ऋचा अनुरागी।
यूं तो धरती पर बेहिसाब पेड़-पौधे, झाड़, खास-फूस क्या नहीं है? मेरा मतलब उन लोगों से है जिनके होने मात्र से जीवन सुंगधित हो जाता है और न होने से चारों ओर कमी सी महसूसती है। जो वट वृक्ष के मानिन्द होते हैं। धरती से जीवन - रस लेते हैं और आसमान से वर्षा करवा धरती को तृप्त करते हैं। अपनी शाखाओं को हिलाते हैं तो पत्तों से सरगम बहने लगती है। कभी लगता है यह पत्तियों की अंजुरियों से सूर्य को अर्घ अर्पण करते हों। वे सूरज से रोशनी लेते हैं पर वातावरण में प्राणप्रद वायु भर देते हैं। हजारों पक्षियों का आसरा, पथिकों की छांव और कई की आस्था बन जाते हैं। जिन पर हल्दी अक्षत लगा लोग मन्नते मानते हैं। इंसानों के जंगल में ऐसे ही कुछ विरले इंसान भी होते हैं , ठीक इन्हीं वट वृक्ष से, गुलाब ,जूही, चम्पा चमेली से, जो हजारो को साहरा देते हैं, अपनी खुशबू से जगत को महकाते हैं और जिनके ना होने से बगिया सूनी हो जाती है।
पापा की स्मृतियों का गगन बहुत व्यापक और बहुरंगी है। उसे एक साथ सहेजना वैसा ही है मानो सम्पूर्ण सागर को गागर में भरने की कोशिश हो या सूरज - चांद- तारों , इंन्द्र धनुश से भरे गगन को अपने आँचल में बांधने की कोशिश करना। यादें अनंत हैं, उन्हें आपके साथ बांटना भी चाहती हूँ। आज की तारीख में पापा श्री राजेन्द्र अनुरागी जी का जन्मदिन है और उन्हें कुछ अलग तरह से याद करते हैं] उनके अपनों की यादों में अनुरागी।
आदरणीय शिवमंगलसिंह सुमन:राजेन्द्र अनुरागी की मर्ममधुर कल्पना से प्रसूत ये 'शान्ति के पाँखी' वे ही हैं, जो सृष्टि के आदिकाल से आज तक मानव के सपनों में मँडराते रहे हैं। कालिदास ने इन शान्ति के कपोतों को पहचाना था और प्रेम का प्रतीक बनाकर महाकाल के झरोखों में विश्राम करने के लिए छोड़ दिया था। बुध्द ने करुणा के इसी पाँखी को अपने भाई देवव्रत के घातक तीर से बचाकर उसके घायल पंख पर संवेदना का मरहम लगाया था और जननायक जवाहर लाल भी प्रत्येक गणतंत्र-दिवस पर इन्हीं पाँखियों को आकाश में उड़ाकर यह बतलाते थे कि इनकी मुक्त उड़ान मानवता के भव्य भविष्य की उड़ान है। इसका संकेत उन्होंने पिकासो से पाया था, जिसकी मूल प्रेरणा में महात्मा लेनिन की मानव-मात्र के प्रति हार्दिक आत्मीयता सन्निहित है। राजेन्द्र अनुरागी ने अपनी कविताओं के माध्यम से जीवन की उन विभिन्न वाटिकाओं में भ्रमण कराया है, जहाँ केवल कुसुमों की रंगीनी और सुगन्ध ही नहीं है, वरन् आदिकवि की क्रौच-वेदना से व्यथित हो उठने वाली संवेदनशीलता भी है, अनुरागी ने अपने नाम को सार्थक करते हुए राग के सहज संवेध तत्व को ग्रहण किया है, जो आदिकवि की बहुमूल्य धरोहर के रुप में केवल भारतीय ही नहीं, अपितु विश्व-साहित्य को प्राप्त हुआ है। अनुरागी की कल्पनाओं का उपवन बुर्जुआ वर्ग का वैभवशाली प्रमादवन नहीं है, वरन् विश्व का वह विशाल प्रांगण है, जिसमें श्रमिक का रक्त और स्वेद गंगाजल बनकर रेगिस्तानों को हरा-भरा करता रहा है। अनुरागी ने इसमें मानवता की आपसी भाईचारे की भी कलमें रोपी हैं और घुटनों-घुटनों पानी में उन्हें ऐसे सहेजा है, जैसे किसान धान के खेत को सहेजता है। अनुरागी लिखता है---
जब तक हम एक हाथ से
आम की फलवती डगान पकड़े,
दूसरे से आम का बगीचा नहीं बोते,
तब तक न तो हमारी पूजाएँ ही सुकृत होती हैं
और न नमाज़े कुबूल,
हमारी सभी प्राथनाएँ अर्थहीन होती हैं......
