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किस तरह का लोकतंत्र, किस तरह का राष्ट्र हम अपने लिए चाहते हैं?

खरी-खरी            Feb 21, 2016


ashok-vajpia-1 अशोक वाजपेयी जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में जो कुछ हुआ है, उसके निहितार्थ खोजने के लिए अधिक सिर खपाने की जरूरत नहीं है। जो शक्तियां और समूह अब केन्द्र में सत्तारूढ़ राजनैतिक दल के खुले समर्थन से सक्रिय-मुखर हो रहे हैं वे सारी असहमति, विवाद, अपने से अलग विचारों और दृष्टियों को न सिर्फ असह्य बल्कि देशद्रोही मानते हैं, वे ही अब, सरकार और पुलिस की बेशर्म और खुली मदद से, यह तय करना चाहते हैं, कि हमारे लोकतंत्र में, हमारे बौद्धिक परिसरों में क्या सोचने-कहने की इजाजत है। वो ही क्या देशभक्ति है, क्या भारतीय लोकतंत्र है, क्या भारतीय परंपरा है, यह तय करेंगे और वे ही उनकी धारणाओं से अलग कुछ सोचने-करने के लिए तुरंत दंड देने या दिलवाने की कार्रवाई भी करेंगे! विचार, आस्था, कर्म और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का उनके लिए यही मतलब है कि वह उन्हें मनमानी करने की छूट दे और बाक़ी सबकी स्वतंत्रता बाधित करने का असीम अधिकार। यह सब आकस्मिक नहीं है। इसके पीछे सोची-समझी यह रणनीति है कि जितनी जल्दी हो समूचे भारत को सोच-विचार से विरक्त कर, भयाक्रान्त कर, उसकी बौद्धिक और सर्जनात्मक बहुलता को ध्वस्त कर, उन संस्थाओं को बदनाम कर जिनमें असहमति और अनेक विचार पलते या पल सकते हैं, एक विचार-दृष्टि की तानाशाही स्थापित कर दी जाये। आज से पहले इतने कम समय में देश की बौद्धिक संपदा को लांछित करने, उसकी संस्थाओं को लगातार अवमूल्यित करने का अभियान इतना व्यापक और आक्रामक नहीं हुआ था। विचारों के प्रति सदियों से खुला भारत आज अपने ही विचारों और बौद्धिकों-सृजनकर्मियों से डरने लगे तो ऐसा भारत बनाने वाले असली देशद्रोही माने जाने की सुपात्रता रखेंगे। भारतीय राष्ट्र की अवधारणा अपने संवैधानिक रूप में हमारी पंरपराओं से चली आ रही सशक्त बहुलता को समावेशी रूप देकर बनी है। वह भारतीय जीवनदृष्टियों, विचार-सरणियों और जीवनशैलियों से जितना पोषण पाती है उतना ही भारतीय जन से भी। यह दुहराना अनावश्यक होना चाहिए कि हम एक हैं क्योंकि हम अनेक हैं। हम साथ रहे हैं क्योंकि हम हमेशा बहुवचन रहे हैं। यह समावेशिता इतनी छुई-मुई या नाजुक नहीं है कि कुछ युवाओं के कुछ सिरफिरे नारों या अपशब्दों से खतरे में पड़ या घायल-अपमानित हो जाये। ज़ाहिर है कि इस सबको लेकर बेहद राजनैतिक सक्रियता हो रही है। यह लगभग स्वाभाविक है और लोकतांत्रिक भी। क्योंकि अब यह मुद्दा पेश है कि किस तरह का भारत, किस तरह का लोकतंत्र, किस तरह का राष्ट्र हम अपने लिए चाहते हैं। कैसी स्वतंत्रता, कितनी सभ्यता, किस तरह का न्याय होंगे। किसी राजनैतिक दल, किसी संगठन या विचारदृष्टि को इसका हक़ नहीं है कि वह इस मुद्दे को तय करें। उसे इसको लेकर छिड़ गयी बहस में शामिल होने का, अपने विचार रखने का पूरा हक़ है। पर वह यह तय नहीं कर सकता कि बहस का स्वरूप, दिशा या संभावना क्या हो। उसे इस बात का भी हक़ नहीं है – भले वह सत्तारूढ़ और राजकीय शक्ति से लैस ही क्यों न हो – कि वह दूसरों को, समानता और संवाद की शर्तों पर, इस बहस में शिरकत करने से रोके या सीमित करें। विचारों के प्रति सदियों से खुला भारत आज अपने ही विचारों और बौद्धिकों-सृजनकर्मियों से डरने लगे तो ऐसा भारत बनाने वाले असली देशद्रोही माने जाने की सुपात्रता रखेंगे। उसके अनुयायी कम हैं इससे किसी विचार, आस्था या दृष्टि की वैधता या मूल्य कम नहीं हो जाते। जनसत्ता के कॉलम कभी—कभार से


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