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शिव किसी निर्मित प्रेम में यकीन नहीं रखते थे-अंतिम

वीथिका            Feb 19, 2023


 

मनोज श्रीवास्तव।

शिव पार्वती विवाह एक ट्रांसहिस्टोरिकल संघटना की तरह है क्योंकि सती पार्वती के रूप में जनम ले चुकी हैं, तो वे शिव को यह इतिहास भी बताती हैं।

यानी यहां एक गत्यात्मक अवधारणा की तरह विवाह को देखा जा रहा है,  जन्म जन्म के रिश्ते। मार्क्स और एंजेल्स की तरह परिवार को संपत्ति के प्रबंधन और अंतरण का बूर्ज्वा रूप भी ये दोनों नहीं मानते क्योंकि ये शिव तो ठनठन गोपाल हैं। और वे अपर्णा हैं।

सप्तर्षि पार्वती को समझा रहे हैं कि शिव का कहीं न घर है न द्वार है और पार्वती उन्हें कह रही हैं कि मायालिप्त जीवों को ही भूषण आदि की रुचि होती है।

शिव एक वृद्ध विप्र के रूप में जाकर पार्वती को बताते है कि वे (शिव) हाथ में भीख मांगने के लिए एक खोपड़ी लिये रहते हैं। तुम सोने की मुद्रा देकर बदले में उतना ही बड़ा कांच लेना चाहती हो?

रत्नों के उत्तम भंडार को त्यागकर लोहा पाने की इच्छा करती हो? कहां तुम्हारे अंगों में दिव्य आभूषण और कहां शंकर के सर्वांग में लिपटे हुए सर्प? धर पार्वती हैं जो लक्ष्मीसंपन्न विष्णु को भी नहीं चाहती, शिव को ही पति मानती हैं।

मार्क्स बूर्ज्वा परिवार को जो सम्पत्ति सम्बन्धों के आधार पर चलता है, को एक "पवित्र संस्था" मानने से इंकार कर देते हैं। वे कहते हैं The baurgeoisie as torn away from the family relationship its sentimental veil and has educed it to a mere money relationship. सो यह प्रसंग बताता है कि यह मनी रिलेशनशिप नहीं चाहिए, न शिव को न पार्वती को। मार्क्स का यह भी कहना था कि The bourgeois sees in his wife a mere instrument of production.शिव अपनी पत्नी को न तो उस बूर्ज्वा तरीके से देखते हैं और न उस मार्क्स के तरीके से जो hypocritically concealed prostitution की बात विवाह में देखते थे और legalised community of women खड़ी करना चाह रहे थे।

शिव तो स्वयं अपने भावी श्वसुर हिमराज को ऐसे ही ब्राह्मण वेश में यह कह आए थे कि तुम तो बड़े-बड़े रत्नों की खान हो, किन्तु उनके घर में भूँजी भाँग भी नहीं है - वे सर्वथा निर्धन हैं।

शिव अंततः पार्वती से इसलिए विवाह करते हैं, जैसा कि वे उनके सामने कहते भी हैं, कि 'तीनों लोकों में तुम्हारी जैसी अनुरागिणी मुझे दूसरी कोई दिखाई नहीं देती।'

वे उन्हें अपनी सनातन पत्नी कहते हैं। सो मनी - रिलेशनशिप व इन्स्ट्रमेंट ऑफ प्रोडक्शन आदि की जगह अनुराग को ही वे विवाह के निर्णय का अंतिम आधार मानते हैं।

प्रणय को परिणय में परिणत करना, यह उनकी दृष्टि है।

अब उन्हीं पार्वती, जो शिव के सगुण के ऊपर उनके निर्गुण की चर्चा उन्हें समझाने आए सभी बुद्धिमानों से कर रही थीं, के निर्गुण को शिव स्वीकारते हैं। वे कहते हैं: “तुम्हीं रजःसत्वतमोमयी (त्रिगुणात्मिका) सूक्ष्म प्रकृति हो, सदा व्यापार कुशल सगुणा और निर्गुणा भी हो।”

निर्गुण होना वैवाहिक प्रसंग में क्या है? आप छत्तीस गुण मिलाते हैं। गुण मुहूर्त शास्त्र में वर्ण के एक गुण, वश्य के दो गुण। तारा के 3 गुण, योनि के 4 गुण, राशी मैत्री के 5 गुण, गण के 6 गुण, भकुंट के 7 गुण और नाड़ी के 8 गुण बताये गये हैं।

