शिव किसी निर्मित प्यार में यकीन नहीं रखते थे-12

वीथिका            Feb 18, 2023


मनोज श्रीवास्तव।

शिवपुराण पार्वती जी की तपस्या के बारे में बताता है : “उनके ऊपर वहाँ नाना प्रकार के दु:ख आये, परंतु उन्होंने उन सबको कुछ नहीं गिना।" दुख ने उनके भीतर एक सहनशक्ति विकसित की। दुख ने उन्हें शिव के लिए तैयार किया। वे उन्हें विलासिता में नहीं मिल सकते थे।

सो पार्वती ने अपने हृदय को दुःखों से ही इतना मांजा कि उनकी आभा का वृत्त एक अलग ही सक्षमता से ओत प्रोत हो गया। शिवपुराण उसे यों बताता है : “जो स्वभावतः एक दूसरे के विरोधी थे, ऐसे प्राणी भी उस आश्रम के पास जाकर उनकी तपस्या के प्रभाव से विरोध रहित हो जाते थे। सिंह और गौ आदि सदा रागादि दोषों से संयुक्त रहने वाले पशु भी पार्वती के तप की महिमा से वहाँ परस्पर बाधा नहीं पहुंचाते थे। मुनिश्रेष्ठ ! इनके अतिरिक्त जो स्वभावतः एक दूसरे के वैरी हैं, वे चूहे-बिल्ली आदि दूसरे- दूसरे जीव भी उस आश्रम पर कभी रोष आदि विकारों से युक्त नहीं होते थे।"

यह एक ऐसी विशेषता है, जो शक्ति के, दुर्गा के ही एक पुजारी मेधामुनि के आश्रम में, मार्कण्डेय पुराण में राजा सुरथ को देखने मिली थी।प्रशान्तश्वापदाकीर्ण। कितने ही हिंसक जीव परमशान्त भाव से वहां रहते थे।

जीवो जीवस्य भोजनम् वाली दुनिया में यह विपर्यय पार्वती अपने तप से अपने आश्रम में पैदा करती हैं।

यह वर्णन बताता है कि पार्वती एक पैसिफिक सोसाइटी, एक प्रशांत समाज बनाने में समर्थ हो गयी हैं। यदि 'जीवो जीवस्य भोजनम्' प्रकृति है तो यह द्वन्द्वरहितता संस्कृति है। सो यह तपस्या पार्वती का भी ईवोल्यूशन है। जो पार्वती शिव से पहले पहल मिली थीं वे 'प्रकृति' के पक्ष में बहुत तर्क कर रही थीं। अब वे ही पार्वती प्रकृति के भी पार हो गयी हैं।

शिव चिंतन का परिणाम है यह । भय, अविश्वास, अज्ञान को जीतते हुए उन्होंने ऐसा enabling environment तैयार किया जहां निर्द्वन्द्व जिया जा सके। लोग इसे एक यूटोपियन आदर्श मानते थे, पर उसे सबसे पहले शिवा ने साबित और व्यवहृत करके दिखाया। यह सच्ची समावेशिता थी।

यहां सिर्फ अहिंसा की बात नहीं है। वह तो बहुत बाहरी और सतही चीज है। यह बात है वैधर्म्यों, वैभिन्यों, वैलक्षण्यों के समाहार की। यह शिव ही हैं जहां विषधर और सुधाधर दोनों का साथ होता है। पार्वती ने उसी भाव को अपनाया है।

शिव के रस में रच गई हैं वे ।

शिव पुराण इस तपस्या का परिणाम बताते हुए आगे यह भी कहता है : "वहाँ का सारा वन प्रांत कैलास के समान हो गया। वहाँ के सभी वृक्षों में सदा फल लगे रहते थे।

भांति-भांति के तृण और विचित्र पुष्प उस वन की शोभा बढ़ाते थे। वह प्रांतर पार्वती के तप की सिद्धि का साकार रूप बन गया।”

यानी जो पार्वती सभी मौसमों की निर्दयताओं को साहस के साथ सहन करती रही, वही एक ऐसा क्षेत्र रचने में सफल हुईं जहां मौसमी फल नहीं हैं, बल्कि वे अब सदाबहार हैं। जिन मौसम को तन पर झेला, उन्हें वन को दुष्प्रभावित नहीं करने दिया। तन ने झेला, मन को मुरझाने नहीं दिया। सो वन खिलना ही था और हमेशा को। कैलाश जाने की इच्छा संजोए काली ने इतनी अर्हता अर्जित कर ली कि वे जहां थीं, वहीं कैलाश हो गया। अपने मन में कैलाश पर शिव के संग बिहार करने की जितनी उत्कट इच्छा थी, उतना कठोर तप कर काली ने स्वयं अपने आसपास को कैलाश-सा कर लिया।

