प्रकाश भटनागर।
एक ट्रक है, जिसके पीछे लिखा होता है, 'जगह मिलने पर साइड दी जाएगी।' एक ट्रक था, जो 'राग दरबारी' में शिवपालगंज की ओर यूं चला था, मानो रास्ते की हर बाधा को रौंदकर रख देगा।
एक भाजपा है, जिसके आदर्शों में लिखा होता है कि वंशवाद को सहन नहीं किया जाएगा। एक मध्यप्रदेश भाजपा है, जिसने इस आदर्श को रौंदकर रख देने में कोई कसर नहीं उठा रखी है।
पार्टी के दिग्गज नेताओं ने अपने बेटों की लांचिंग के लिए मोहरा बनाया है पार्टी की युवा इकाई को। बेशक बेटे युवा हैं तो युवा मोर्चा में काम करें, किसी को क्या दिक्कत लेकिन क्योंकि वे बड़े नेताओं के बेटे हैं, इसलिए उन्हें सीधे जिलों में प्रदर्शन के नेतृत्व का दायित्व सौंपने पर विचार हो गया।
यानि मामला सीधा वंश के दंश का है। वंशवाद के बकवाद का है। पार्टी के राज्य स्तरीय आला नेताओं ने इसके लिए अभिलाष पांडे को लांचिग पेड में तब्दील कर गजब विचार करवाया है।
तय हुआ है कि अब ऐसे नेताओं के चश्मो-चिराग यानी बेटे प्रदेश में युवा मोर्चा के सरकार के खिलाफ होने वाले आंदोलनों में अलग-अलग जिलों में नेतृत्व करेंगे।
दिग्गज नेता की औलाद होने मात्र से यदि नेतृत्व क्षमता मिल जाती होती तो इस देश को सियासत के मैदान में राहुल गांधी सहित तेजस्वी यादव, तेजप्रताप यादव और अखिलेश यादव जैसे घोरतम असफल चेहरे देखने नहीं मिलते।
और भी उदाहरण हैं। ये कांग्रेस और अन्य राजनीतिक दलों में तो बहुत आसान है लेकिन भाजपा को इस मामले में अपवाद माना जा सकता था।
बीते लोकसभा चुनाव में वंशवाद के खिलाफ पार्टी ने सख्ती दिखाई भी थी। लेकिन प्रदेश भाजपा में जो कुछ हो रहा है, वह पार्टी विद डिफरेंस और कांग्रेस के बीच के अंतर को बेहद तेजी से खत्म करता जा रहा है।
जाहिर बात है कि नेतागण अपनी औलादों के राजनीतिक लॉन्च के लिए यह सब कर रहे हैं। तो क्या पार्टी का शीर्ष नेतृत्व इस सब पर आंखें मूंदे रहेगा! शायद नहीं और शायद हां भी।
नहीं इसलिए कि आज भी भाजपा की नीति निर्धारित करने वालों में से अधिकांश इस बात के पक्षधर हैं कि परिवारवाद से सख्ती के साथ निपट जाए। लेकिन हां इसलिए कि ऐसे ही नेताओं के बावजूद मध्यप्रदेश में कई नेता बीते विधानसभा चुनाव में अपने लाड़लों को टिकट दिलाकर राजनीति में स्थापित करने के प्रयास कर चुके हैं। कुछ पास हुए, कुछ फेल हो गए।
नेता पुत्रों का आगे आना गलत नहीं है। किंतु उन्हें थोपा जाना सरासर अनुचित कहा जा सकता है। भाजपा में विश्वास सारंग, दीपक जोशी और राजेंद्र पांडे को ही लीजिए। तीनों ने राजनीति में नीचे से ऊपर तक का मुकाम अपनी क्षमता और मेहनत से हासिल किया।
तीनों के पिता भाजपा में बड़े नेता रहे हैं। तीनों के ही सियासी पदार्पण के समय उनके पिता इस सामर्थ्य से भरपूर थे कि अपने-अपने बेटों को पैराशूट की मदद से पार्टी में काफी ऊंचाई पर आसीन कर दें। लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया।
आलम यह रहा कि कालांतर में मंत्री बने दीपक जोशी तो भोपाल में टीटी नगर मंडल का अध्यक्ष पद का चुनाव तक हारने वालों में शामिल रहे वो भी राकेश गुप्ता नामक ऐसे कार्यकर्ता के हाथों, जिनके पास विरासत की कोई सियासी दमदारी का आधार ही नहीं था।
मध्यप्रदेश युवा मोर्चा का निर्णय कार्यकर्ता स्तर तक बहुत बड़ा झटका सािबत होगा। इससे पार्टी का वह काडर खुद को बुरी तरह ठगा हुआ महसूस करेगा, जो अब तक यह मानकर आशान्वित था कि यह वही भाजपा है, जिसमें एक चाय बेचने वाला तक अपने समर्पण, संघर्ष और पार्टी की सेवा के बदले प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री के पद तक पहुंच सकता है।
शुरू में मैंने 'जगह मिलने पर साइड दी जाएगी' का जिक्र किया था। प्रदेश भाजपा के कुटिल नेताओं के उन्मादी ट्रक ने इसी आशय का भाव दिखाकर आम कार्यकर्ता वाले काडर को जता दिया है कि उनके लिए फिलहाल आगे बढ़ने के अवसर भविष्य में कम हो सकते है।
'राग दरबारी' का भी जिक्र किया था। याद दिला दें कि उस ट्रक में प्रवेश करते समय उपन्यास का मुख्य पात्र रंगनाथ भूदानी झोला कंधे पर टांगे रहता है।
पार्टी की राज्य इकाई के घाघ नेताओं की इस तरकीब से वह झोला भी कांप उठा होगा, जिसके भीतर किसी जमाने में दो कपड़े और मुट्ठी भर चना-मुरमुरा रहता था और इसी झोले को कंधे पर टांगकर पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता गली-गली, डगर-डगर अपने दल की सेवा के लिए निकल पड़ते थे।
आपने झोला छाप डॉक्टर सुने होंगे, अब झोला छाप नेता शब्द भी सुन लीजिए। समझने में चूक मत कीजिएगा। यह वह झोला है, जिसके भीतर नेताओं के पुत्र या परिजन भरे हुए हैं। किसी भयावह बोझ की तरह।
यह झोला पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता का नहीं, बल्कि सत्ता की ताकत से मिले अभिमान का है। यकीनन, रावण जैसा अभिमान...। राम को भजने वाली पार्टी, रावण जैसे चरित्र पर अमल करने पर आमादा है। धन्य हो कमल के कीचड़ों...!
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और एलएन स्टार समाचार पत्र के प्रधान संपादक हैं।
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