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नहाने वालों को यह खयाल क्यों नहीं आता कि क्षिप्रा जलहीन कैसे हो गईं?

खरी-खरी            Apr 16, 2016


rakehs-dewanराकेश दीवान। कहा जा रहा है कि कुंभ में करीब पांच करोड धर्मप्राण लोग डुबकी लगाएंगे। मालवा के पठार के एक आमफहम-से शहर उज्जैन में सुदूर निचले इलाकों से उठाकर लाई गई नर्मदा के पानी से लबालब क्षिप्रा में नहाने वाले इन लोगों को कभी यह खयाल नहीं आता कि उनके देखते-देखते क्षिप्रा जलहीन कैसे हो गईं? क्या उन्हें यह शर्मनाक नहीं लगता कि क्षिप्रा के इस पानी को भी पीने, नहाने योग्य बनाने के लिए दिल्ली की एक कंपनी को नौ करोड रुपए दिए गए हैं जिनसे शहर की पांच जगहों पर जल-संशोधन यंत्र लगाए जाऐंगे? क्षिप्रा के तट पर बसे उज्जैन को अभी पिछली बरसात की बाढ़ कैसे भुला गई जिसकी चपेट में अपने मंदिरों, पूजास्थलों समेत पूरा शहर ही आ गया था? और सबसे जरूरी विदर्भ, मराठवाडा और मध्यप्रदेश-उत्तरप्रदेश में बसे बुंदेलखंड जैसे इलाकों को कोई कैसे भूल सकता है जहां पानी की बूंद-बूंद जिंदा रहने की शर्त बन गई है? कुंभ तो यही बताने के लिए आता है न कि हम अपने-अपने घटिया, घिनौने निजी स्वार्थों को तिलांजलि देकर संसार की सोचें? क्या कोई धर्म और उसे प्राया‍ेजित करने, करवाने वाले धर्मधुरीणों को ये मामूली से सवाल बेचैन नहीं करते? पांच करोड एक बेहद बडी संख्या है और यदि यह इंसानी बिरादरी से जुड जाए तो क्या नहीं कर सकती? क्या इतने सारे आदमजात मिलकर किसी भी नदी को पुनर्जीवित नहीं कर सकते? खासकर जब हमारे पास राजस्‍थान का उदाहरण है जहां के निरक्षर ग्रामीणों ने अपनी मशक्कत से पांच, जी हां पांच नदियों को पुनर्जीवित कर दिखाया है। उत्तराखंड के सच्चिदानंद भारती का अभिनंदन करने वाली मध्यप्रदेश सरकार उनके वृक्ष लगाने और नतीजे में जलधाराओं के फूटने के काम का चौथाई भी कर लेती तो संभवत: अपनी तीन पारियों के सत्ता-सुख के नतीजे की तरह क्षिप्रा को जलवान बना सकती थी। नदियों में डुबकी लगाने का एक अर्थ यह भी है कि पानी की तरह तरल होकर अपनी रोजमर्रा की आमदरफ्त से थोडा ऊपर उठ सकें। पांच करोड लोग ऐसा कर पाते तो क्या कमाल हो जाता? अलबत्‍ता, धंधे की तरह अपने यहां धर्म भी प्रतिष्ठित हो गया है। सरकारें पर्यटन उद्योग बढाने में लगी हैं और बाकी के व्यापारी अपनी-अपनी दुकानों, डिपार्टमेंटल स्टोरों की मार्फत धंधा जमा रहे हैं। ऐसे में धर्म और इसे मानने वालों से कैसे कोई उम्मीद की जा सकती है? आखिर जिस धर्म की दो-दो पीठों के अधिष्ठाता शंकराचार्य अपनी कुल ऊर्जा साईबाबा को नेस्त-नाबूद करने में लगा रहे हों उससे कोई मूर्ख ही उम्मीद कर सकता है? लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और यह आलेख उनके फेसबुक वॉल से लिया गया है।


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