अनुरागी पूजा, नमाजो और प्रार्थनाओं में भेद करने वाली दृष्टि पर बड़ा निर्मम प्रहार करता है और जाति-पाति एवं सम्प्रदायों के कठमुल्लापन को आमूल झकझोर देता है। अनुरागी ललकारता भी है--
ये मक़तब सभी अनाथ
मस्जिदें बेवा हैं,
ये गिरजे सिर्फ नुमाइश
मंदिर नाटक हैं
इसलिए शायद अनुरागी अपने पाठकों को इन सब से खींचकर मानवता के विराट् आँगन में ले जाना चाहता है। शिवमंगलसिंह सुमन और भी बहुत कुछ कहते हैं अनुरागी और अनुरागी की कविताओं के बारे में जिसे कभी आगे लेकर आऊंगी आप सबके पास।
भगवान रजनीश --मेरे प्रिये , मेरे विचारों पर भी कुछ गा सको तो कैसा रहे? अनुरागी के गीतो में अपने विचारों को देखने की आशा रखते थे और अनुरागी की कविता पर केन्द्रित कर अपना संबोधन देते थे। यह थी दोनों की मित्रता।
आदरणीय कैलाशचन्द्र पन्त---अनुरागी साहित्य में जाना पहचाना नाम है। उसे किसी परिचय की आवश्यकता नहीं। सन् 1965 में चीनी आक्रमण के समय एक पंक्ति बच्चे बच्चे की जबान पर थी
" आज अपना देश लाम पर है
जो जहाँ भी है, वतन के काम पर है"
ऐसी दृढ़ता का परिचय देने वाला ओजस्वी कवि जब भावमय हो गा उठता है--
हर प्यासे की एक डगर है
हर पानी की एक कहानी
जितनी प्यासी प्यास स्वयं है
उतना ही प्यासा है पानी
तो लगता है कि बालकवि बैरागी ने "शांति के पाखी" में अनुरागी जी के सम्बन्ध में सही अभिव्यक्ति दी है" मानव- मात्र की पीड़ा- यात्रा के गीत है ये, जिस किसी के भी पास एक संवेदनशील मनुष्य का ह्रदय है, वह निश्चित ही इन्हें गाएगा और पूरी आस्था के साथ दोहराएगा।"
अनुरागी कविता लिखते ही नहीं, जीते भी हैं। उनकी कविता से सार्थक परिचय अनुरागी से मिलकर ही होता है। सहज, संवेदनशील, भावुक ह्रदय मिला है अनुरागी को वह आस्था में जीता है और करुणा से ओत-प्रोत है। अनुरागी के सम्बन्ध में डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन ने सटीक बात कही है- "अनुरागी की कल्पनाओं का उपवन बुर्जुआ वर्ग का वैभवशाली प्रमद-वन नहीं है, वरन विश्व का वह प्रांगण है, जिसमें श्रमिक का रक्त और स्वेद गंगाजल बनकर रेगिस्तानों को हरा-भरा करता रहा है-"
स्पष्ट है कि अनुरागी का मानस समाजवादी आस्थाओं से रचा-बुना है लेकिन समाजवाद उसके निकट विश्व शांति, विश्वबंधुत्व का पर्यावाची है तथा शोषण के खिलाफ चट्टान की तरह टकराने वाला दर्शन है। अनुरागी लिखता है--
स्वस्थ आदमी का खून
कभी नीला नहीं होता।
नीली तो देह सिर्फ तब ही पड़ जाती है,
जब कोई ज़हर वहाँ भीतर बस जाता है;--
प्राण के उजाले को तिमिर ग्रस जाता है।
आख़िरकार एक रोज़
चन्द आम लोगों ने
खुले चौराहों पर
खून की परीक्षा की; -
फ्रांस के लोगों ने देखा,
सोलहवें लुई का खून
उन-सा ही सुर्ख था!
रुस की जनता ने
ज़ार का रक्त जाँचा!
अनुरागी मानववादी है। वह अभेद का पक्षधर है। वह अपने पाठकों को मानवता के विशाल कैनवास में विचरण करने के लिए छोड़ देता है--
आओ, हम नये आदमी की
बाराखड़ी रचें.....
