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तमाम समस्याओं के बावजूद सरकार चाहती है, इसलिए खुश रहना सीख लीजिए!

खरी-खरी            Apr 08, 2016


hemant-palहेमंत पाल। मध्यप्रदेश के लोगों को अब खुश रहने की आदत डालना होगी! वे खुश हों या न हों, दिखाना तो होगा कि वे खुश भी हैं और खुशहाल भी! इसलिए कि राज्य सरकार ने 'खुशहाली मंत्रालय' खोलने की घोषणा जो की है। मुख्यमंत्री को उम्मीद है कि मंत्रालय खोलने से ही लोग अपने दर्द भूलकर खुश हो जाएंगे। लेकिन, मंत्रालय खोल देने से लोगों के बुझे चेहरों पर ख़ुशी लाना मुमकिन नहीं है! दरअसल, ये लॉफिंग क्लब जैसा ही प्रयोग है, जिसमें लोग गोला बनाकर खड़े हो जाते हैं और बेवजह ठहाका लगाते हैं। भूटान के 'हैप्पीनेस इंडेक्स' की देखा-देखी किए जाने वाले प्रयोग से लोग खुश होंगे, इसमें संदेह है। भारत के छोटे से पडोसी देश भूटान ने 1972 में 'हैप्पीनेस इंडेक्स' मॉडल तय किया था। वहाँ जीडीपी (ग्रॉस डोमेस्टिक प्रॉडक्ट) बजाए लोगों की खुशियों को देश की समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। इसी मॉडल से प्रभावित होकर मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने भी 'मिनिस्ट्री ऑफ हैप्पीनेस' (खुशियों का मंत्रालय) बनाने की घोषणा कर दी! कहा गया कि इस मंत्रालय के जरिए लोगों को जीवन से तनाव दूर करने और खुश रहने के उपाय बताए जाएंगे।शिवराज सिंह चौहान का कहना है कि मनुष्य के जीवन में भौतिक खुशहाली और समृद्धि से आनंद नहीं आ सकता। सरकार के इस 'हैप्पीनेस मंत्रालय' का मकसद लोगों को निराशा में आत्महत्या जैसे कदम उठाने से रोकना है, ताकि समाज में सकारात्मकता बनी रहे। किसी भी राज्य की खुशहाली का आकलन सिर्फ भौतिक विकास से नहीं किया जा सकता। इसलिए इस मंत्रालय का गठन किया जा रहा है। जल्दी ही कैबिनेट की बैठक में 'हैप्पीनेस मंत्रालय' के गठन के प्रस्ताव को पारित कर दिया जाएगा। मुख्यमंत्री ने कहा कि प्रस्तावित मंत्रालय द्वारा लोगों के जीवन में खुशियां लाने के लिए योग, ध्यान, सांस्कृतिक आयोजन जैसे सभी उपाय किए जाएंगें। सबसे पहले शहरों में रहने वाले बच्चों पर हैप्पीनेस मंत्रालय अपने प्रयोग करेगा! इसके तहत छात्रों को खुश रखने के लिए योग, ध्यान और सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जाएगा! सरकार की ये घोषणा एक उम्मीद जागती है। लेकिन, सिर्फ खुशियों का मंत्रालय बना देने से खुशहाली नहीं आ जाती! मंत्रालयों के कामकाज के नतीजे इतने असरदार होते, तो महिला एवं बाल कल्याण विभाग अभी तक बच्चों और महिलाओं का कल्याण कर चुका होता। ग्रामीण विकास का नया अध्याय लिखा जा चुका होता। शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे मंत्रालयों से किसी को कोई शिकायत ही नहीं होती।किसानों के तो वारे-न्यारे हो गए होते। जबकि, न महिलाओं और बच्चों का भला हुआ और न ग्रामीणों के विकास की दिशा में ही कोई ठोस काम हुआ है! सरकारी स्कूलों और सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा से सभी वाकिफ हैं! मौसम से प्रभावित किसान लगातार आत्महत्या कर रहे हैं। बलात्कार के मामले में भी मध्यप्रदेश सबसे ऊपर है। इस तरह की लोक लुभावन घोषणा से प्रदेश में खुशहाली आए या न आए, सरकार पर आर्थिक दबाव जरूर बढ़ेगा। ऐसी ही एक घोषणा प्रदेश के एक पूर्व मुख्यमंत्री श्यामाचरण शुक्ल ने भी की थी। उन्हें भिखारियों के कल्याण की सूझी तो उन्होंने गांधी जयंती के दिन आदेश जारी करके भीख मांगने पर प्रतिबंध लगा दिया था। लेकिन, हुआ कुछ नहीं। न तो भीख माँगना रुका और भिखारी कम हुए! दुनिया के कई देशों में लोगों के जीवन में खुशहाली लाने के काम वहाँ की सरकारें कर रही हैं! लेकिन, ये प्रयोग शुरू करने से पहले इन सरकारों के मंत्रालयों