अनिता शर्मा
हमारे समाज में प्रचलित चलन के अनुसार हम किसी योजना या किसी आन्दोलन की, शुरुआत तारीख को प्रतिवर्ष उस दिन उसकी याद में पूरी शिद्दत से मनाते हैं और तो और उस आयोजन के उद्देश्य को भी याद करते हैं। इसी परंपरा का निर्वाह करते हुए हम 1992 से 3 दिसम्बर को प्रतिवर्ष विकलांगता दिवस मनाते हैं। इस दिन कई तरह के सांस्कृतिक तथा खेलकूद से संबन्धित कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं, रैलियाँ निकाली जाती है तथा सरकार द्वारा शारीरिक अक्षम लोगों के हित के लिये कई लाभकारी योजनाओं की भी घोषणा की जाती है।
विकलांगता दिवस मनाने का उद्देश्य है कि, आधुनिक समाज में शारीरिक रूप से अक्षम लोगों के साथ हो रहे भेद-भाव को समाप्त करना तथा शारीरिक रूप से अक्षम लोगों को मुख्य धारा में लाने का प्रयास करना। इसी के तहत 2013 के विकलांगता दिवस का थीम था, बंधनों को तोड़ो दरवाजों को खोलो अर्थात सभी का विकास समावेशी समाज में।
वास्तविकता तो ये है कि हम वर्ष के सिर्फ एक दिन उस दिवस के उद्देश्यों और आदर्शों को बहुत शिद्दत से मनाते हैं लेकिन अगले ही दिन हम उन्हें भूल जाते हैं। हम सब अपने-अपने जीवन में व्यस्त हो जाते हैं। जबकी विकलांगता दिवस का उद्देश्य तभी सार्थक हो सकता है जब हम सिर्फ एक दिन नहीं वरन वर्ष के सभी दिन उन्हें अपने समाज का हिस्सा मानें और उनके साथ सहयोग की भावना रखें।
आज हमारा देश भारत विकासशील देश की श्रेणी में है। हमने विज्ञान में अनेक कीर्तिमान रचे हैं, हाल ही में हम मंगल पर भी अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुके हैं। परंतु अभी भी हम भेद-भाव के वायरस को समाप्त नही कर सके हैं। मित्रों, शारीरिक अक्षमता जन्मजात भी हो सकती है और दुर्घटना की वजह से भी हो सकती है, परंतु जिस विकलांगता का उन्हें एहसास कराया जाता है वो हमारे समाज की विकलांग मानसिकता को ही दर्शाती है।
यदि हम दृष्टिबाधित लोगों की बात करें तो उन्हें सबसे पहले अपने परिवार वालों की ही उपेक्षा का शिकार होना पङ़ता है क्योंकि कई परिवार तो इस डर से कि, समाज में कोई क्या कहेगा या परिवार के बाकी बच्चों का विवाह कैसे होगा जैसे कारणों की वज़ह से दृष्टीबाधितों को छुपाकर रखते हैं या उन्हें किसी संस्था में छोङ़ कर दोबारा उनकी तरफ देखते भी नहीं। बहुत कम खुशनसीब दृष्टीबाधित बच्चे हैं जिनका परिवार उनके साथ होता है। मित्रों, ऐसी उपेक्षित परिस्थिति में दृष्टीबाधित बच्चों का सकल विकास कैसे संभव हो सकता है?
हमारी प्रचलित मान्यताएं और रुढ़ीवादी विचारधारा इस परेशानी में आग में घी का काम करती हैं। वर्षों पहले तक अक्षम बच्चों को अपमान का कारण समझा जाता था। दृष्टीबाधिता को सजा का प्रतीक समझा जाता था। ये कहना अतिशंयोक्ति न होगी कि आज भी समाज के कुछ वर्गों में ये मनोवृत्ति व्याप्त है कि अंधापन उनके पूर्व जनम के पाप की सजा है या उनके माँ-बाप के अनुचित कार्यों का ही परिणाम है।
आज समय के साथ शिक्षा के विस्तृत ज्ञान ने सामाज की अवधारणा को थोड़ा परिवर्तित जरूर किया है किन्तु आज भी अंधापन सजा की परिभाषा से निकलकर दयाभाव, भिक्षादान के जाल में उलझ कर रह गया है। जिसमें अक्सर मानवतापूर्ण सहानुभूति का अभाव नजर आता है। सच्चाई तो ये है कि यदि हम दृष्टीबाधित बच्चो को भी उचित सहयोग और अवसर प्रदान करें तो वो भी आत्मनिर्भर बनकर देश के विकास में अपना योगदान दे सकते हैं क्योकि विकलांगता कोई अभिशाप नही है।
मदर टेरेसा के अनुसार, "महत्वपूर्ण ये नहीं है की आपने कितना दिया, बल्कि महत्वपूर्ण ये है कि देते समय आपने कितने प्यार से दिया।"
विकास के इस दौर में आप सबसे अनुरोध है कि, हम सब मिलकर दृष्टीबाधित बच्चों के लिये मानवीय भावना से ओत-प्रोत एक ऐसे आसमान की रचना करें, जिसकी छाँव में दृष्टीबाधित बच्चे सकारात्मक सहयोग और स्वयं के प्रयास से आत्मनिर्भर बन सकें। मित्रों, दृष्टीबाधितों के विकास में हम उनकी शैक्षणिक पाठ्य सामग्री को रेकार्ड करके, परिक्षा के समय सहलेखक (Scribe) बनकर तथा चिकित्सा आदि के माध्यम से अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को निभा सकते हैं।
हम सबकी सामाजिक चेतना के सहयोग से, दृष्टीबाधित बच्चों में भी आत्म-सम्मान से जीने की भावना का विकास होगा, जो किसी भी समाज और देश के लिये हितकर होगा। समाज की प्रथम इकाई परिवार के भावनात्मक सहयोग और हम सबके मानवीय दृष्टिकोण से दृष्टीबाधितों को जो सुरक्षित और आशावादी क्षितिज प्राप्त होगा उसकी मधुर एवं संवेदनशील छाँव में ये बच्चे निश्चय ही विकास की इबारत लिखेंगे। निःसंदेह हम सबके साथ से विकलांता दिवस सार्थक और सफल बन सकता है।
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