श्रीकांत सक्सेना।
झीनी-झीनी बिनी चदरिया...कबीर की इन पंक्तियों में कुमार गंधर्व ने अपने कंठ से प्राण भर दिए हैं।
कुमार गंधर्व को गए एक अरसा बीत गया,उनके रहते भी यह गायन अत्यंत लोकप्रिय था।
काहे का ताना काहे के भरनी,कौन तार से बिन चदरिया
इंगला पिंगला ताना भरनी,सुषमा तार से बिनी चदरिया
आठ कँवल स चरख़ा डोले,पाँच तत्तगुन तिनी चदरिया
दास कबीर जतन से ओढ़ी ज्यों की त्यौं धरि दीनी चदरिया
कबीर जुलाहे हैं, वे बेहतरीन बुनावट की कला को जानते हैं, वे कभी मनुष्य शरीर में फैले असंख्य स्नायुओं में धागा को ढूँढ लेते हैं और जतनपूर्वक बुने गए इस अस्तित्व की सहज व्याख्या कर डालते हैं।
सिर्फ़ मानव मस्तिष्क में ही सात करोड़ से अधिक स्नायु हैं, वैदिक मान्यता भी जगत को स्नायुवत् अनंत तंतुओं से निर्मित मान रही है।
विज्ञान बहुत पहले ही अस्तित्व को आवेश या विद्युत तरंगों से अधिक कुछ नहीं का निष्कर्ष दे चुका है।
मानवीय संबंधों की बुनावट को एक जुलाहे से बेहतर कौन जानेगा।
उसके करघे का कमाल कि ब्राह्मण हो या शूद्र सबकी नग्नता उसी के हाथों आवृत होती है।
जुलाहे की जात पर बहस किए बिना वस्त्र ब्राह्मण या शूद्र,मुस्लिम या ईसाई कुछ भी होकर उनसे अभिन्न हो जाता है।
एक ही करघे से निकला वस्त्र इतनी सघन पहचान ओढ़ लेता है कि अब उसके स्पर्शमात्र से धर्म की चूलें हिलने लगती हैं।
साधक ,योगी तांत्रिक इसी धागे के सिरे की तलाश में उम्र गुज़ार देते हैं, कबीर को वह सहज उपलब्ध है।
अतीत में भारत विश्व को जिन वस्तुओं का निर्यात करता रहा है उसमें यहाँ के जुलाहों के कौशल्य को समेटे मसलिन,सिल्क आदि के वस्त्र प्रमुख हैं।
पन्द्रहवीं शताब्दि के इस संत को तत्कालीन सामंती समय में कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ा होगा इसका अनुमान लगाना कठिन नहीं।
ब्राह्मण व्यवस्था में एक मुस्लिम जुलाहे द्वारा उनके व्यूह को भेदे जाने पर कितना रोष और पीड़ा हुई होगी। कबीर ने जतनपूर्वक साधना की और अपने समय की विसंगतियों को बेलौस जन-जन तक पहुँचा दिया।
मुल्ला और बामन उनका कुछ न बिगाड़ सके।यह सब उन्होंने अफ़ग़ानी मुसलमानों , लोधियों के काल में पंडितों की ह्रदयनगरी काशी में रहकर किया, उनकी शब्दावली में आज भी लिखना जोखिम का काम है।
सैकड़ों वर्ष पूर्व पन्द्रहवीं शताब्दी में एक व्यक्ति ने किस प्रकार एक छल को पराजित किया होगा।
इतना कि ब्राह्मण व्यवस्था को अंतत: उसे स्वीकार ही करना पड़ा।
यही उनके पास अंतिम शस्त्र था-ब्रहमास्त्र। समाज के निचले संस्तरों से आया कोई व्यक्ति जब उनके ढकोसलों को ढहाने पर तुला हो और जिसको पराजित करना भी असंभव हो तो उस पर दिव्यता आरोपित करके उसकी गणना अपने देवों में करने लगो।
नेपाल की तराई के एक युवा थारू ने उनके गढ़ में जाकर उनकी तथाकथित श्रेष्ठता की धज्जियाँ उड़ा दीं तो उस थारू युवा को शाक्यवंशी क्षत्रियकुमार, विष्णु का अवतार घोषित करते हुए,उस पर अनंत दिव्यताएं आरोपित करके किसी प्रकार उससे अपना पिंड छुड़ाया।