ने अपने दायित्व गंभीरता से निभाए। इसके बाद ही ये कोशिश शुरू हुई कि अब लोगों के निजी जीवन की कठिनाइयों को हल किया जाए। जबकि, आज मध्यप्रदेश में हर व्यक्ति भ्रष्टाचार, महंगी होती बिजली, एक-एक बाल्टी पानी, छोटी-छोटी नौकरी और अफसरशाही की अकड़ से जूझ रहा है। ऐसे में सरकार के इस प्रयोग के बाद कोई खुलकर हँस भी सकेगा, ये कहना मुश्किल है। सरकार का खुशहाली मंत्रालय बनाने का फैसला वास्तव में 'लाफिंग क्लब' जैसा प्रयोग है। सुबह साथ घूमने वाले लोग अपना तनाव दूर करने के लिए जिस तरह एक साथ खड़े होकर बेवजह हंस लेते हैं! उसी तरह सरकार को लगा होगा कि वो भी लोगों को हंसने के लिए मजबूर कर सकती है। जिनके जीवन में तनाव, अभाव और हर वक़्त चिंता हो, उनकों खुश करने में बरसों लग जाएंगे। अपनी वाहवाही के लिए सरकार कुछ समय बाद आंकड़ें दिखाकर अपनी सफलता का जश्न जरूर मना ले, पर वो सच नहीं होगा। इस तरह के मंत्रालय की घोषणा करके शायद सरकार की कोशिश लोगों का समस्याओं से ध्यान हटाने की होगी। बेहतर होता कि सरकार लोगों की मूलभूत समस्याओं जैसे बिगड़ती आर्थिक स्थिति, किसानों की हालत, बेरोजगारी खत्म करने की दिशा में सार्थक कदम उठाती! यदि ऐसा किया होता तो खुशहाली के लिए अलग मंत्रालय नहीं बनाना पड़ता। खुशहाली अपने आप आ जाती। महिलाओं से जुड़े अपराधों को देखें तो मध्यप्रदेश का देश में नंबर अव्वल है। बीते एक साल में 4744 महिलाओं के साथ बलात्कार के मामले दर्ज हुए। इनमें 2552 लड़कियां नाबालिग थीं। बाल मृत्यु दर में भी मध्यप्रदेश असम के साथ सबसे ऊपर है। प्रति हज़ार बच्चों में 54 बच्चे ऐसे होते हैं, जो सालभर भी जीवित नहीं रह पाते! मातृ मृत्यु अनुपात में भी प्रदेश की स्थिति ख़राब है। एक लाख महिलाओं में से 221 की प्रसव के दौरान मौत हो जाती है। जबकि, देश में इसका अनुपात 167 है। शिक्षा के क्षेत्र में भी हालात बेहतर नहीं है। देश में सबसे ज्यादा महंगा पेट्रोल मध्यप्रदेश में ही है। क्योंकि, यहाँ 31 प्रतिशत 'वेट' वसूल किया जाता है। ये वो हालात हैं, जिनके कारण मध्यप्रदेश अन्य राज्यों से बहुत पीछे है। ऐसे हालात में लोगों से कहा जाए कि ख़ुश रहो, तो ये कैसे संभव है? प्राकृतिक आपदा से प्रभावित किसान मुआवजे न मिलने से परेशान हैं। उन्हें बिजली भी पर्याप्त नहीं मिल रही। खाद की कमी से किसान जूझता रहता है, बाजार में नकली बीज भरे पड़े हैं। कर्ज से किसान दबा जा रहा है। आम आदमी महंगाई से परेशान है। इस सबके बाद भी कहा जाए कि खुश हो जाओ, मुस्कुराओ तो ये संभव है क्या? आख़िर किस तरह से कोई सरकार एक मंत्रालय के ज़रिए लोगों की खुशहाली का ध्यान रख सकेगी? जबकि, ये हर मंत्रालय की जिम्मेदारी है। इस नए प्रस्तावित मंत्रालय से लोगों को कोई उम्मीद नज़र नहीं आ रही। अंत में एक बात ये भी कि खुशहाली का समृद्धता से कोई वास्ता नहीं होता। यदि इस आधार पर दुनिया का कोई देश सबसे खुशहाल होता तो वह निश्चित रूप से अमेरिका होता। क्योंकि, अमेरिका में प्रति व्यक्ति औसत आय 53,750 डॉलर पीपीपी (परचेजिंग पॉवर पैरिटी) है। जबकि, डेनमार्क की प्रति व्यक्ति औसत आय 44,950 डॉलर और भारत की प्रति व्यक्ति औसत आय 5350 डॉलर है। लेकिन, खुशहाली की फेहरिस्त में डेनमार्क सबसे ऊपर है। अमेरिका का नंबर 13वां और भारत का 118 वां है। इसलिए गुदगुदाकर किसी को थोड़ी देर तो हंसाया जा सकता है, पर ये दिल से निकली ख़ुशी नहीं होगी। यदि सरकार लोगों को निजी जीवन में ख़ुशी देना चाहती है, तो उसे पहले अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाना होगी। इसके बाद लोगों की निजी जिंदगी में झांककर दुःख दूर करने की कोशिश करना चाहिए। (लेखक 'सुबह सवेरे' के राजनीतिक संपादक हैं)


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