रीता दास राम विनय साहिब
“ क्या आप वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की पत्नी विजय नरेश को जानते हैं?"
पिछले दिनों आपने हिंदी के 25 से अधिक जाने माने लेखकों की पत्नियों की अनकही कहानी सुनी। इस क्रम में गत अंक में आपने हिंदी के यशस्वी लेखक फणीश्वर नाथ रेणु की पत्नी लतिका रेणु के बारे में जानकारी हासिल की। इस बार आप हिंदी के प्रख्यात कवि नरेश सक्सेना की पत्नी के बारे में पढ़िए। बहुत कम लोग यह जानते होंगे कि उनकी पत्नी अपने समय की एक मशहूर तवायफ और गायिका की बेटी थी। वह जीवन में कई तरह की मुसीबतों का सामना करती रहीं लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी। जीवन में आगे बढ़ते हुए फिल्म निर्माण के क्षेत्र में महत्वपूर्ण उपलब्धियां हासिल की। उन्होंने शबाना आजमी के साथ पुणे फिल्म संस्थान से निर्देशन के क्षेत्र में कोर्स किया था और वह देश की जानी मानी वृत्तचित्र निर्माता बनी।उनके व्यक्तित्व में एक खास तरह की गरिमा, शालीनता और विनम्रता तथा सौंदर्य अभिरुचि थी जिससे कोई व्यक्ति बिना प्रभावित हुए रह नहीं सकता था। तो आइए आज उनकी पत्नी विजय नरेश के बारे में पढ़िए।
विजय ठाकुर का जन्म सागर में हुआ था। मध्य प्रदेश राज्य के एक छोटे से शहर में। सागर थोड़ा इंटीरियर में पड़ता था। रेलवे से भी अच्छी तरह जुड़ा हुआ नहीं था। इसलिए उनकी माँ 'बेनीबाई' जो एक प्रसिद्ध तवायफ़ थीं, सागर से जबलपुर में शिफ्ट हुईं।
विजय ठाकुर की प्राथमिक शिक्षा जबलपुर में हुईं। छोटी उम्र में पढ़ाई तो चलती रही; पर इंटरमीडिएट कर लेने के बाद दिक्कतें शुरू हो गयीं। क्योंकि जबलपुर शहर के लगभग सभी लोग उन्हें जानते थे।
उन्होंने अपना शहर छोड़कर, भोपाल के मेडिकल कॉलेज में एडमिशन लिया। जिस वजह से उन्होंने जबलपुर शहर छोड़ा था उस वजह ने उनका साथ नहीं छोड़ा था। उसी के चलते उन्हें भोपाल का मेडिकल कॉलेज भी छोड़ना पड़ा।
लड़कों ने पढ़ने नहीं दिया। अश्लील बातें, कमेन्ट पास करना, ब्लैक बोर्ड पर अश्लील फब्तियां लिख देना, कोई टीचर इन्टरेस्ट लेकर बात समझाना शुरू करे तो उसका नाम भी लपेट लेना। कॉलेज में लड़कों के परेशान करने की वजह यह थी कि उनकी माँ 'बेनीबाई' एक तवायफ़ थीं।
बेनीबाई बहुत मशहूर थीं, वह बहुत अच्छा गाती थीं। पूरे भारत में उनका बहुत नाम था। जहाँ वे रहती थीं वो तवायफों का मोहल्ला था। जहाँ पर लड़कियाँ मेकअप करके दरवाजों पर खड़ी रहती थीं।
कोठों के ऊपर से नाचने-गाने की आवाजें आती रहती थीं। यह किसी भी शहर का सबसे बदनाम मोहल्ला होता है। उसी मोहल्ले में बेनी कुँवर बाई का कोठा था। जो बेनीबाई नाम से मशहूर थीं।
बेनीबाई अपने शहर की ऊंची हस्ती थीं, साधारण नहीं। नव-दुर्गा में निर्जल व्रत रखना, नंगे पैर मंदिर जाना, मंदिर से किसी कार्यक्रम में बुलाया आता; तो वह बिना फीस लिए गाती थीं। मोहर्रम में वे कहीं नहीं जाती थी।
