तरूण व्यास।
हिमांशु बाजपई की दास्तानगोई की तारीफ़ें ही सुनी थी और थोड़ा बहुत यूट्यूब पर देखा था। शनिवार की शाम इंदौर के आनंद मोहन माथुर सभागृह में हिमांशु भाई की दास्तानगोई को लाइव सुनने का अवसर मिला।
दास्तानगोई को सुनने के बाद लगा ये चीज़ तारीफों से ऊपर का मामला है। प्रजातंत्र दैनिक द्वारा आयोजित इस दास्तानगोई कार्यक्रम में दास्तान थी तमन्ना ए सरफ़रोशी, गाथा- अशफ़ाक,बिस्मिल और काकोरी की।
क्रांतिकारियों की इस कहानी को हम सभी बचपन से ही पढ़ते सुनते आ रहे हैं। लेकिन आपने काकोरी की इस कहानी को हिमांशु बाजपई से नहीं सुना तो आप अभागे हैं।
जब हिमांशु काकोरी के एक एक सफ़े को पलटना शुरू करते हैं, तो सामने बैठे लोग सुनते और देखते नहीं हैं, हम उस समय में होते हैं जब अशफाक़, बिस्मिल और आज़ाद जैसे क्रांतिवीर हुआ करते थे। जो अब एक कहानी है।
काकोरी की दास्तान सिर्फ़ इतनी नहीं है कि क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों का खजाना लूटा और उसके बाद,अंग्रेजी हुक़ूमत ने कुछ क्रांतिकारियों को फांसी और कुछ को जेल की सज़ा सुना दी।
ये कहानी है एक आर्यसमाजी पंडित रामप्रसाद बिस्मिल और एक पठान अशफ़ाक़ुल्ला खां के गाढ़े हिंदू मुस्लिम प्रेम की। जिसे इस दौर में सुनने और जानने वालों की संख्या लगभग न के बराबर है।
लेकिन हमें उस भारत को जानना ज़रूरी है क्योंकि ये वो भारत नहीं जो मौजूदा वक्त में हमें सियासत दिखा रही है। ये अशफाक़ और बिस्मिल का वो भारत है जहां हिंदू मुसलमान की लड़ाई में एक पठान, पंडित की आस्था की चौखट से अपनी ही कौम के हुज़ूम को ललकारता है "इस मंदिर में घुसने से पहले तुम्हें मेरा सामना करना होगा"। वहीं एक पंडित तमाम दुनिया को पीछे छोड़ पठान को अपना दाहिना हाथ बनाता है।
हिमांशु ने काकोरी की इस दास्तान में बिस्मिल और अशफाक़ की यारी के बहुत ही दिलचस्प किस्से सुनाए, जिसे पहले कभी नहीं सुना। ये सुनने के बाद लगा कि अपने सपनों का भारत बनाते बनाते वो लोग हंसते हुए सूली पर लटक गए सिर्फ़ इसलिए कि हमारे बाद वतन की फ़िज़ाओं में आज़ादी का जुनून सांस लेता रहे। लेकिन नहीं, हम तब भी ग़ुलाम थे और अब भी हैं। बस फ़र्क है, हुक़ूमतों के मंसूबे का। वो सुबह कभी तो आएगी।
दास्तानगोई की तरह का कार्यक्रम पहले शायद ही कभी इंदौर में हुआ हो। मेरा तो पहला अनुभव रहा, वो भी लाजवाब। हिमांशु ने अपनी दास्तानगोई की गोंद से श्रोताओं को ऐसा चिपकाया कि जो जहां था वो ढाई घंटे के कार्यक्रम में वहीं बैठा रहा।
हिमांशु पूरी शिद्दत से डूबकर दास्तान सुना रहे थे और उतनी ही शिद्दत से मौजूदा वक्त के राजनीतिक और सामाजिक समस्याओं पर हमला कर रहे थे। ये गौर करने वाली बात है सत्ताधारी दल के सारे कद्दावर हॉल की पहली कतार में हिमांशु को सुन रहे थे।
हिमांशु अपनी दास्तानगोई से तालियां लूट रहे थे। वेदांत भारद्वाज अमेरिकन बेंजो के साथ अपनी आवाज़ से क्रांतिकारियों के प्रिय गीत "जे अइ हैं सुरजवा और मेरा रंग दे बसंती चोला" से समां बांधा रहे थे, वहीं शिवर्घ भट्टाचार्य तबले पर दादरे और कहरवे की ताल से कार्यक्रम को लय दे रहे थे। हॉल में इन गीतों पर श्रोताओं की ऐसी तालियां बजी मानों पटाखों की लड़ी किसी ने जलाकर छोड़ दी।पूरे हॉल ने दास्तानगोई टीम को तालियों के साथ स्टैंडिंग ओवेशन दिया।
कार्यक्रम अपने अंतिम दौर पर था। हिमांशु, बिस्मिल और अशफाक़ के जन्म के भारत से लेकर 2019 तक के भारत को दिखाते हैं। हंसाते हैं,भावुक करते हैं, सोचने पर मजबूर करते हैं और इतने में एक सवाल दागते हुए पूरे हॉल को स्तब्ध कर देते हैं। वो तब का भारत था,ये अब का भारत है और आने वाला भारत कैसा होगा ? फिर दोहराते हैं। ये अब का भारत है। आने वाला भारत कैसा होगा ?
यही कार्यक्रम का अंत था। लेकिन पूरे हॉल में बैठे श्रोता जो दास्तानगो टीम की बात—बात पर तालियां बजा रहे थे वो सवाल सुनकर सन्न थे।
गौर करें, कार्यक्रम समाप्त हो चुका था और श्रोताओं के पास प्रतिक्रिया के नाम पर सिर्फ़ एक सन्नाटा था। क्योंकि हिमांशु ने पूरे हॉल को अशफाक़ और बिस्मिल के भारत का सफ़र कराया और सफ़र का अंत किया 2019 के भारत पर। भविष्य के भारत के सवाल के साथ।
इस समय के हालात किसी से छुपे नहीं है। सवाल भी सामने हैं जवाब भी सामने हैं। बस ज़रूरत है इस मुल्क़ के लोगों को इस मुल्क़ की ख़ूबसूरती से वाकिफ़ कराने की। जिस ख़ूबसूरती को कभी ब्रिटिश हुक़ूमत ने लूटा, उसे आज इस देश की राजनीति नोच रही है।
बात बात पर तालियों के शोर से गूंजता एक हॉल अपने ही समय की एक सच्चाई से सामना करता है तो नतीजा सन्नाटा होता है। यही सन्नाटा हमारा सच है। जो सैंकड़ों सवालों के घेरे में हैं।
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