ऋचा अनुरागी।
हमारा घर और उसका आँगन खुश्बूओं से पहचाना जाता था। रसोई घर की सौंधी महक ,बगीचे के हर मौसम में बदलती खुशबू ,कभी रातरानी महकती तो कभी चम्पा -चमेली,अपनी खुशबू फैलाते,तो जूही के नन्हें-नन्हें पुष्प हर खुश्बू से अलग अपनी सुगंध बिखेरते मोगरा और गुलाब का तो जैसे बगीचे पर राज था,डाँ.श्रीवास्तव ऑटी की गोवा की लिली अपनी सुनहरे रंग पर इतराती।इन सबके बीच इलाहबादी अमरुद,नीलम भाई के द्वारा बनाया गया बेर का वृक्ष, लखनऊ के आम, कंधारी अनार और सीता फल लगता समूचे भारत की खुशबू अनुरागी आँगन में रच-बस गई हो ।
हम सब बच्चों को अलग-अलग क्यारी दी जाती थी जिसकी देख-भाल हमें करनी होती थी फिर हर बच्चे को पापा पुरस्कृत भी करते यह पापा की शुरुआत थी हमें पेड़-पौधों से के करीब लाने की ।हम अपने पोधों से इतना प्यार करते की स्कूल जाने से पहले उनमें पानी डालते उन्हें प्यार करते। और आते से पहले उन्हें मिलते फिर अन्दर जाते।हमें आज भी लगता है ये हमसे बात करते हैं।
आज हमारी समझ में आता है पापा क्यों पोलीथिन बैग को भस्मासुर कहते थे ,हमारे घर में इसे लाने की मनाही थी ,माँ के हाथों से सिली थैलियों का हमारे रोजमर्रा के कामों में इस्तमाल होता था ,जबकि नये-नये पोलीथिन बैग हम सबको आकर्षित करते थे। पापा हमें समझाते तुम्हारी सारी उपजाऊ जमीन जल के स्त्रोत यह भस्मासुर खा जायेगा। उनकी यह दूर- दृष्टि आज आज समझ आती है ,सच में उनका बताया भस्मासुर आज हमारे लिये मुसीबत बना हुआ है और हम फिर भी नहीं समझ रहे हैं।हाल ही में दिल्ली से सटे गाजियाबाद की तेरह मंजिल इमारत की बालकनी से एक विशाल पहाड़ देख पूछा कि वह कौन सा पहाड़ है?पास खड़े बेटे ने कहा-माँ यह नाना का भस्मासुर है। यह कचरे का पहाड़ है जो बढ़ता ही जा रहा है।मुझे फिर पापा याद आ गये ।माँ के किचन-गार्डन में दो गड्ढे होते थे एक में किचन का कचरा जिसकी खाद तैयार होती थी और दूसरे में घर का फालतू कचरा जिसे माँ गहे-बगाहे आग के हवाले कर देती जिस पर पापा कहते देखा-तुम्हारी माँ घर-भर की बुराई होली के हवाले कर देती है ।हमारे घर का कचरा बाहर जाता ही नहीं था ,अगर ऐसा हर घर से होता तो शायद गाँधी का स्वच्छ भारत का सपना मोदी को पूरा करने की जरुरत नही पड़ती ।
पापा भारत को हमेशा तुलसी आँगन वाला घर कहते थे ,वे अक्सर बातों में अपने लेखों में कहते भी -दुनिया के विकसित कहे जाने वाले देश अपने खतरनाक औधोगिक कचरे को ठिकाने लगाने के लिए अन्य विकासशील देशों के साथ ही भारत को भी कूड़ादान बना देने पर तुले हुए हैं और हम बेखबर हैं। हम स्वच्छ भारत की बात कर रहे हैं करोड़ों रुपयों को विज्ञापनों में और सफाई में बड़ी ही सफाई से खर्च कर रहे हैं पर विदेशों से आने वाले प्लास्टिक, धातु, लेड और भांति-भांति के गंभीर बिमारियों को न्योता देने वाले कचरों को नजरन्दाज किए जा रहे है ।पर्यावरण जैसे अहम मसले पर देश की सरकारे आँखें बंद करे हुये हैं ,सच पापा की दूरदृष्टि गजब की थी,देश और समाज की चिन्ता उन्हें हर तरह से थी,तभी उनकी कलम हर मुद्दों पर तीखा प्रहार करती थी ।
भोपाल गैस त्रासदी को झेलने वाले हम सबकी ओर से उनकी लिखी लम्बी कविता के कुछ अंश मुझे याद आ रहे हैं ---
चिकित्सा संबंधी शोधों के नाम पर वे हमसे बंदर और चूहे मंगवाते थे
हम खुशी-खुशी भेजते थे,मुनाफा कमाते थे।
आज वे कीटनाशक के नाम पर
आदमखोर गैस बना रहे है और
हम इससे भी मुनाफा कमा रहे हैं।
हाय री,हत्यारी मुनाफे की हवस
काले पैसे का कफस
जहर के सौदागर और आठ लाख आबादी का
हतभागा एक शहर
मैं मगर कुछ और सोच रहा हूं
और सोच कर कांप जाता हूं
जंगखोर लोगों के इरादे भांप जाता हूं
जो सामान के नहीं,जान के दुश्मन हैं
यही गैस उनके लिए युध्द का साधन है।
हिरोशिमा और नागासाकी के बाद
एटम की शक्ति का प्रदर्शन बेमानी था
प्रयोग भर होते रहे,
विध्वंसक क्षमता को अधिकतम दिखाने के
मौके नहीं मिल पाये लेकिन दरिन्दों को
बड़े पैमाने पर गैस आजमाने के
कहीं यह आजमाइश तो नहीं थी इस जहर के लिए!
कि कितनी गैस काफी होती है,एक शहर के लिए।
उनकी चिन्ता भारत के लिये एक बागवान की सी थी जो अपने बाग के फल-फूलों से वृक्षों से झरनों -फिज़ाओं से प्यार करता है उनकी फिक्र करता है ,उसे उनकी सेहत की चिन्ता रहती है,दुःख सुख पर भी नजर रखता है। वह अपने तुलसी वाले आँगन को दुनिया का कूड़ादान बनने से रोकना चाहता है। वे कहते थे हमारे--- द्वारे नीम हवाऐं गायें आँगन तुलसी ज्योत जलाये।
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