कबीर मुसलमान परिवार से आए थे तो उनके जन्म,गुरु आदि को स्वीकार करना और भी बड़ी चुनौती थी।
किसी प्रकार उनके जन्म और साधना पर ब्राह्मणत्व आरोपित करके उन्हें संत परंपरा में फ़िट किया गया।
भारत भूमि से उपजी चंद विलक्षण प्रतिभाओं और सिद्धात्माओं में कबीर अपना स्थान बनाने में तो सफल हो गए किंतु उनकी देशना का विद्रोही स्वर सदैव के लिए शांत हो गया।
कबीर के जीवन और देशना के वाहक आज कबीर पर तरह तरह की दिव्यताएं आरोपित करके अपना पेट पाल रहे हैं।
कुछ-कुछ काशी के पंडों की ही तरह बुद्ध के साथ भी यही हुआ।
ईश्वर,ग्रंथादि सभी को नकारने वाली बुद्धवाणी कालांतर में अपना सम्पूर्ण तेज़ और धार खोकर एक और पौराणिक परंपरा से अधिक कुछ न बची।
सिख परंपरा ने गुरुग्रंथ साहिब में कबीर को सबसे अधिक स्थान देकर उनके प्रति अपना आदर दर्शाया है और एक सीमा तक उनके विचार को आचरण में भी जिया है।
कबीर पर हक़ जताने वाले तो कबीर के लिए इतना भी न कर सके।
बुद्ध भौगोलिक सीमाओं की दृष्टि से अनेक देशों की सीमाएँ लाँघते हुए समादृत हुए।कबीर अपनी उलटबांसियों के ज़रिए आज भी सम्पूर्ण उपमहाद्वीप में मौजूद हैं।
गाहे-बगाहे उनके दोहे,साखियाँ मिसालों या कहावतों के रूप में लोगों की ज़ुबान पर आ ही जाती हैं।
सामाजिक ताने-बाने को अपने करघे पर बैठे बैठे,अपने घर-परिवार में रहते हुए ,संसार का त्यागकर संन्यास ग्रहण किए बग़ैर संन्यस्त हो चुके कबीर सैकड़ों साल बाद भी अपनी प्रासंगिकता बनाए हुए हैं।
काशी का यह जुलाहा भारतीय उपमहाद्वीप में कहीं न कहीं किसी न किसी रूप में उपस्थित है।
कबीर के ही समान या कहें कबीर से भी कहीं अधिक उपस्थिति दक्षिण के एक जुलाहे की है जिसकी देशना के प्रति विशेषकर सम्पूर्ण दक्षिण भारत अशेष श्रद्धा रखता है।
वल्लुवर नामक यह जुलाहा अपनी पुस्तक "कुरल" के रूप में अत्यंत समादृत है।
तमिल साहित्य में ही नहीं अपितु सम्पूर्ण दक्षिण में वल्लुवर थिरुवल्लुवर के रूप में आदरपूर्ण स्वीकृति बनाए हुए हैं।
कुरल को भी लोग सम्मान से थिरुक्कुरल कहते हैं,थिरु माने श्री।
लगभग दो हज़ार पूर्व वल्लुवर की प्रखर मेधा ने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र को स्पर्श किया है। कुरल का अनुवाद विश्व की अनेक भाषाँ में हो चुका है।
पश्चिम के विद्वानों ने भी मुक्तकंठ से वल्लुवर की प्रखर मेधा को सराहा है।
कबीर और वल्लुवर के बीच कई शताब्दियाँ हैं।
काशी और मयिलापुरम् के बीच हज़ारों किलोमीटर की दूरी है, वल्लुवर के जन्म पर भी कबीर ही के समान दिव्यताएं आरोपित की गई हैं।
बहुत से मिथक गढ़े गए हैं।कबीर की ब्राह्मणी माँ कबीर को तालाब के किनारे रख गई,वल्लुवर की मां शिवमंदिर ने उन्हें के पास छोड़ दिया था।
तमाम मिथकों के बावजूद कबीर और थिरुवल्लुवर दोनों ही सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप के उन जाज्वल्यमान नक्षत्रों में गिने जाते हैं जिनका प्रकाश तमाम प्रयासों के बाद भी कभी मद्धम नहीं पड़ा, कबीर और वल्लुवर की प्रासंगिकता आज भी बरक़रार है। शुभमस्तु।
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