जहां तृण और फूलों की इतनी डाइवर्सिटी थी, जहां इतना पुष्पागम था, वहां फलागम होना ही होना था।

इस पर्यावरण की रचना को पार्वती के तप की सिद्धि का साकार रूप कहा गया है। अब पार्वती को कामदेव की कृपा नहीं चाहिए कि किसी इन्द्रजाल की तरह मनोरम वातावरण हो जाए। किसी जादू के जोर से, किसी शार्टकट से किसी 'स्पैल' से।

यह अब जो हुआ है, वह पार्वती के परिश्रम की सफलता है। इसे पौराणिक भाषा में तप की सिद्धि कहते हैं।

यह कोई एक निमेषण में, पलक के झपकने में हो गयी कारामात नहीं है। इसमें बहुत समय लगा है। उस दिव्य दुनिया में समय के आयाम दूसरे हैं। शिवपुराण पार्वती की तपस्यावधि 3000 वर्ष बताता है। वह सिर्फ यह जताने के लिए कि यह कोई कामगति नहीं है, यह काम्येष्टि यज्ञ भी नहीं है - यह मेहनत है, मशक्कत है।

पार्वती के अध्यवसाय का फलोदय है।

ये महाकाल के आयाम हैं। कुछ कुछ ल्यूइस केरौल के वंडरलैंड की तरह : The hurrier I go the behinder I get. सो पार्वती ने पूरे निरालस्य, पूरे धैर्य और पूरे समर्पण के साथ बिना किसी हड़बड़ी और जल्दबाजी से यह कर दिखाया है। कौतुक न होकर कामावशायिता है। सत्यनिष्ठा । प्रेम-सम्बन्ध का क्विकफिक्स समाधान पाने की जगह काली ने कालातिक्रांत जीवन साहचर्य मांगा है महाकाल का। अत: उनकी तपस्या ने भी लंबा समय लिया है। बीच में उनके माता पिता आये हैं; मेरु मंदराचल आये हैं।

उन्हें समझाने कि तपस्या छोड़ घर चलो। लेकिन नेह के इन कच्चे धागों से भी वे पार्वती नहीं डिगीं जो विपरीत मौसमों और निराहार को भी झेल गयी हैं।

जब उन्होंने अपने प्रांतर को ही कैलाश बना लिया है तो उनके भीतर यह आत्मविश्वास भी है कि "भगवान शंकर को मैं केवल तपस्या से यहीं बुलाऊंगी।

न दैन्यं न पलायनं के साथ-साथ ‘न साहाय्यम् ।’ किसी की सहायता भी नहीं चाहिए और किसी की सलाह भी नहीं। उधर शिव ने मन में सोच रखा था कि जब वे तपश्चर्या करेंगी तभी मैं इनका पाणिग्रहण करूंगा, उधर पार्वती ने मन में ठान लिया है कि उन्हें केवल तपस्या से यहीं बुलाऊंगी। तपस्या को लेकर दोनों के मन में समान भाव हैं। मन से मन इस बिंदु पर मिल ही गया।

पार्वती की तपस्या का मतलब यह भी है कि वे अपने प्यार के पीछे भागेंगी नहीं। उसे 'चेज़' नहीं करेंगी। वे उम्मीद करेंगी कि उनके प्यार को पहचान लिया जाये। अब उनकी मूर्ति वहीं प्रतिष्ठित हो गई है। और पार्वती की प्रतिष्ठा भी इसी में है।

काम में डिग्निटी नहीं है, प्रेम में है। नारद ने पार्वती को हठपूर्वक शिव को अपनाने की बात कही ही थी न। सो अब ये हठ भी सही। इसी हठ से पता चलेगा कि पार्वती किस मिट्टी की बनी हुई हैं। गये वो दिन जब पार्वती प्रतिदिन शिव की सेवा करने जाती थीं। हर दिन अगले दिन का उत्सुकतापूर्वक इंतजार रहता था जब। कितनी उत्तेजना, कितना थ्रिल रहता था उन दिनों। भावनाओं का ज्वार-सा उमड़ा रहता। कभी हर्ष था, कभी अवसाद। भूली-सी रहती थीं उन्हीं में खुद को पार्वती।

