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असुरक्षित मन सदैव हिंसक होता है,भयग्रस्त भी

वीथिका            Sep 08, 2022


श्रीकांत सक्सेना।

जीवन की व्याख्या या तो वैज्ञानिक ढंग से या फिर रहस्यवादी दृष्टि से करने की परंपरा रही है।
अब जब बहुत सी सूचनाएं और तथ्य सामने आ चुके हैं तो उसके आधार पर यह सोचना समीचीन होगा कि जीवन को समेकित दृष्टि से भी देखा जाना चाहिए।

मसलन पृथ्वी को सचेतन मान लेना क्या अवैज्ञानिक होगा?

मान लेते हैं कि यह सम्पूर्ण अस्तित्व सचेतन है और कोई प्रयोज्य उपक्रम की ओर अग्रसर भी है।आज का विश्व पिछले पच्चीस- तीस वर्ष पूर्व के विश्व से अनेक अर्थों में पूर्णत: भिन्न है।

भीतर ही भीतर विश्व इतना बदल चुका है कि बड़े-बड़े विद्वानों और दृष्टाओं ने भी कभी ऐसी कल्पना तक नहीं की होगी।

मसलन अब राजनैतिक भूगोल का पहले जैसा अर्थ नहीं बचा।

अनेक देश अनेक देशों में विभक्त हो गए।

एक राष्ट्र मानी जाने वाली इकाई एक से ज़्यादा राष्ट्रों में बंट गई और ये नई 'राष्ट्रीयताएं' एक दूसरे की शत्रु भी बन गईं।मसलन लाहौर की सड़कें और गलियां जहां कभी भारत माता की जय और जय हिंद के नारे गूंजते थे,अब वहां हिंदुस्तान मुर्दाबाद के नारे लगाना आम बात है।

ऐसा ही दुनिया के बहुत से 'राष्ट्रों' में हुआ या फिर हो रहा है।

अफगानिस्तान में हजारा,ताजिक और उज़्बेक पख़्तूनों के पूरी तरह एक-दूसरे से मुखालिफ ज़ेहनियत रखते हैं।

ये टकराव कभी ख़त्म होंगे ऐसी कोई संभावना आज भी नज़र नहीं आती।

इस ग्रह के अधिकांश संसाधनों पर क़ब्ज़ा जमाए बैठे थोड़े से लोग जो इस ग्रह के प्राइम मूवर्स बन चुके हैं,नये-नये बाजारों की तलाश में कहीं न कहीं अनावश्यक टकरावों को जिन्दा रखे हुए हैं या कभी-कभी हथियारों का भय दिखाकर लोगों के ह्रदयों में असुरक्षा को बढ़ाने की कोशिश में लगे हुए हैं।

असुरक्षित मन सदैव हिंसक होता है,भयग्रस्त भी। अक्सर कायर और भयभीत लोग ही बड़े-बड़े विध्वंस और यहां तक कि सामूहिक विध्वंस का कारण होते हैं।

आश्चर्य यह है कि वे बार बार अपने भय और असुरक्षा को वीरता,साहस या पराक्रम आदि शब्दों से ढकते हुए दिखाई देते हैं।
संसाधनों पर क़ब्ज़े की दौड़,भले ही आईएस या तालिबान या जैश जैसी विकृतियाँ भले ही पैदा कर दे,या सम्पूर्ण पर्यावरण का संतुलन बिगाड़कर ,महाविनाश के ख़तरे पैदा कर ले या न्यूक्लिअर युद्ध का ख़तरा खड़ा कर दे।

इसके बावजूद अच्छी बात ये है कि दुनियाभर में,इस ग्रह के हर कोने में युद्ध और विनाश की निरर्थकता को पहचानने वाले लोग इतने ज़्यादा हैं कि सरकारें मनमाने ढंग से युद्ध थोपने या आत्मघाती महाविनाश का दु:साहस नहीं कर पा रहीं हैं।

