रवीश कुमार।
दिलीप यादव जेएनयू में कई दिनों से भूख हड़ताल पर बैठा है। उसकी स्थिति बिगड़ती जा रही है।दिलीप यादव जिस मुद्दे के लिए अपनी जान से खेल रहा है,कायदे से वे हिन्दी भाषी समाज के मुद्दे होने चाहिए थे। हिन्दी अख़बारों के ज़िला संस्करणों में इसे छा जाना चाहिए था। हिन्दी के दर्शकों के बीच पता नहीं क्या क्या दिखाकर छा जाने वाले तमाम चोटी के चैनलों को भी इसे अपना सवाल बनाना चाहिए था। हिन्दी के अख़बार हो या चैनल, उनके लिए हिन्दी का बाज़ार तो है मगर हिन्दी का सवाल कभी सवाल नहीं होता है। सीधे सीधे भाषा का सवाल न होने के बाद भी उन्हें इस मसले को जगह देनी चाहिए थी क्योंकि जे एन यू का नया फैसला आदिवासी, दलित और पिछड़े छात्रों को प्रभावित करने जा रहा है।इस पृष्ठभूमि के देसी भाषाओं के छात्र सिर्फ इंटरव्यू के आधार पर एडमिशन से बाहर कर दिये जायेंगे। वैसे भेदभाव की छूट का सिस्टम होगा तो कोई अंग्रेजी भाषी छात्र भी इसका शिकार हो जाएगा।
अख़बारों के जैसा ही आरक्षित और भाषाई सांसदों विधायकों का हाल है। वे अक्सर ऐसे मामलों में चुप रह जाते हैं और आंदोलनकारी ऐसे सांसदों से कभी सवाल नहीं करते। यूपीएससी में हिन्दी माध्यम के छात्रों का मामला गरमाया था,जब तक विरोध करने वाले छात्र लाठी न खा लिये,पानी की बौछारों से भीगा नहीं दिये गए,किसी का ध्यान नहीं गया।जबकि उस भाषा नीति के कारण ज़्यादातर दलित,पिछड़े और आदिवासी पृष्ठभूमि के छात्र ही प्रभावित थे। इनकी चुप्पी पर कोई नहीं बोलता। सबको मीडिया की चुप्पी नजर आती है।
ऐसी तमाम तरह की शून्यताओं और अवहेलनाओं के बीच दिलीप यादव भूख हडताल पर है।जितना समझ आया है,उसके अनुसार एमफिल और पीचडी में सत्तर अंक की लिखित परीक्षा पास करने के बाद तीस अंकों का वायवा यानी मौखिक साक्षात्कार की पुरानी व्यवस्था बंद हो जाएगी।नफ़े कमेटी की रिपोर्ट कहती है कि इस तीस अंक में ख़ूब हकमारी हो जाती थी। दलित,आदिवासी और कमज़ोर तबके के ग़ैर अंग्रेज़ी छात्रों को कम नंबर मिलते थे। सुझाव आया कि इंटरव्यू तीस की जगह पंद्रह अंकों का होना चाहिए।लेकिन जे एन यू ने तो इंटरव्यू के सौ अंक कर दिये।
एक तर्क दिया जा रहा है कि बहुत चतुराई से जेएनयू ने यूजीसी के इस आदेश को मान लिया कि लिखित परीक्षा सिर्फ क्वालिफाई करने के लिए होगी ताकि इसके नाम पर कैंपस में आदिवासियों और दलितों के राजनीतिक उभार पर अंकुश लगाया जा सके। लिखित परीक्षा में आरक्षित और अनारक्षित को पचास फीसदी अंक लाकर क्वालिफ़ाई करना होगा। फाइनल एडमिशन इंटरव्यू के सौ अंक के आधार पर ही होगा।यूजीसी का ये ग़जट नोटिफिकेशन लागू हुआ तो देश भर के संस्थानों से आरक्षण ग़ायब कर दिया जाएगा। यही नहीं जेएनयू की जो अपनी व्यवस्था है,डेप्रिविएशन प्वाइंट देकर कमज़ोर छात्रों को मौका देने की,वह भी समाप्त हो जाएगा। इसके कारण यहाँ गाँव और क़स्बों के कमजोर तबके के छात्रों को ख़ूब मौका मिला है और देश को नई तरह की प्रतिभाएँ। अस्सी के दशक में जब इसे हटाने का प्रयास हुआ था तब उस वक्त के छात्र संगठनों और छात्रों ने खूब संघर्ष किया था। नतीजा यह हुआ कि जे एन यू बाहर से अंग्रेजी जैसा एलिट संस्थान लगता था मगर भीतर से अंग्रेज़ी बोलने वाला देसी संस्थान बन गया।