अब उन्हें अपने प्रेम को आत्म-विस्मरण की तरह नहीं, आत्म- जागरण की तरह लेना है। पहले वे शिव की सेवा करती थीं। अब उन्हें आत्म-प्रबंधन करना है।

पहले वे शिव की सुविधा का ध्यान रखना ही सीखती थीं। अब वे अपनी असुविधाओं में सीखेंगी।

तपस्या यानी अपनी 'वैल्यूज' को 'विजिट' करना। और इस विजिट के लिये उन्हें कहीं जाना नहीं है, ठहरना है। पहले कैसे शिव को देखकर कभी उनकी सांस रुक जाती थी, कभी तेज-तेज चलने लगती थी, पर अब उन्हें अपने श्वांस प्रश्वास का आना-जाना भी एक दृष्टा की तरह, एक साक्षी की तरह देखना है।

अब तो ट्रेडमिल पर भी दौड़ नहीं लगानी है। अब वे कहीं नहीं जायेंगी। शिव को आना है तो उनके द्वारे खुद आयेगे। जब वे उन्हें ढूंढेगी नहीं, तब वे उन्हें पा लेंगी।

यह तपस्या उन्हे शुद्धतः भारतीय भी बनाती है। तपस्या का कोई समानार्थी अन्य परंपराओं में नहीं। Penance से उसका अनुवाद करना मूर्खतापूर्ण है। Penance तब के लिए है जब कोई अपने किसी अपराध के लिए पश्चाताप स्वरूप स्वयं पर दंड आरोपित करे या जब चर्च का कोई सदस्य किसी प्रीस्ट के सामने पाप-स्वीकार करे और उसे मुक्ति दी जाए। Penance शब्द में एक तरह की ग्लानि (repentance) का भाव है।

लैटिन paenitentia से बना है यह शब्द । क्रिया paenitere का अर्थ होता है : be sorry. तपस्या भारत में ग्लानि से नहीं, परिश्रम से ज्यादा जुड़ी है, बहुत ही गहरे एकाग्रण से। Penance के लिए पापी होना जरूरी है, लेकिन तपस्या के लिए नहीं ।

बुद्ध और महावीर भी तपस्या करते हैं, शंकर और सती भी। तप का अर्थ है प्रकाश या प्रज्ज्वलन या उष्णता या गति या क्रियाशीलता या संघर्ष या तितिक्षा या कष्ट सहना।

भगीरथ का तप जब पश्चिमी बुद्धिमानों द्वारा penance कहा जाता है तो हम भारतीय इधर-उधर देखते हैं।

वह पापी होने की ग्लानि से किया गया तप कभी न था। ध्रुव ने तप किया तो कौन सा पाप करके किया था? बल्कि कुछ लोग तप करके वर पाकर पाप करने के लिए स्वतंत्र हो जाते हैं। रावण, कुंभकरण, मेघनाद, हिरण्यकश्यप, भस्मासुर जैसे बहुत उदाहरण हैं।

तपस्या का सम्बन्ध जितना परिश्रम से दिखता है, उतना प्रायश्चित या पश्चाताप से नहीं। पार्वती यही परिश्रम करती हैं और जब उनके तप की सिद्धि अपने आसपास एक कैलाश सिरजने में हुई है तो उन्हें।

भरोसा है कि शिव उनमें आएंगे ही, ठीक वैसे ही जैसे घोंसला बना के लटका देने पर देर सबेर उसमें चिड़िया घर कर ही लेती है। कैलाश शिवजी का नीड़ है।

पार्वती ने इतने प्यार से बनाया है, यह नीड़ उनकी मनोहर कृतियों का। उन्होंने भी एक एक तिनका इकट्ठा किया है। अपने टूटे हुए मन की एक एक किरचें इकट्ठे की हैं। कब शिव इस कैलाश को आबाद करेंगे। श्मशानवासी को कैलाशवासी बनाना है तो अपने भीतर तप की वह शक्ति पैदा करनी होगी कि पार्वती का सानिध्य ही कैलाश लगे।

वे शिव जो ऐसे तो आशुतोष का विरद रखते हैं, लेकिन कोई पार्वती से पूछे उनके बारे में। पहले सेवा करने में मना किया, फिर तपस्या कराई, फिर सप्तर्षियों से परीक्षा कराई, फिर स्वयं बूढ़े ब्राह्मण का रूप धरकर पहुंचे अपनी ही निंदा करने पार्वती के पास ।

कौन कहता है इन्हें अवढरदानी। बाकी सबके लिए होंगे लेकिन अपनी सनातन पत्नी के लिए इतनी देर ।

लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।

 



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