राजेंद्र चतुर्वेदी।
हमारे देश में महिलाओं की जिंदगी और मौत से जुड़े मुद्दों को आखिर तरजीह क्यों नहीं मिलती? लैंसेट पब्लिक हेल्थ जर्नल ने अपनी रिपोर्ट में बताया है कि दुनिया भर में जितनी महिलाएं आत्महत्या करती हैं, उनमें से 37 फीसद अकेले हमारे देश की होती हैं। इन कुल में से 63 प्रतिशत महिलाएं विवाहित होती हैं।
क्या यह रिपोर्ट हमारी इस पारंपरिक समझ पर सवालिया निशान नहीं लगाती कि शादी के बाद महिलाएं सुरक्षित हो जाती हैं? बाजारवाद के समर्थक तो यह कहते रहते हैं कि जैसे-जैसे आर्थिक विकास होगा, गैर-बराबरी पर आधारित पितृसत्तात्मक ढांचा बदलेगा और महिलाएं सामाजिक जीवन में कदम दर कदम आगे बढ़कर सशक्त होती जाएंगी।
लैंसेट का अध्ययन यह भी कहता है कि 1990 से 2016 के बीच देश में महिलाओं की आत्महत्याओं में 40 फीसद की वृद्धि हुई है। 2016 में देश में प्रति एक लाख महिलाओं पर 15 ने आत्महत्या की, जो वैश्विक औसत सात प्रति लाख से दो गुना था। ये आत्महत्याएं ऐसे कालखंड हो रही हैं जिसमें महिलाएं अपने आकाश की तलाश में लीक तोड़ रही हैं और अपना भविष्य खुद चुनने की जद्दोजहद में लगी हैं।
हैरत की बात है कि इस रिपोर्ट पर फेसबुक पर कम से कम अपन की नजर में तो एक भी पोस्ट नहीं गुजरी है, जबकि महिलाओं की आत्महत्याओं के आंकड़े ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को पीछे छोड़ दिया है।
कहीं हम केवल उन्हीं मुद्दों पर बात करने के आदी तो नहीं हो गये हैं जो सरकार और राजनीतिक बिरादरी हमें पकड़ा देती है?
फेसबुक वॉल से
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