कहती थीं “मेरे सारे गुरु तो मुसलमान हैं; रोज़े में वो बिना कुछ खाए-पिए कैसे बजाएंगे। उन्हें अपमानित करके मेरा गाना-बजाना नहीं होगा।" चाहे जितना बड़ा, लाखों रुपये का प्रोग्राम आए तो भी वह मोहर्रम में नहीं जाती थीं।
विजय के कोई दोस्त उनके घर आ-जा नहीं सकते थे। उनका भी दूसरों के घर जाना-आना नहीं होता था। इससे यह समझा जा सकता है कि किस तरह उनका बचपन बीता होगा।
भोपाल के एम.बी.बी.एस. कॉलेज से जबलपुर वापस चली आईं थीं, तब भी वह परेशान ही हुईं। आखिर, सेकंड ईयर में ही उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी। वह बीमार पड़ गईं। फिर कभी कॉलेज नहीं गईं।
जब दो साल गुजर गए। साथी आगे चले गए तब हिंदी विषय से प्राइवेट बी.ए., एम.ए. किया। एम.ए. के बाद, चूँकि विजय की आवाज बहुत अच्छी थी तो उन्होंने अनाउंसर की पोस्ट के लिए आवेदन किया।
आवेदन करने के भी पैसे नहीं थे। क्योंकि बेनीबाई की उम्र हो जाने की वजह से गाने के कोई कार्यक्रम न के बराबर आते थे। वह जबलपुर शिफ्ट होते समय अपनी सारी प्रॉपर्टी सागर में ही छोड़ आयी थीं।
बेनीबाई पढ़ी-लिखी नहीं थी। जिसका फायदा उठाकर लोगों ने जमीन-जायदाद हड़प लिए थे। उल्टे मुकदमे और करा दिए थे। गहने बेच-बेच कर बेनीबाई अपना काम चला रही थी। पैसे की तंगी हमेशा बनी रहती थी। फिर विजय को अनाउंसर की नौकरी मिल गयी।
नरेश जी जबलपुर में अपनी पढ़ाई के साथ-साथ कार्यक्रमों में बाँसुरी बजाते थे, माउथ ऑर्गन बजाते थे और विजय जी भी पढ़ाई के साथ-साथ जबलपुर के भातखंडे में संगीत की छात्रा थीं। भातखंडे और बाहर के कार्यक्रमों में गाती थीं।
जबलपुर में एक मिलन नाम की संस्था थी जिससे दोनों लोग जुड़े हुए थे। फिर भी नरेश जी और विजय जी का कोई कार्यक्रम एक साथ नहीं हुआ कभी। इस तरह बिना मिले भी एक-दूसरे को जानते थे।
एक मोटा परिचय था। 1958 में ऑल इंडिया यूथ फेस्टिवल में विजय जी जबलपुर यूनिवर्सिटी से गईं और ऑल इंडिया लेवल पर बेस्ट क्लासिकल सिंगर का अवॉर्ड लेकर आई थीं। सभी अखबारों में इनके फ़ोटो छपे। विजय जी को भी पूरा शहर जानने लगा था।
विजय जी से नरेश जी की व्यवहारिक मुलाकात 1958 में जबलपुर में ही हुई थी। यह एक संयोग की बात है कि नरेश जी के इंजीनियरिंग पास करते ही, 1964 में उन्हें लखनऊ में असिस्टेंट इंजीनियर की नौकरी मिली और उधर विजय जी का जबलपुर से लखनऊ ट्रान्सफर हो गया।
नरेश जी की शादी विजय जी से 1970 में हुई। इस तरीके से शादी से पहले 12 साल का परिचय रहा। बड़ी बात ये है कि नरेश जी की बड़ी बहन ने जोर देकर शादी कराई और ये दोनों भी शादी करना चाहते थे। विजय की माँ शादी टाल रही थी। उनके पास इंतजाम के पैसे नहीं थे।
नरेश जी के बड़े भाई ने कहा- “आप शादी करा दो कोई खर्चा नहीं होगा। हम इंतजाम करा देंगे। आर्यसमाज मंदिर में शादी कर दीजिए। कुछ खर्चा नहीं होगा। 51 रुपये शादी के और कुछ रुपए एक किलो लड्डू के लगेंगे।" तब बेनीबाई ने कहा, “ऐसे कैसे करेंगे?