उन्हें न बताकर ये निर्गुण निर्गुण का यह क्या चक्कर चलाया हुआ है? क्या इसी से इस कथा से दिये गये प्रगतिशील संकेत समझ नहीं आते ? कहां तो हम प्रभु से कहते रहते हैं प्रभु हमारे औगुन चित न धरो और कहां इधर स्वयं प्रभु अपने अवगुण गिना रहे हैं।

हम कहते हैं कि प्रभु मेरे औगुन न विचारो और वह प्रभु अपने अवगुणों के प्रचार को प्रायोजित करता है। कभी सप्तर्षियों को भेजकर, कभी स्वयं पहल कर। पार्वती का जवाब क्या है?

वे अवगुण की बहस को निर्गुण से समाप्त करती हैं। यह किसी के भीतर के ईश्वर का दर्शन करना ही नहीं है, नाम-रूप-उपाधि-धन- , जाति-गोत्र आदि को विवाह का निकष बनाने से इंकार करना भी है।

निर्गुण इन सब से मुक्त है। सो जो आज मनुष्य की अद्वैत अवस्थिति की उपेक्षा कर उसे किसी न किसी कोष्ठ में बंद करने के उपक्रम चल रहे हैं उनसे इस युगल की तीव्र असहमति है।

शक्ति भी उसी अद्वैतमनस्क को ही अपना जीवनसाथी चाहती हैं। जब शिव को वे निर्गुण के रूप में जानती हैं, तब वे उन्हें लीलाविहारी के रूप में भी जानती हैं और स्वयं शिव को अपनी लीला जारी बनाना रखने को कहती है।

हम सबके भीतर कहीं वह एक 'एसेंस' है जिसे वर्गों की आवश्यकता नहीं है, जिसे पैसों से नहीं तोला जा सकेगा। जिसका कोई वर्ण नहीं, देश नहीं, सम्प्रदाय नहीं।

वह 'निर्गुण' ही शिव-शिवा एक दूसरे के भीतर पहचानते हैं और विवाह का निश्चय करते हैं।

हमने वैवाहिक प्रक्रिया में सब कुछ जांचा जाते देखा है, पर इस आभ्यांतरिक 'निर्गुण' को नहीं देखा। सो हमारे यहां यह होता है कि हम देखते हैं कि लड़का IAS है, डॉक्टर, इंजीनियर है।

इससे पहले कि लड़के वाले पद-मद से ग्रस्त हों, लडकी वाले हो जाते हैं और सोचते हैं कि वैवाहिक सुख का रहस्य इसी में है।

फिर और विकृति बढ़ती है। लड़की वाले लड़के के भावी ऐश्वर्य को देखते हैं और लड़के वाले लड़की के पिता के वर्तमान ऐश्वर्य को ।

जबकि यहां शिव पार्वती से और लीला करने की अनुमति लेकर वृद्ध ब्राह्मण का रूप धार पार्वती के पिता हिमवान को भड़काने पहुंच जाते हैं। वे उसे कहते हैं कि एक आश्रयरहित, असंग, कुरूप और गुणहीन वर को अपनी लक्ष्मी सरीखी सुंदर रूप वाली दिव्य सुलक्षणा पुत्री क्यों दे रहे हो?

हिमालय उस बहकावे में आ भी जाते हैं और सप्तर्षियों को कहते भी हैं कि मैं शिव के पास कोई राजोचित सामग्री नहीं देखता हूँ।

उनका न कोई घर है न ऐश्वर्य है,  तब वशिष्ठ उन्हें शिव-शिवा सम्बन्धों की सनातनता के बारे में बताते हैं । सती-जन्म के बारे में भी ।

पैसा और पद देखना हमारे आधुनिक सामाजिक संव्यवहार में इतना चलन में आ गया है कि विवाह अब संविदा भी नहीं, सौदा हो गया है।

जबकि इस शिव-पार्वती प्रसंग में दोनों के संग का अध्यात्म सामने आता है। देवताओं द्वारा तारकासुर को मारने के लिए शिव-पार्वती के विवाह की बात मूलतः इस चीज की स्थापना के लिए थी कि विवाह एक सोशल गुड है।

कामदेव दहन प्रसंग की बात मूलतः इसके लिए थी कि विवाह एक सेक्सुअल रिलेशनशिप नहीं है।