अक्सर ऐसी सूची निकलती रही है कि जेएनयू में प्रोफ़ेसरों के मामले में अन्य संस्थानों की तरह ही घोर असंतुलन है। आरक्षित सीटें ख़ाली रह जाती हैं।जब इंटरव्यू के ही सारे अंक तय करेंगे कि आप एडमिशन के लायक हैं या नहीं तब लिखित परीक्षा भी बंद कर दीजिए। प्रधानमंत्री तो इंटरव्यू के ख़िलाफ़ भाषण दे रहे थे।जे एन यू को सिर्फ इंटरव्यू में ही मुक्ति नज़र आती है।भारत में ऐसी कोई संस्था नहीं है जो विविधता के प्रतिनिधित्व के मामले में अच्छी छोड़िये औसत भी समझी जाती हो। अगर इंटरव्यू का यह सिस्टम लागू हुआ तो एक खास तरह के छात्र ही शोध तक पहुँचेंगे।
भारत में जहां संस्थाएं सवाल न पूछने को प्रोत्साहित करती हैं,वहां कोई बाग़ी तेवर का छात्र आ जाए तो उसकी किस्मत अधर में लटक सकती है। एफ फ़िल और पीएचडी में एडमिशन के नाम पर नई राजनीतिक गोलबंदी की संभावना को रोका जाएगा। ताकि एन यू के अपने छात्र एम ए के दौरान विश्वविद्यालय की बताई राह पर ही चले और वैकल्पिक राजनीतिक रास्ता चुनते वक्त ख़्याल रखे कि एम फ़िल में एडमिशन रूक सकता है।उन्हें एम ए के बाद बाहर का रास्ता दिखा दिया जाएगा। इस नए फैसले से एडमिशन में पर्याप्त मनमानी बढ़ जाएगी।
कायदे से यूजीसी को जेएनयू की नफ़े कमेटी के आधार पर दूसरे विश्वविद्यालयों को नोटिस भेजना चाहिए था कि कहीं उनके यहां भी तो इंटरव्यू में भेदभाव नहीं होता है। अंग्रेजी के कारण मराठी, बांग्ला,तमिल,उड़िया और हिन्दी के छात्रों के साथ भेदभाव होता है। हर जगह भारतीय भाषाओं के छात्र कम संभावनाओं के बीच अधिक संभावनाएं पैदा करने में मर खप जा रहे हैं।
अब सवाल ये है कि ये सवाल क्या सिर्फ दिलीप यादव का है। क्या ये सवाल बिहार का नहीं है,यूपी का नहीं है,बंगाल का नहीं है,उड़ीसा का नहीं है।बाकी विश्वविद्यालय के छात्रों को संविधान निर्माताओं ने मना किया है कि तुम चुपचाप पढ़ाई करके दहेज लेने की तैयारी करना,अपनी ही तरह की दहेज देने वाली मूर्खा से शादी करना,डीजे बुलाकर डांस करना क्योंकि प्रदर्शन करना होगा तो जेएनयू वाला करेगा वर्ना प्रदर्शन नहीं माना जाएगा और प्रदर्शन होगा तो ये कहना कि जेएनयू वाले पढ़ते कब हैं,दिन भर प्रदर्शन ही करते हैं क्या। पढ़ते हैं तभी तो प्रदर्शन करते हैं। आप जब नोटिफिकेशन नहीं पढ़ेंगे,फीस का ढांचा नहीं देखेंगे,सस्ती शिक्षा के अपने अधिकार को लेकर पढ़ाई नहीं करेंगे तो प्रदर्शन कहां से करेंगे।