हम तो धूमधाम से शादी करेंगे। बारात हमारे मोहल्ले में ही आएगी। लोगों को पता तो चले कि हमारी बेटी की शादी हुईं है।" उस मोहल्ले में नरेश जी की बारात गई। सड़क पर ही मड़वा गढ़ा। आँगन नहीं था उनके घर में।
सड़क से सीधा बेनी बाई के कोठे पर जीना जाता था। सड़क के किनारे शादी हो रही थी। साइड से ऑटो, रिक्शा, मोटर-सायकिल आदि निकल रहे थे। शादी के कार्ड पर लड़की वालों की तरफ से हरिशंकर परसाई, वहाँ के मेयर भवानी प्रसाद तिवारी और नर्मदा प्रसाद खरे इन तीनों के नाम थे। इन्हीं तीन लोगों से पूछकर बेनीबाई ने रिश्ता भी तय किया था।
दरअसल भवानी प्रसाद तिवारी आठ साल जबलपुर के मेयर रहे। मेम्बर ऑफ पार्लियामेंट भी थे। उनके बेटे-बेटियाँ भी म्यूजिक से जुड़े थे। सो वे विजय जी के साथी थे। इस तरह से बेनीबाई का उनके घर सिर्फ आना-जाना ही नहीं होता था बल्कि वो भवानी प्रसाद तिवारी जी को राखी भी बाँधती थी।
बेनीबाई के पूछने पर भवानी प्रसाद तिवारी जी ने कहा- “लड़का बहुत अच्छा है शादी करा दीजिए।" उन्हें शक हुआ, तब भवानी जी ने कहा, “मेरी बात पर शक कर रही हो तो क्या परसाई जी की बात मानोगी?” उन्होंने कहा, “हाँ! उनकी बात मानूँगी।” उनको बुलाया गया।
बेनीबाई ने कहा- “आप जिम्मेदार होंगे। आपका नाम छपेगा कार्ड में।” परसाई जी ने हंसते हुए सब स्वीकार किया। बेनीबाई ने जैसा जीवन जिया था उसमें शक होना तो साधारण सी बात थी। खैर... उन तीन लोगों के अलावा शादी में रवींद्र कालिया जी, ज्ञानरंजन जी, विनोद कुमार शुक्ल जी और जबलपुर के कई साहित्यकार शामिल थे।
परिवार की तरफ से शादी के लिए कोई दिक्कत नहीं हुई। बस शादी में न बड़े भाई आए, न कोई रिश्तेदार। इसलिए क्यों कि सारे रिश्तेदार जाने को तैयार नहीं थे। तो बड़े भाई साब ने कहा, “अगर मैं आऊँगा तो रिश्तेदारों को बहुत बुरा लगेगा, रिश्तेदारी खराब होगी और अगर इतनी बड़ी बारात लेकर उनके यहाँ चला भी जाए तो वहाँ इंतजाम नहीं है। बेहतर है दोस्तों के साथ जाकर शादी कर लाओ।“
शादी के बाद नरेश जी ने विजय जी को पूना फिल्म इंस्टीट्यूट में भर्ती कराया। वे पूना एफ.टी.आई.आई से फिल्म डायरेक्शन की पहली या दूसरी ग्रेजुएट महिला हैं। उस जमाने में लड़कियों को डायरेक्शन में नहीं फिल्म एडिटिंग, स्क्रीनप्ले राइटिंग, एक्टिंग में एडमिशन मिलता था।
वहाँ विजय जी के इंटरव्यूह में मृणाल सेन और ऋत्विक घटक जैसे फिल्म डायरेक्टर्स थे। दोनों की फिल्में सारी दुनिया में दिखाई जाती है।