विवाह इन दोनों से कहीं ज़्यादा बड़े प्रयोजन को सिद्ध करता है।

वह सामाजिकता और दैहिकता दोनों को अतिक्रांत करने वाली अंतरंगता है।

वह न उतना आण्विक (न्यूक्लीयर) है और न उतना सामूहिक। वह एक दूसरे के भीतर जागतिक (काज्मिक ) की पहचान है।

उसका आकाश उन क्षितिजों से वृहत्तर है जिन्हें हम विवाह के पारंपरिक अभिप्रायों की तरह जानते हैं। वह सात जन्मों का भी रिश्ता नहीं है।

वह जैसा कि शिव और शिवा पहचानते हैं, सनातन रिश्ता है। वह ऐसे रिश्ते की चिरंतनता के बावजूद ऊब का होना है, आनंद का होना है।

शिव-शिवा के इस सनातन सम्बन्ध में जो आराधन भाव है, उसे धार्मिक समझने की जरूरत नहीं है। वह तो उस कहावत का जवाब है कि familiarity breeds contempt परिचय की अधिकता से तिरस्कार बढ़ता है। वह उस स्थिति का होना है जब परिचय की इतनी घनिष्ठता आदर को ही बढ़ाये।

लोग-देवता लोग भी-विवाह से एक तरह सामाजिक व्यवस्था (सोशल आर्डरिंग) की उम्मीद करते हैं लेकिन यहां एक तरह की कॉज़्मिक आर्डरिंग शिव-शिवा से संभव होती बताई गई है।

दोनों के द्वारा एक दूसरे के भीतर के निर्गुण की पहचान उस सम्बन्ध की विशिष्टियों (specifities) से बाहर आना है। वह जातीयताओं से बाहर आना है।

यदि आप इस बात को दूर की कौड़ी समझ रहे हैं तो देखिए कि शिव पुराण में पार्वती उनकी परीक्षा लेने आए सप्तार्षियों को यह क्यों कह रही हैं कि “द्विजो ! शंभु किसी विशेष धर्म या जाति के कारण किसी पर अनुग्रह नहीं करते।”

वह 'तारक' (तारा या star) होना नहीं है, वह आकाश (स्पेस) होना है। वह उन monsters of shape आकार विशेष के दैत्यों का खत्म होना है। आकाश के तट नहीं होते।

तारे छोड़िए, बहुत से ब्रह्मांड उसमें डूबते-उतराते हैं। निर्गुण की पहचान परिधिमुक्त प्यार की पहचान है। शिव के तथाकथित अभाव उनकी नथिंगनेस नहीं है वे उनकी emptiness हैं। वह संभावनाओं से भरा हुआ अनंत हैं। यह विवाह एदनिक या मजहबी या राष्ट्रीय या ट्राइबल नहीं है।

उसमें एक ऐसा निर्गुण है जिसकी प्रोफाइलिंग नहीं हो सकती। टाइम और स्पेस की सरहदों के पार शिव-शिवा का यह सम्बन्ध है।

जो चाहा जा रहा है वह वैवाहिक स्थिरता ((marital stability) है। कई समाजशास्त्रीय अध्ययन यह बताते हैं।क्रिस्टोफर जी एलिसन एवं क्रिस्टीन एंडरसन ने 'जर्नल फॉर द साइंटिफिक स्टडी ऑफ रिलीजन' में 'रिलीजंस इन्वाल्वमेंट एंड डॉमेस्टिक • वायलेंस अमंग यू.एस. कपल्स' नामक अपने शोधपत्र में (40, No. 2 (June 2001) : 269-286 में इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि couples who acknowledged a divine purpose in their marriage were more likely to collaborate, to have greater marital adjustment and to perceive more benefits from marriage. यहाँ शिव-पार्वती जानते हैं अपने विवाह का दिव्य प्रयोजन।

ये रिश्ते की दिव्यता की पहचान होना ही संभवतः वह सांस्कृतिक कारण है जिनके चलते आज भी भारत में तलाक सं.रा. अमेरिका व यूरोपीय देशों के मुकाबले बहुत कम होते हैं।

यह शिव-काली विवाह शिव-सती विवाह से इस मायने में भी भिन्न है कि अब शिव कोई शर्त नहीं रखते हैं। शर्तों का रखा जाना विवाह को एक संविदा बनाता हैं। Dalton Trumbo ने कहा था कि A good businessman never makes a contract unless he's sure he can carry through yet every fool on earth is perfectly willing to sign a marriage contract without considering whether he can live upto it or not.

