राकेश दुबे।
अंततः कांग्रेस ने दिग्विजय सिंह को भोपाल से मैदान में उतार कर, भाजपा के सामने चुनौती खड़ी कर दी है। भाजपा को अब यह समझ में नहीं आ रहा है, मुकाबले में कौन हो ? भाजपा का वो भोपाली धड़ा भी असमंजस है, जो स्थानीय उम्मीदवार की मांग पर अड़ रहा था।
चुनौती और खतरा भाजपा और कांग्रेस दोनों के सामने है। भाजपा के आलोक संजर ने पिछले चुनाव [2014] में दिग्विजय सिंह के अलमबरदार और वर्तमान जनसम्पर्क मंत्री पी सी शर्मा को इस सीट पर पटखनी दी थी।
भोपाल लोक सभा सीट पर भाजपा का वर्चस्व काफी समय से है। दिग्विजय सिंह जब मुख्यमंत्री थे तब भी इस सीट से भाजपा जीतती रही है। दिग्विजय सरकार जाने का कारण तत्समय उनके द्वारा उछाले गये जुमले थे। जो कभी भोपाल अकार्ड सम्मेलन के बहाने तो कभी कर्मचारी आन्दोलन को लेकर कहे गये थे।
प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष और वर्तमान मुख्यमंत्री कमलनाथ ने इसे कठिन सीट माना है और चित भी मेरी और पट भी मेरी की तर्ज पर राजा को राजगढ़ से राजधानी में घसीट लिया है।
इसमें थोड़ा जोर ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी लगाया है। पिछले विधानसभा चुनाव में उम्मीदवारों के चयन में दिग्विजय सिंह द्वारा बरती गई चतुराई का यह प्रतिफल संभावित था।
अब भोपाल सीट के चुनावी गणित को इस बात से समझा जा सकता है कि कांग्रेस ने यहां अपना आखिरी संसदीय चुनाव 1984 में जीता था। इसके बाद से लगातार भाजपा यहां जीत रही है।
1989 से रिटायर्ड आईएएस सुशील चंद्र वर्मा चार बार यहां से चुने गए, इसके बाद उमा भारती, कैलाश जोशी (दो बार) सांसद बने। इस समय भाजपा के आलोक संजर यहां से सांसद हैं, सांसद से ज्यादा उनके व्यक्तिगत सम्पर्क हैं, सौम्य हैं।
विधानसभा चुनावों में कांग्रेस की जीत के बाद पूरे राज्य की तरह भोपाल में भी सियासत के समीकरण बदले हुए हैं। भाजपा में भी कांग्रेस में भी।
विधानसभा चुनाव में भोपाल की तीन सीटों, भोपाल सेंट्रल,भोपाल दक्षिण पश्चिम और भोपाल नार्थ पर कांग्रेस ने जीत हासिल की थी। इसके बावजूद कांग्रेस के पास भोपाल में लोकसभा के लिए कोई सर्वमान्य और धाकदार चेहरा नहीं था।
भोपाल से आठ विधानसभा सीटे हैं, भाजपा का गढ़ बन चुकी इस सीट पर कड़ी टक्कर देने के लिए कांग्रेस की कवायद किसी और चेहरे को नहीं खोज सुरेश पचौरी और उनके खेमे के कुछ नाम उछले जरुर पर कमलनाथ और सिंधिया की जुगलबंदी ने नया खेल रच दिया।
भोपाल संसदीय सीट पर कायस्थ, ब्राह्मण और मुस्लिम वोटरों की संख्या अच्छी खासी है। ऐसे में भाजपा इसी वर्ग से ऐसे दमदार प्रत्याशी को खोज रही है, जो दिग्विजय सिंह से मुकाबला कर सके।
राज्य के पूर्व मुख्यमंत्री बाबूलाल गौर और पूर्व मंत्री उमाशंकर गुप्ता टिकट के दावेदार के रूप में सामने आए हैं।
मीडिया में तो यहां तक चर्चा है कि पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज चौहान यहां से प्रत्याशी बनाया जा सकता है। यह मुकाबला रोचक होगा। दस साल का मुख्यमंत्री बनाम 13 साल का मुख्यमंत्री।
इस मुकाबले से उम्मीदवार की लोकप्रियता के साथ दल की राजनीतिक स्वीकार्यता भी पता लग जाएगी। कांग्रेस इस समय राज्य में सत्ता में काबिज है उसने एक होकर चुनाव लड़ा तो इस सीट से भाजपा का वर्चस्व समाप्त हो सकता है।
कल भाजपा की ओर से एक नाम प्रज्ञा सिंह ठाकुर का भी उछला है। दिग्विजय सिंह अब भी प्रज्ञा सिंह को भगवा आतंकवाद का चेहरा मानते हैं।
प्रज्ञा सिंह अस्वस्थ हैं और भाजपा की सदस्य भी नहीं है। भाजपा को मुकाबले में किसी “माई के लाल” को ही उतारना पड़ेगा। कम वजन का पहलवान नहीं चलेगा। हल्का पहलवान उतारना तो नूरा कुश्ती हो जाएगी।
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