लिखित परीक्षा में उत्तीर्ण होने के बाद इंटरव्यूह में इनसे ऐसा कहा गया कि "डॉक्यूमेंटरी में रिपीट और कट नहीं होता एक बार जो ले लिया सो ले लिया। कैमरे के साथ ऐसे जगहों पर जाना होता है जो बहुत खतरनाक होते हैं। तुम्हारा लड़की होकर यह करना संभव नहीं है।"
विजय जी ने कहा, “आपको भी ऐसा लगता है तो रहने दीजिए।” उन्होंने यह कह कर एडमिशन दिया कि “तुम अभी शुरुआत करो जब तुम्हें लगने लगे कि यह काम तुम्हारे बस का नहीं है, तो कोर्स चेंज कर लेना।”
इस तरह फिल्म डायरेक्शन के कोर्स में एडमिशन हो गया। वे पहली महिला थीं जिन्होंने फिल्म डायरेक्शन का कोर्स पास किया। फ़िल्म इंस्टीट्यूट के एक्टिंग कोर्स में मिथुन चक्रवर्ती और शबाना आजमी इन्हीं के बैच के थे।
जया भादुरी एक वर्ष पहले पास कर चुकी थीं। पुणे फिल्म इंस्टीट्यूट के साठ वर्ष पूरे होने पर, भारत सरकार के प्रकाशन विभाग द्वारा शेखर कपूर की अध्यक्षता में, इंस्टिट्यूट में महिलाओं के योगदान पर जो कॉफी टेबल बुक प्रकाशित की है, उसमें विजय नरेश और उनकी बेटी पूर्वा नरेश दोनों के चित्र हैं और उनका योगदान रेखांकित है।
फिल्म डायरेक्शन करके जब विजय जी वापस लखनऊ आईं तो संगीत नाटक अकाडमी में प्रोड्यूसर हुईं। उस समय विजय जी ने जौनसार-बाबर इलाके में जाकर, वहाँ रहकर शूटिंग की।
वहाँ पर पॉलिएंड्री भी है और पॉलिगैमी भी है। (एक स्त्री के कई पति और एक पति की कई स्त्रियाँ भी होती है) यह वो इलाका है जो महाभारत के पात्र से खुद की पहचान रखता है। यह गढ़वाल की पहाड़ियों में हैं।
इसके लिए देहरादून से आगे आठ-नौ हजार फूट की ऊंचाइयों पर जाना पड़ता है। यमुना नदी पार कर लाखा नाम की जगह है। जहाँ शिव का पुराना मंदिर है। महाशिव को महासू कहते हैं। वहाँ के लोगों ने उनसे कहा- “आप यहाँ आने वाली पहली महिला है जो इतनी दूर से यात्रा करके आई है।"
भूसे की कोठरी की खाली जगह में फिल्म टीम के सभी सात-आठ लोग रहे और फिल्म शूट हुईं। वहाँ गरीबी इतनी है कि चार भाई चार पत्नियों का भोजन नहीं जुटा पाते इसलिए एक स्त्री रख लेते हैं।
पहाड़ पर कोई आमदनी नहीं है। दो भाई जरूरत की खातिर चार औरतों से शादी करते हैं ताकि ऊंचाई पर घर परिवार और नीचे जानवरों, खेत की रक्षा हो सके। वहाँ बहुपत्नी और बहुपति प्रथा है जिसका कारण आर्थिक है।
विजय जी ने वहाँ डॉक्यूमेंटरी बनाई जिसे बेस्ट डॉक्यूमेंटरी का अवार्ड भी मिला। लखनऊ में हुए अवॉर्ड विनिंग फिल्मों के फेस्टिवल में भारत के सारे बड़े डायरेक्टर्स श्याम बेनेगल, प्रकाश झा, ऋषिकेश मुखर्जी, बासु भट्टाचार्या, बासु चटर्जी, अन्य सारे मौजूद थे।