ऐसे लोगों की संख्या निरंतर बढ़ भी रही है।ये खींचतान अभी जारी है पर यह भी प्राय: निश्चित है कि मनुष्य की सामूहिक चेतना इतनी विकसित हो चुकी है कि वह युद्ध या पर्यावरण से खिलवाड़ करने को कभी अब अपनी सहमति नहीं देगी।

 युद्ध और उपलब्ध संसाधनों के अविवेकपूर्ण दोहन के विरुद्ध यह सामूहिक चेतना ही शायद महाविनाश को रोकने का प्रभावी कारण बन सके।

जितनी तेज़ी के साथ यह विचार विश्व भर में फैल रहा है और नई चेतना का विकास हो रहा है उतना ही अधिक असुरक्षा का भाव क़ब्ज़ाधारकों में पैठ रहा है और वे विनाश के भयंकर से भयंकर चित्र खींचने से बाज़ नहीं आ रहे।

आईएस ने इतने बेगुनाह लोगों को एक-एक कर बेहद‌ क्रूर तरीक़ों को क़त्ल किया,फिर भी विश्व में वे अपना आतंक स्थापित करने में असफल रहे।

यद्यपि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि तथाकथित कल्याणकारी राज्य भी इस बहाने असुरक्षा के भाव को और सघन करके अपना वर्चस्व बनाए रखने की कुचेष्टा कर रहे हैं।

इस सबके बावजूद सकार भाव पहले से कहीं अधिक पुष्ट,निर्द्वंद और सक्रिय हुआ है।

यह किसी अपरिवर्तनीय और बडे बदलाव का संकेत हो सकता है।

इस नई सामूहिक चेतना को इस ग्रह की चेतना या सम्पूर्ण अस्तित्व की चेतना से जोड़कर देखा जा सकता है।

अतीत में ऐसा हुआ भी है, अनेक बार इस ग्रह पर एक साथ कुछ ऐसे कारक काम करते रहे हैं कि मानव इतिहास को उस विशेष कालखंड के इस पार या उस पार की दृष्टि से देखना पडा।

 उदाहरण के लिए ईसा से छठी सातवीं सदी पहले का विश्व देखिए जब भारत में बुद्ध और महावीर होते हैं तभी ईरान में जरथुस्त्रु चीन में लाओत्से और कन्फ़्यूशियस होते हैं।

पश्चिम में थेल्स ने घोषणा कर देता है कि सूर्य को ग्रहण लगता है और चुम्बक लोहे को खींचती है।

आज मानव की युगयात्रा को दो हिस्सों में बांटकर इस मील के पत्थर के इस या उस पार की दृष्टि से समझा जाता है।

बुद्ध से पहले की दुनिया और बुद्ध के बाद की दुनिया।

यूँ तो अस्तित्व प्रतिपल बदलता है पर कभी कभी ये बदलाव मेंढक की छलाँग की तरह उछाल भी भरता है।कभी सर्पिल गति से धीरे-धीरे बदलाव होता है लेकिन स्थायी रूप से कुछ न कुछ घटता और बदलता ही रहता है।

दुनिया के अनेक हिस्सों में लगभग एक साथ कुछ ऐसी घटनाएं हुईं या फिर कुछ ऐसे लोग इन परिवर्तनों के कारण बने कि आज हम मानव की युगयात्रा को उससे पूर्व और उसके बाद के रूप में देखते हैं।

धरती क्या फिर से किसी ऐसे ही बड़े बदलाव के लिए खुद को तैयार कर रही है ?

क्या मनुष्यों की चेतना में फिर से कोई आमूलचूल परिवर्तन आने वाला है ?

क्या मनुष्य की चेतना सम्पूर्ण अस्तित्व की समग्र चेतना का ही कोई उपक्रम है ?

क्या इस समग्र चेतना का ध्यातव्य हम समझ पाएँगे ?

क्या ईसा से सात शताब्दी पूर्व के दृष्टा अपने समय में हो रही महाक्रांति को समझ पाए थे ?कल्याणमस्तु ।

 

 



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