पवन विजय।
होली आई रे कन्हाई रंग बरसे सुना दे जरा बांसुरी, इस गीत में शमशाद बेगम ने जो माधुर्य घोला है उसका कोई सानी नहीं। यह गीत हिंदी फिल्म संगीत का नायाब गीत है जिसमें एक साथ विरह, संजोग, हास्य, क्रोध, पीड़ा और सुख जैसे भावों को फूलों के जैसे कोमलता से पिरोया गया है।
एक अंतरा है, तोरे कारन घर से आई हूँ निकल के सुना दे जरा बाँसुरी, अपने प्रिय के लिए आते हुए स्त्री लाज को घर छोड़ कर आती है, उसे अपने प्रिय का साथ उसके मान से ज्यादा मूल्यवान लगता है। एक स्त्री का स्नेह किसी भी व्यक्ति को अमूल्य बना देता है। स्त्री जब किसी से प्रेम करती है तो उस व्यक्ति से ज्यादा भागमाना कोई और हो ही नही सकता।
जलन में मुक्ति है, दाह इसलिए किया जाता है कि शरीर के सारे तत्व अपने अपने अपने धाम चले जाएं पर नायिका अपने को ऐसी पापिन समझती है जिसे अग्नि भी छूते हुए सकुचाती है, वह न कोयला हो पाती है और न राख। विकट पीड़ा का इससे अधिक बोध और क्या हो सकता।
कृष्ण इस देश के रस हैं, होली घर आई तू भी आजा मुरारी, हर उत्सव के उल्लास बिंदु पर कन्हैया बंशी बजाते दिखते हैं। बिना उनके हर सुख अधूरा है। हर प्रेमिका अपने प्रेमी में कृष्ण को देखना चाहती है, पर कृष्ण तो वृंदावन छोड़कर जा चुके हैं लेकिन प्रेमिका उन्हे पुकारना नही छोड़ती।
जब वसंत आता है, फागुन आता है, सावन आता है कृष्ण की पुकार चारों तरफ गूंजने लगती है, अपने ही रंग में मोहे रंग ले संवारिया धोबनिया धोवे चाहे सारी उमरिया।
सावन से याद आया कि इस गीत की धुन का आधार सावन में गायी जाने वाली कजरी है, कैसे खेलन जैबू सावन में कजरिया बदरिया घिर आई ननदी, अब गाइए होली आई रे कन्हाई रंग बरसे सुना दे जरा बांसुरी। दोनो की धुन एक जैसे है।
दरअसल लोक में मान्यता है कि फागुन में कजरी गाने से लाठियां चल जाती हैं। फिल्मकार ने इस भाव को बखूबी पकड़ा और गीत के अंत में लाठियां चलने लगती हैं।
इतना महीन ऑब्जरवेशन, मधुर स्वर, भाव और लोक संगीत को समेटे यह गीत भारतीय संस्कृति का वह आइकॉनिक गीत है कि इसे जहां स्पर्श करो तरल लगेगा, जहां से देखो स्नेहिल दिखेगा, जहां से सुनो मिसरी लगेगा और जहां से भी समझो प्रेम मिलेगा।
होली प्रेम है
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