राकेश कायस्थ।
मुझे जो समझ में आता है, वही अंतिम सत्य है, बाकी सब बेमानी है। जो मेरी पसंद का है,वही सर्वश्रेष्ठ है, बाकी सब बकवास है। हिंदी पाठकों का एक वर्ग गीतांजलि श्री के बुकर विजेता उपन्यास रेत समाधि पर कुछ इसी तरह की प्रतिक्रियाएं दे रहा है।
निर्णय सुनाने की यह प्रवृति भारतीय समाज में कोई नई नही है। बाजारवाद के विस्तार ने इसे पिछले कुछ वर्षों में इस प्रवृति को और गहरा किया है।
इंटरनेशनल बुकर में हिंदी किताब का चयन और उसपर चर्चा, हिंदी जगत के लिए एक तरह का इवेंट है।
इस इवेंट में वह अपनी भागीदारी उसी तरह चाहता है, जिस तरह बाजार द्वारा संचालित वेलेंटाइन डे जैसे किसी इवेंट में।
जोश में आकर किताब मंगवा चुके बहुत से लोग निराश हैं। मेरी समझ में निराशा व्यक्त करना उनका अधिकार है।
लेकिन यह कहना कि इस किताब में कुछ नहीं है और बुकर पुरस्कार अंग्रेजी अनुवाद की वजह से मिला है, अपने आप में बहुत हास्यास्पद है।
हमारे चारों तरफ जितने भी आर्ट फॉर्म हैं, वे सब हमारे लिए नहीं होते हैं। उनका चयन आपको अपनी रुचि के आधार पर करना होता है।
जो लोग हिंदी सिनेमा के दर्शक हैं, उन्हें अचानक वर्ल्ड सिनेमा की कोई बेहतरीन फिल्म दिखा दी जाये तो हो सकता है, वो ये कहेंगे कि कुछ समझ में नहीं आया।
पता नहीं इसकी इतनी चर्चा क्यों है? क्या उनकी इस प्रतिक्रिया से उस फिल्म का महत्व कम हो जाएगा?
पाठकों का एक छोटा सा तबका ऐसा भी है जो दावा कर रहा है कि मैंने तो बहुत आसानी से पढ़ लिया, किताब में ऐसा कुछ नहीं है, जिससे पढ़ने में कठिनाई हो।
यह हिंदी समाज की दूसरी प्रवृति को दिंखाता है, जहां अपने पांडित्य का लोहा मनवाने की बेचैनी है।
यह बात स्वीकार करने में क्या कठिनाई है कि रेत समाधि जैसी किताब हिंदी के आम पाठकों के लिए नहीं है? लेखक की तरह पाठक भी अपनी एक यात्रा होती है।
वह धीरे-धीरे सफर तय करता है। यह शर्त भी ज़रूरी नहीं है कि वह हर चीज़ को पसंद ही करे।
लिखने को बहुत कुछ है लेकिन अपनी बात को यहीं विराम देते हुए मौजूदा समय के महत्वपूर्ण आलोचक वीरेंद्र यादव की टिप्पणी नीचे ज्यों की त्यों चिपका रहा हूँ।
आशा करता हूँ, पठनीयता के सवाल को और बेहतर तरीके से समझाने में मददगार होगी।
वीरेंद्र यादव की टिप्पणी
-------------------
पठनीयता!
जी हाँ, जेम्स ज्वायस का उपन्यास 'यूलिसिस' भी आप क्या पढ़ पाए?
और हाँ वहाँ भी उपन्यास के अंतिम परिच्छेद में मालिब्लूम के 24048 शब्द के स्वकथन में सिर्फ दो कामा और एक फुल स्टाप है ,तो क्या दुनिया ने उसे इसीलिए खारिज कर दिया!
आप तो मारकेज और मिलान कुंदेरा को भी नहीं पढ़ पाए।
वैसे तो आपने कृष्णा सोबती का 'जिंदगीनामा' भी उलट पलट कर रख दिया था और 'आधा गाँव' के बीस पन्नों के बाद हांफने लगे थे तो क्यों बजिद हैं कि 'रेत समाधि' आप पढ़ लेंगें?
आप नहीं पढ़ पाए यह आपका पाठकीय आस्वाद है। क्यों चाहते हैं कि आप हर उपन्यास 'राग दरबारी' की तरह ठठ्ठा लगाते या 'गुनाहों के देवता' की तर्ज़ पर आंसू बहाते पढ़ें?
दरअसल मात्र पठनीयता किसी उपन्यास की उत्कृष्टता की न अकेली शर्त है और न होनी चाहिए।
पठनीय प्रेमचंद भी हैं और शिवानी भी लेकिन दोनों भिन्न आस्वाद व जीवनदृष्टि के लेखक हैं. इसी तरह दुरुहता भी गंभीर उपन्यास का कोई पैमाना नहीं है।
कुछ कृतिकारों की अपनी अलग रचना-लय होती है, उस लय के साथ रिश्ता बनाए बिना आप उसकी कृति के मर्म तक नहीं पहुंच सकते।
आप उस लय के साथ एक पाठक के रुप में रिश्ता न बना सके यह आपकी पसंद की सीमा है।
इसके लिए बुकर की ज्यूरी नहीं जिम्मेदार है। कृपया कुछ संयम बरतिए।
देखिए तो कि दुनिया के साहित्यिक वृत्त में हिंदी के लेखन पर निगाहें टिक रही हैं।
मुद्दे और भी हैं। फिलहाल अभी इतना ही!
Comments