राजेन्द्र अनुरागी पर मध्यप्रदेश को गर्व है।16 फरवरी 1931 महाशिवरात्रि को होशंगाबाद में जन्मे इस कवि ने सागर विश्वविद्यालय के महा विद्वान शिक्षको के आशीष के साथ शिक्षा प्राप्त की।अपनी सहजता की छाप वह हर मिलने पर छोड़ता है। साहित्यिक गिरोह बन्दी से दूर अपने रचना-कर्म में तल्लीन रहते हैं।उनके बारे में सुमन जी ने लिखा था कि ऐसी पंक्तियाँ निस्सदेह विश्व साहित्य में स्थान पाने की अधिकारिणी बन जाती हैं।यह सच है कि अनुरागी जी की अनेक पंक्तियाँ राष्ट्रीय स्तर के किसी भी कवि की टक्कर में खड़ी हो सकती हैं।
आदरणीय भगवत रावत---स्व. भगवत रावत अंकल ने एक लम्बी भूमिका के बाद अनुरागी जी के लिये लिखा था-- हिन्दी कविता में छायावाद के बाद और प्रगतिवाद के लगभग समानान्तर एक ऐसी काव्यधारा का भी जन्म हुआ जिसने द्विवेदी युगीन राष्ट्रीय काव्यधारा से नाता जोड़े रखा और छायावाद कविता के प्रेम और करुणा को भी अपनी काव्यचेतना का प्रमुख अंग बनाया। इस काव्यधारा के विशिष्ट कवि के रुप में हरिवंशराय बच्चन को जाना जाता है। इन तत्वों के अलावा जो विशेष बात इन कवियों मेंपायी गयी वह है जीवन के प्रति कुछ-कुछ सुफियाना फक्कड़पन का नजरिया। ध्यान देने की बात यह है कि इनमें से ज्यादातर कवि स्वतंत्रता आन्दोलन संग्राम में उतने ही सक्रिय थे जितनी अपनी कविता की रचना में। यह रुप इतना अभिन्न था कि उनके जीवन की सक्रियता और उनके रचनाकर्म को अलग-अलग देख पाना मुश्किल था। कहने का तात्पर्य यह है कि जहां प्रगतिवाद के बाद प्रयोगवाद और नयी कविता की धारा एक ओर विकसित हो रही थी वहीं दूसरी ओर इन कवियों ने किसी ऐसे साहित्यिक आन्दोलन की परवाह किये बिना ऐसी कविता लिखना जारी रखा जो उनकी जीवन दृष्टि और रचनाकर्म में कोई द्वैत नहीं देखती है।संक्षेप में कह सकते हैं कि स्वतंत्रता प्राप्ति की दीवानगी में डूबे कवियों ने अपना जीवन का सुख-दुख ताक पर रख दिया था और जैसे एक समय में सच्चे फकीर घर से बाहर निकल पड़ते थे अलख जगाने, उसी तरह ये भी स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े। सन् 1947 के पहले इन कवियों ने ऐसा वातावरण बनाया कि बहुत सारे लोग उस धारा में बह गए। आलोचकों ने इस काव्यधारा को स्वच्छंदतावादी काव्यधारा कहना चाहा कि ये सारे कवि स्वच्छंद हैं। इन्हें किसी काव्य आन्दोलन से जोड़ा नहीं जा सकता। इनमें प्रमुख रुप से तो राष्ट्रीय चेतना है लेकिन साथ ही ये प्रेम करुणा और जीवन को रोमांटिक दृष्टि से देखते हैं। अफसोस है कि इस काव्यधारा के आगे आने वाला कवि, कवि सम्मेलनों की बलि चढ़ते गए और धीरे-धीरे ये काव्यधारा प्रभावहीन इसलिए भी होती गयी कि जिसे वैचारिक ऊर्जा और सामाजिक यथार्थ को समझने के लिये जैसी बौध्दिकता का ताप आवश्यक था वो सस्ती लोकप्रियता में विलीन हो गया और धीरे-धीरे ये कविता मनोरंजन प्रधान होती चली गई। पर यह जो भी हुआ एक बात सबसे बड़ी ये निकल कर आती है, कि जनमानस का सामना या उसके बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का काम इसी कविता ने किया वरना प्रयोगवाद के बाद जिस नयी कविता का विकास हुआ उसने साहित्यिक मानदण्ड जो भी स्थापित किये हों जनमानस का साथ तो छोड़ दिया।
