी सामान्य हार नहीं थी। रिकार्ड बहुमत पाने के बाद अगला ही चुनाव हार जाना यह बता रहा था कि राजीव गांधी जनता की उम्मीदों पर खरे नहीं उतरे थे। बोफोर्स एक बड़ा मुद्दा था लेकिन उनकी पराजय के अन्य अनेक कारण भी थे। जनता उनसे नाराज थी।

बावजूद इसके...राजीव गांधी की राजनीतिक संभावनाएं खत्म नहीं हुई थी। पराजित होकर सत्ता से बाहर होना उनकी राजनीतिक यात्रा का एक पड़ाव मात्र माना जा रहा था। अगर उनकी हत्या नहीं होती तो इस बात की पूरी संभावना थी कि देर-सबेर वे पुनः प्रधानमंत्री बनते।

अटल जी 2004 में चुनाव हार गए। उन्हें और उनके समर्थकों को, बहुत सारे विश्लेषकों को भी, लगता नहीं था कि वे चुनाव हार जाएंगे। लेकिन, वे हारे। बावजूद इसके, वे भाजपा में पूज्य और देश में सम्मानित बने रहे।

लेकिन...नरेंद्र मोदी का मामला बिल्कुल अलग है।

अगर मोदी चुनाव में पराजित हो सत्ता से बाहर होंगे तो भारतीय राजनीति में उनकी प्रासंगिकता कितनी रह जाएगी? और तो और...भाजपा में ही उनकी प्रासंगिकता कितनी रह जाएगी?

जिस शैली की राजनीति मोदी जी ने की है और जितनी लोकप्रियता हासिल की है, वह तभी तक है जब तक वे सत्ता में हैं। अगर वे दुबारा सत्ता में आ सके तो 'मोदी ब्रांड पॉलिटिक्स' का यह सिलसिला चलता रहेगा, देश का चाहे जो हाल हो।

कम सीटें पाकर वे थोड़े कमजोर भी होंगे तो भी...सत्ता की ताकत उनको मजबूत बनाएगी। सत्ता से ताकत निचोड़ कर खुद को मजबूत बनाए रखना उन्हें आता है। खास कर तब, जब वे जानते रहेंगे कि 2024 का मंजर जो भी हो, सीन में उन्हें नहीं रहना है।

तब क्या होगा...जब 23 मई, 2019 को ही सत्ता से उनकी रुखसती का फरमान जारी हो जाए? यही सवाल मोदी को बेचैन कर रहा है, बल्कि बेहद बेचैन कर रहा है।

पहला सवाल तो भाजपा में उनकी प्रासंगिकता पर ही उठेगा। बीते 5 वर्षों में उन्होंने अमित शाह के साथ मिल कर पूरी पार्टी को हैक कर लिया है। संघ हमेशा की तरह नेपथ्य में है और उसकी भूमिका पर बाहर के लोग सिर्फ कयास ही लगा सकते हैं, जबकि भाजपा के अन्य कद्दावर नेता निस्तेज हैं।

2019 में भी 2014 की तरह 'भाजपा सरकार' नहीं, बल्कि 'मोदी सरकार' के लिये अभियान चल रहा है। यह सरकार अगर नहीं बन सकी तो भाजपा तो रहेगी, लेकिन मोदी कहां रह जाएंगे, यह सिर्फ अंदाजा ही लगा सकते हैं। उनकी उम्र अभी सक्रिय राजनीति करने की बाकी है, लेकिन, उनकी सक्रियता की कितनी जरूरत भाजपा को रह जाएगी, यह सवाल उठना शुरू होगा।

यद्यपि, मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने ऐतिहासिक राजनीतिक उत्कर्ष देखा है लेकिन...यह उन्हीं का नेतृत्व, उन्हीं की सरकार है जिसमें लोगों ने यह महसूस किया कि पूर्ण बहुमत में आने के बाद भाजपा देश की संस्कृति के साथ, अर्थव्यवस्था के साथ, कमजोर वर्गों के साथ कैसा सलूक कर सकती है।

मोदी राज में भाजपा की शक्तिशाली सत्ता का जो चरित्र दुनिया के सामने उजागर हुआ उसने भले ही मोदी को तात्कालिक लोकप्रियता दी हो लेकिन इतिहास इस लोकप्रियता में नकारात्मकता के अंशों की पहचान करेगा।

भाजपा को अगर भारतीय राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखनी है तो उसे मोदी राज की नकारात्मकताओं से सीख लेनी होगी। वरना, इसके राजनीतिक आधार के सिमटने में अधिक वक्त नहीं लगेगा।

झूठ और भ्रम की खेती कर कोई एक राजनेता कुछ समय के लिये तो अपना सिक्का जमा सकता है लेकिन एक राजनीतिक दल को संजीदा होना होता है, क्योंकि उसकी यात्रा अधिक लंबी होती है।

मोदी इंदिरा और राजीव नहीं हैं जिनके व्यक्तित्व और परिवार पर कांग्रेस की निर्भरता रही, न वे वाजपेयी हैं जिनका सम्मान दलीय सीमाओं का अतिक्रमण करता था। वे ऐसी सत्ता के प्रतीक हैं जिसका महत्व, जिसकी प्रासंगिकता सत्ता में बने रहने तक ही है।

सत्ता से बाहर हुए नहीं कि अपनी पार्टी ही दरकिनार करने में सबसे आगे होगी। निस्तेज चेहरों पर चमक आएगी और कुंठित आत्माएं मुखर होंगी। जाहिर है, ये सब मोदी के लिये चुनौती भरा होगा। वे इससे पार नहीं पा सकते क्योंकि एक बार सत्ता से बाहर होने के बाद उनकी उपयोगिता पर ही सवाल उठने लगेंगे।

और...अमित शाह...? आज की तारीख में सर्वशक्तिमान दिखने वाले इस चतुर राजनीतिज्ञ की भाजपा में कैसी जगह रह जाएगी, इस पर कयास ही लगा सकते हैं।

मोदी शैली की राजनीति कुछ समय के लिये चमक तो बिखेर सकती है लेकिन दीर्घजीवी नहीं हो सकती। वो अंग्रेजी में एक कहावत है न..."आप कुछ समय के लिये सबको भ्रम में रख सकते हैं, सब समय के लिये कुछ को भ्रम में रख सकते हैं, लेकिन सब समय के लिये सबको भ्रम में नहीं रख सकते...।"

नरेंद्र मोदी की बेचैनी सिर्फ अपनी सत्ता को बचाए रखने के लिये ही नहीं, अपनी प्रासंगिकता बनाए रखने की भी है। वे जानते हैं, जब तक वे सत्ता में हैं तभी तक वे प्रासंगिक हैं। वरना...इतिहास का बियाबान उनका इंतजार कर रहा है।

लेखक पाटलीपुत्र यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।

 


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