उसमें डॉक्यूमेंटरी का अवॉर्ड ‘जौनसार-बाबर’ फिल्म को मिला था। उसकी कमेंट्री नरेश जी ने लिखी थी। विजय नरेश इस फेस्टिवल की डायरेक्टर थीं। स्वयं नरेश सक्सेना को 1991 में फिल्म निर्देशन के लिए भारत सरकार की तरफ से राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था।
इस फिल्म का निर्देशन विजय नरेश जी को ही करना था लेकिन उनके सूरीनाम चले जाने के कारण यह दायित्व नरेश जी को निभाना पड़ा। इसके अतिरिक्त भी नरेश सक्सेना ने कई सीरियल और लघु फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया।
इसके बाद वे डायरेक्टर ऑफ इंडियन कल्चरल सेंटर (First secretary embassy of India) की हैसियत से सूरीनाम में चली गईं। वहाँ के वोइस प्रेसीडेंट ने ऑफर भी किया कि सूरीनाम की नागरिकता ले लीजिए।
यू.एन.ओ. में स्थाई प्रतिनिधि बन जाइए, सेलेरी और सुविधाओं के साथ। विजय ने स्वीकार नहीं किया। वह बच्चों को लेकर वापस भारत आ गईं। लखनऊ आईं तो यहाँ एजुकेशनल टीवी की डायरेक्टर हो गईं।
इससे पहले वे इसरो में अहमदाबाद में इंडियन स्पेस रिसर्च ऑर्गनाइजेशन में सीनियर प्रोड्यूसर थीं। पहला सीरियल जो सेटेलाइट से इंडिया में टेलिकास्ट हुआ, ब्रॉडकास्ट किया गया। वो उन्हीं का बनाया हुआ था। वह गुजराती में बनता था। उस समय सेटेलाइट से टेलिकास्ट होने के प्रयोग हो रहे थे।
विजय ने गुजराती में सीरियल बनाया। अहमदाबाद में टेलिकास्ट किया गया। उस समय दूरदर्शन के अलावा इसका कोई को-चैनल नहीं होता था। एक बार समुद्र में तेल के कुएं के लिए ऑइल ड्रिलिंग हो रही थी। समुद्र के ऊपर जाकर उसे शूट करना था, डॉक्यूमेंटरी बनानी थी। इसमें हैलिकॉप्टर से जाना था, जिसके क्रेश होने का खतरा रहता है।
वहाँ से नरेश जी को ऍप्लिकेशन आया कि आपकी पत्नी ऑइल ड्रिलिंग शूट की इच्छुक है अतः आप परमिशन दीजिए। ताकि बीमा कराया जा सके। वे पहली महिला थीं जिन्होंने उस समय समुद्र के ऊपर जाकर शूटिंग की।
विजय जी दूरदर्शन, आकाशवाणी से गाती थीं। अभी भी उनके गाए हुए पुराने गीत अदीस अबाबा से आते हैं। विजय जी को डायबिटीज था जिसके चलते धीरे-धीरे आँखों की ज्योति जाती रही। उन्होंने अपने पद से रिजाइन कर दिया। घर में रहने लगीं।
आकाशवाणी, दूरदर्शन को भी कह दिया कि मुझे कोई कार्यक्रम ना दें। यह अंदाजन 1994 की बात होगी। चलना-फिरना कम हो गया। कांप्लीकेशन बढ़ गए दो बार हॉस्पिटलाइज़ रहीं फिर उनका निधन हो गया। उनकी मृत्यु हुए आज दस साल हो गए।