अगर इस भूमिका के साथ मैं अपनी बात शुरु नहीं करता तो राजेन्द्र अनुरागी जैसे कवियों की पृष्ठभूमि और उनके व्यक्तित्व और कृतित्व को ना तो ठीक ढंग से देखा जा सकता है ना उसके साथ न्याय किया जा सकता है। वे इसी काव्यभूमि की उपज थे, जो मन में आया गाया। ना किसी विचार की परवाह की ना किसी सिध्दान्त की और जीवन में भी उन्होंने वो सब कुछ छोड़ दिया जो उन्हें विरासत में मिल सकता था। होशंगाबाद के जाने माने सेठ के बेटे जिनकी उस समय हवेलियां और कारोबार था। इस सबकी परवाह किये बिना फक्कड़ कवि निकल गया।राजेन्द्र अनुरागी 'प्रतिभाशाली' कवि थे।जब मैं 'प्रतिभाशाली' शब्द का उपयोग करता हूँ तो आशय उस तत्व की तरफ है जो शब्द रचना में रूपांतरित करने की ताकत रखता है।
आज अपना देश सारा लाम पर है, जो जहां भी है वतन के काम पर है। ये पंक्तियाँ बड़े से बड़ा विद्वान नहीं लिख सकता। प्रतिभाशाली कवि ही लिख सकता है।उनके एक गीत की पहली पंक्ति है --"अंदाजन कट गये रास्ते" ये पहली पंक्ति ना केवल उनके जीवन के मर्म को व्याख्याति करती है, सहजता और सरलता से जिस जीवन सत्य को उदघाटित करती है, ये सहज स्वाभाविक रुप से उपजी हुई पंक्ति है, पर ऐसे कवियों की सारी दिक्कत यही है कि अपनी प्रतिभा के भरोसे ही सब कुछ छोड़े रहे।मैं उन्हें 1956 से जानता था जब मैं झांसी में बी. ए. का विधार्थी था। मेरे महाविद्यालय बुंदेलखंड कालेज में राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर डॉ. कोठारी के राजेन्द्र अनुरागी सहपाठी थे। महाविद्यालय के वार्षिकोत्सव के कवि सम्मेलन में उन्हीं के कहने पर हमने अनुरागी जी को बुलाया था। उस समय उनमें जो खुलापन था जो भाषा की रवानी उनके पास थी इसने हम सबको बहुत आकर्षित किया था। बाद में संयोग से मैं भोपाल आ गया और अनुरागी जी भी यहीं नौकरी करने लगे। मुझे अनेक कवि सम्मेलनों में उनके साथ कविता पढ़ने का सौभाग्य मिला। अनुरागी जी भवानीप्रसाद मिश्र की उन पंक्तियों के सच्चे अनुयायी थे जिनमें उन्होंने कहा था--" जिस तरह तू बोलता है, उस तरह तू लिख और इसके बाद भी उससे बड़ा तू दिख"। अब वो पीढ़ी समाप्त होती जा रही है जिसको अपनी कविताएँ तो कंठस्य रहती ही थी। अफने से ज्यादा दूसरों की कविताएँ कंठस्थ रहती थीं। अनुरागी जी को मैंने कभी अपने जीवन में डायरी लिये नहीं देखा। जहां भी पढ़ते देखा मुंह जबानी घंटों पढ़ते देखा।
कभी-कभी मन में ये ख्याल आता है कि अच्छा होता कि अनुरागी जी कुछ कम फक्कड़ होते, अच्छा होता कि थोड़े बहुत व्यवस्थित भी होते। मेरी उनसे एक बार चर्चा हुई थी। मैंने उनसे कहा कि आप बच्चों से मिलकर कविताएँ व्यवस्थित तो कर लीजिए, तो इसके उत्तर में उन्होंने मुझे एक कविता सुना दी, इसका आशय था कि मैं जो देखता हूं वो गाता हूँ, जो मेरे मन में आता है, गुनगुनाता हूँ, जो कागज मिल जाए उस पर ही लिख देता हूँ। अब आगे आने वाले जो आएंगे तो छांटेगे, काटेगे अपने मतलब का उसमें से बीन लेंगे, मेरा जो काम था मैंने कर दिया। मुझे पूरा विश्वास है कि उनकी सारी कविताओं को एकत्रित करके और थोड़े अनुशासन और कठोरता से यदि सम्पादित किया जाय तो हम बहुत सारी ऐसी कविता बचा पाएंगे जो हमारे लिए आज विरल हैं। अनुरागी जी ऐसे अपने आप से बेखबर कवियों में थे जिन्हें जीवन भर अपनी उस क्षमता का आभास ही नहीं हुआ जो उन्हें अपने समय का बहुत बड़ा कवि बना सकती थी।
यूं तो मेरे पास अभी बहुत से आदरणीय शख्सियतों के पापा को लेकर कई यादें हैं जिन्हें अभी संजोना संभव नही हो रहा है फिर कभी आपसे उन्हें रु-ब-रु करुंगी । यादों की श्रंखला कभी खत्म नहीं हो सकती और फिर वह श्रंखला जिसमें अनुरागी और अनंत अनुरागिणाः शामिल हो समाप्त हो ही नहीं सकती बस कुछ विराम देना चाहती हूँ।
जन्मदिन मुबारक हो पापा , हम सबको आपका।
इति।
Comments