भारत में इस शिव-सती प्रसंग के बाद से विवाह को अनुबंध की तरह लेना बंद कर दिया गया। जब आराध्य के ये हाल हो गए तो आराधकों के क्या होते? न केवल शिव ने तौबा की, सनातनियों ने भी कर ली। यह जनम जनम का बंधन बना, यह एक अनुबंध न बना।

आज मनोवैज्ञानिक और मनोविश्लेषणवादी हमें काम की वैवाहिक रिश्तों में भूमिका के बारे में बताते हैं। उसे समझकर भी हमारा देश उससे आगे बढ़ चुका है। उसे इस देश ने भी उतना ही भस्म किया है जितना शिव ने। जैसे गीता में कहा गया कि ज्ञानाग्नि सभी कर्मों को भस्म कर देती है - ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरूते तथा (4/37) या यह कि ‘ययैधांसि समिद्धोऽग्निरभस्मसात्कुरूते...... वैसे ही शिव ने विवाह के उद्देश्य को 'काम' तक सीमित रखने वालों को यह ज्ञानाग्नि दी। उन्होंने 'काम' की नश्वरता की ओर संकेत किया।

न्याय निर्णय व्याख्या में शंकराचार्य जी ने 'ते हि देहमात्रात्मवादिनो भस्मीभावमेवात्मनो मन्यते’ की बात कही थी। यदि यह भस्मीभाव साथ रह जाए और हम वैवाहिक सम्बन्ध को 'काम' से आगे भी देख सकें, तब हम अपने विवाह को ज्यादा साधक बना पाएंगे।

सामाजिक प्रयोजन पुत्र-जन्म, पुत्र-पोषण से पूरा हो जाएगा। काम का प्रयोजन भी एक उम्र तक रहेगा लेकिन निष्ठा और अंतरंगता इन सबसे बहुत आगे तक ले चलती है। शिव ने काम का रूपांतरण भी किया है । उदात्तीकरण भी।

वह अवदमनीकरण (Suppression) ही नहीं था कि जहां काम अवचेतना में चला गया बल्कि उसकी अभौतिक प्रेरणाओं ने ही उदात्तीकृत होने के अलग-अलग सोपान रचे, उपलब्धियों में परिणत हुआ। वो ज़फ़र इक़बाल का एक शेर है : इसी की रौशनी है और इसी में भस्म होना है/ये शोला शाम का जो रातभर भड़काए रखते हैं।

शिवजी निर्गुण हैं। पर इस पूरी प्रक्रिया में काम को भी निर्गुण में बदलते हैं। वे उसे भी अनंग बनाते हैं, अमूर्त बनाते हैं। काम अब एक पुद्गल (matter) (जैन अर्थों में) से आत्म में बदलता है।

पुद्गल का अर्थ है। दूरयंति गलंति च - जो उत्पन्न होता है और गल जाता है।

भेद और संघात से जो पूरण और गलन को प्राप्त हो, वह पुद्गल अब एक 'स्पिरिट' है। अब उसकी सफलता तब ही है जब ये तीनों शिव, पार्वती और काम एक ही सम पर हों।

यानी जिस तरह से शिव और पार्वती ने एक दूसरे के भीतर का निर्गुण पहचाना है, उसी तरह से उन दोनों के बीच काम का 'निर्गुण' भी पहचाना गया है।

वह जो सनातन है वह इन तीनों के रिश्ते तय करता है। अब सनातन से संभव हुआ कुमारसंभव यों जन्म लेगा। सती को खो चुकने के बाद अब शिव-शिवा को कभी भी एक दूसरे से वियुक्त नहीं होना होगा।

अब कुमार संभव होंगे। उस विदेह से अब एक मूर्ति आकार लेगी।

 स्कन्द ही तारकासुर का वध करेंगे। स्वयं शिव भी नहीं करेंगे, स्वयं पार्वती भी नहीं करेंगी। एक appointed समय पर यह कार्य होगा।

शिव-पार्वती विवाह एकात्मता का अवसर है, पर शिव जी की बारात तो समावेशिता का महोत्सव है। वह प्रसंग फिर कभी।

लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।

 

 



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