विरोध ही ज़रूरी नहीं है,किसी फैसले का समर्थन भी तो किया जा सकता है।वहीं दिलीप यादव के सामने जो एन यू के समर्थन में प्रदर्शन किया जा सकता है। वही कीजिये। कहिये कि हममें से जो गरीब शोषित तबके से आते हैं,जिनकी अंग्रेज़ी ठीक नहीं है,जो अपनी भाषा में बोलने में ठीक नहीं हैं,घबरा जाते हैं, मगर लिखने में बेहतर हैं,इसलिए हमारे जैसे छात्रों का एडमिशन में चांस कम होना चाहिए।इससे अच्छी बात क्या हो सकती है।हम सभी अपनी संभावनाओं के ख़त्म होने का समर्थन करते हैं।हम पहले भी ख़त्म थे,अब भी ख़त्म रहने का प्रण करते हैं।समर्थन में भी तो प्रदर्शन हो सकता है। वो भी क्यों नहीं होता है।
यह फ़ैसला सामाजिक के साथ-साथ भाषाई पृष्ठभूमि के कारण भेदभाव की गुज़ाइश पैदा करता है।हिन्दी का छात्र हिन्दी का छात्र होता है।वो हर जगह पाने के लिए पाने से ज़्यादा खोता चलता है।उसकी कोई भी उपलब्धि खोए हुए की लंबी सूची के बग़ैर नहीं होती है। ख़ुद हिन्दी माध्यम का छात्र रहा हूं और इसी भाषा का पत्रकार तो हर पल एक खाई लांघनी पड़ती है।आप प्राप्ति के शिखर पर भी वंचित की तरह खड़े होते हैं।यह अनुभव हिन्दी का ही नहीं है। बांग्ला, तमिल,उड़िया और मराठी छात्रों का भी है। फिर भी अंग्रेज़ी के वर्चस्व के ख़िलाफ़ भारतीय भाषाएं कभी एकजुट नहीं हो पाती हैं।उनकी ट्रेनिंग आपस में बंटने की है,एकजुट होकर लड़ने की नहीं है।
जेएनयू के छात्र दिलीप का साथ दे रहे हैं मगर हिन्दी या भारतीय भाषाओं का समाज चुप है। समाज का मलाईदार तबक़ा अपनी भाषा के कमज़ोर लोगों से सहानुभूति नहीं रखता। हिन्दी का नाम लेने वाली सरकारें भी उसी संदर्भ में हिन्दी का नाम लेती हैं जब इसके सहारे दूसरी भाषाओं से टकराव की संभावना हो।दूसरी भारतीय भाषाओं पर दबदबा बनाए रखने या धमकाने के लिए हिन्दी का इस्तमाल कर लिया जाएगा मगर जहां हिन्दी के मूल सवाल होंगे वहां हर कोई चुप रहेगा। दिलीप यादव को अपनी सेहत का ख़्याल रखना चाहिए। अकेले की लड़ाई तकलीफदेह होती है।
नोट:सोमवार को किसी अखबार में रिपोर्ट पढ़ रहा था कि यहां के 28 बड़े कालेजों में कई साल से स्थायी प्रिंसिपल नहीं है। ये दिल्ली का हाल है। साढ़े चार हज़ार तदर्श शिक्षक हैं। यानी इतने शिक्षकों को स्थायी नौकरी मिल सकती थी फिर भी वर्षों से अस्थायी तौर पर पढ़ाने के लिए मजबूर हैं। दिल्ली सरकार के स्कूलों में भी भारी संख्या में शिक्षकों के पद ख़ाली हैं। हमारी सरकारें बेरोज़गारी पैदा करती हैं,हमारा समाज सरकारों को इतना पसंद करता है कि अपने सवाल भी नहीं करता है। सोचिये एक शहर में एक विश्वविद्यालय में साढ़े हज़ार नौकरियां हों,उसे हासिल करने के लिए नौजवानों ने दिल्ली की तरफ कूच भी नहीं किया है। सोचिये कि देश के बाकी विश्वविद्यालयों और स्कूलों में कितनी नौकरियां होंगी। लेकिन नौजवान चुप है। समाज चुप है। सब चाहते हैं कि मीडिया उनका काम कर दे ताकि वे आराम से उन्हीं चालें में बगदादी के मरने जैसे कार्यक्रम देखते रहें।
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