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फिल्म समीक्षा:मनोरंजन के नाम पर भटकाती कबीर सिंह

पेज-थ्री            Jun 21, 2019


डॉ.प्रकाश हिंदुस्तानी।

कबीर सिंह देखकर निकलते वक्त दो दर्शक बात कर रहे थे कि बन गए ना ट्रेलर देखकर उल्लू। 3 घंटे पका दिया। तेलुगु फिल्म अर्जुन रेड्डी का रिमेक कबीर सिंह बेहद इरीटेटिंग फिल्म है। पता नहीं तेलुगु में यह हिट क्यों हुई?

अच्छा हुआ जो रणवीर सिंह और अर्जुन कपूर ने इससे कन्नी काट ली। करीब 3 घंटे की फिल्म इंटरवल के बाद तो बेहद पकाऊ लगती है, जिसमें हीरो के पास यही काम रहता है - शराब पीना, सिगरेट पीना, ड्रग्स लेना और अपने पिता, मां, दादी, भाई और दोस्तों की बेइज्जती करना।

अरे भाई, तुझे शराब पीना है तो पी ले, हमारे दिमाग का दही तो मत कर। हीरो भी एमएस डॉक्टर है, विशेषज्ञ है। बिना दारू पिये ऑपरेशन थिएटर में नहीं जाता, लेकिन अगर कोई नर्स लिपस्टिक लगाकर आ जाए, तो उसे आउट कर देता है। नशे में वह ऑपरेशन थिएटर में धड़ाम हो जाता है और फिर भी नर्सों को इंस्ट्रक्शन देते हुए ऑपरेशन खत्म करवाता है।

कबीर सिंह पूरे चिकित्सा जगत पर लांछन की तरह है। जब वह कॉलेज में पढ़ता है, तब किसी गुंडे की तरह उसका बर्ताव रहता है। रैगिंग के नाम पर वह क्या-क्या नहीं करता। फर्स्ट ईयर की मेडिकल छात्रा पर उसका दिल आ जाता है और वह उसके पीछे पागल हो जाता है। छात्रा को गर्ल्स होस्टल से ब्वॉयज होस्टल में ले आता है।

मेडिकल कॉलेज में वह ऐसा सीनियर छात्र है, जिसके सामने डीन, प्रोफेसर्स, स्टॉफ आदि कुछ भी नहीं। दूसरे सीनियर्स भी उसके सामने जीरो बटा सन्नाटा है।

छात्रा के पिता हीरो के पिता को जानते थे और वे हीरो को छात्रा का ध्यान रखने के लिए कह देते है। उसके बाद जिस तरह फिल्म में दिखाया गया है, मानो छात्रा का कॉपीराइट ही हीरो के पास आ गया हो। छात्रा भी अपने सीनियर पर फिदा और न जाने क्या-क्या हो जाती है।

इंटरवल तक तो खेल-खेल, लड़ाई-झगड़ा, रैगिंग, होली, रूठना-मनाना होता है, उसके बाद दोनों की राहें जुदा हो जाती है और हीरो खुद को बर्बाद करने पर आमादा हो जाता है। वह अपनी हर बात को सही साबित करने पर अड़ा रहता है।

असल में वह एक तरह का मानसिक रोगी ही होती है, जिसे निर्देशक ने मानसिक रोगी नहीं दिखाया है। कोई व्यक्ति एक साथ इतना गैरजिम्मेदार और बदमिजाज कैसे हो सकता है। वह भी ऐसा व्यक्ति जिसके परिवार में 3 पीढ़ियां सामान्य जीवन जी रही हो। अच्छा खासा भरा पूरा परिवार है। शानदार कोठी और शानदार जगुआर कार।

घनघोर इश्क वाली बहुत फिल्में आई हैं। पवित्र इश्क वाली भी और बलिदान के साथ इश्क वाली भी, लेकिन यह तो एक नए ही जैमर की फिल्म है, जो दर्शकों से कहती है - मुझे झेलो। इंटरवल के बाद हीरो और हीरोइन दोनों के ही व्यवहार से दर्शक को सहानुभूति की जगह चिढ़ सी होती है।

कियारा आडवाणी का मासूम सा चेहरा और शाहिद कपूर का 14 किलो घटाया गया वजन और एक्टिंग भी उसकी भरपाई नहीं कर सकती।

प्रेम करना एक पवित्र और मुलायम रिश्ता है। उसमें चिढ़, जिद और खुद को तबाह करने की कामना बुद्धिमतापूर्ण कतई नहीं लगती। न तो मेडिकल कॉलेज वैसे होते हैं, न डॉक्टर, न अस्पताल और न ही प्रशासन। युवावस्था में लोग दिग्भ्रमित हो जाते हैं, पर इतने पागल नहीं। कोई कितना भी महान सर्जन क्यों न हो, उसके अपराध और गलतियों को कोई माफ नहीं कर सकता।

टी-सीरिज भी इस फिल्म की निर्माता है। गाने नए जमाने के हिसाब से लिखे और बनाए गए है। नए जमाने के लोगों को वे गाने पसंद आएंगे। लव स्टोरी या हेट स्टोरी जो भी कहें प्रचार के अनुरूप नहीं है। खुसरो और कबीर के दोहों से शुरू हुई फिल्म मनोरंजन के नाम पर भटकाती है। इंटरवल में फिल्म के दर्शक चाहे तो फिल्म छोड़कर जा सकते है। उनका कुछ भी मिस नहीं होगा।

 



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