वे कम पर अच्छा लिखती थीं। घर में घरेलू काम के लिए रामकुमार और उनकी पत्नी पुष्पा हैं। ये सभी घर ही में रहते हैं। विजय जी की जब आँखें चली गईं तो वह पूरा पैसा, घर खर्च के लिए पुष्पा को दे देती थी।
जब बेटे राघव नरेश की शादी हुई तो विजय जी ने बेटे की बहु से कहा, “यह पुष्पा मेरी बड़ी बहू हैं। तुम छोटी बहु हो इस नाते घर का खर्चा यही चलाएंगी।
इनको बड़ी बहू मानकर होली, दीवाली में तुम इनके पाँव छूओगी। पैसे की कोई जरूरत पड़े तो हमसे बताना या उनसे कुछ पैसे ले लेना।" ये रिश्ता उन्होंने बनाकर रखा था जो आज तक है।
आज भी नरेश जी के घर के नेम प्लेट पर उनके घर काम करने वालों के बच्चों के भी नाम लिखे हैं। घर की वसीयत में भी इन सभी के नाम लिखे हैं। इसमें जो जहाँ रहता है, वे चाहे तो हमेशा रह सकते हैं। घर कभी बिका तो भी कुछ न कुछ सभी का हिस्सा होगा।
बूढ़े होने पर पेंशन का प्रावधान भी है। विजय जी जहाँ भी रहीं पूरे आदर और सम्मान के साथ रहीं। यहाँ जो कुछ भी लिखा गया यह बहुत कम है उनके व्यक्तित्व के सामने।
जिंदगी भर उन्होंने बहुत मेहनत किया। हिंदी से इंग्लिश मीडियम की पढ़ाई की। नरेश जी ने भी उन्हें पढ़ाया। वह बहुत सशक्त महिला थीं।
नरेश जी कहते हैं, “मैं बहुत भाग्यशाली था कि उन्होंने शादी के लिए मुझे पसंद कर लिया। यह मेरे लिए बहुत बड़ी बात थी; जबकि विजय से बहुत लोग शादी करना चाहते थे। हमारे बच्चों के नाम पूर्वा नरेश और राघव नरेश है।
पिछले साल राघव की मृत्यु हो गई। बेटी है नाटक और फिल्में लिखती है, निर्देशित भी करती है। उसे बिसमिल्ला खां अवॉर्ड मिला है। उन्हें कई अंतरराष्ट्रीय अवॉर्ड भी मिले हैं। उनके नाटक भारत के अलावा सिडनी, लंदन आदि में भी मंचित हुए हैं।
बेनीबाई भी साधारण महिला नहीं थीं। उन्हें फिल्म शाहजहां में के.एल. सहगल के साथ हीरोइन के लिए चुना गया था। लेकिन उस जमाने में फिल्मों में काम करना अच्छा नहीं माना जाता था। सो उन्होंने कॉन्ट्रैक्ट तोड़ दिया। ए.आर. कारदार को हजारों रुपए हर्जाने के दिए, लेकिन शूटिंग पर नहीं गयीं।”
महत्वपूर्ण बात यह है कि उस मोहल्ले में पली-बढ़ी लड़की एक मदद से कहाँ से कहाँ पहुँच गई जबकि शादी के बाद लड़कियों का कैरियर खत्म हो जाता है।
कहते हैं पुरुष के प्रगति के पीछे स्त्री होती है। यहाँ हम बात उलटी होती देख रहे हैं। इस स्त्री के प्रगति के पीछे पुरुष का हाथ रहा। यह बड़ी बात है।
(वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना की रीता दास राम और विनय साहिब से हुई बातचीत के आधार पर)
वीरेंद्र भाटिया के फेसबुक वॉल से
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