पुण्य प्रसून बाजपेयी
दो दिन बाद संसद के बजट सत्र की शुरुआत राष्ट्रपति के अभिभाषण से होगी, जिस पर संसद की ही नहीं बल्कि पूरे देश की नजर होगी आखिर मोदी सरकार की किन उपलब्धियों का जिक्र राष्ट्रपति करते हैं और किन मुद्दों पर चिंता जताते हैं? क्योंकि पहली बार जाति या धर्म से इतर राष्ट्रवाद ही राजनीतिक बिसात पर मोहरा बनता दिख रहा है और पहली बार आर्थिक मोर्चे पर सरकार के फूलते हाथ पांव हर किसी को दिखायी भी दे रहे हैं। साथ ही संघ परिवार के भीतर भी मोदी के विकास मंत्र को लेकर कसमसाहट पैदा हो चली है। यानी 2014 के लोकसभा चुनाव के दौर के तेवर 2016 के बजट सत्र के दौरान कैसे बुखार में बदल रहे है यह किसी से छुपा नहीं है, कारपोरेट सेक्टर के पास काम नहीं है।
औघोगिक सेक्टर में उत्पादन सबसे निचले स्तर पर है। निर्यात सबसे नीचे है। किसान को न्यूनतम समर्थन मल्य तो दूर बर्बाद फसल के नुकसान की भरपाई भी नहीं मिल पा रही है। नये रोजगार तो दूर पुराने कामगारों के सामने भी संकट मंडराने लगा है। कोयला खनन से जुड़े हजारों हजार मजदूरों को काम के लाले पड़ चुके हैं। कोर सेक्टर ही बैठा जा रहा है तो संघ परिवार के भीतर भी यह सवाल बडा होने लगा है कि प्रधानमंत्री मोदी ने विकास मंत्र के आसरे संघ के जिस स्वदेशी तंत्र को ही हाशिये पर ढकेला और जब स्वयंसेवकों के पास आम जनता के बीच जाने पर सवाल ज्यादा उठ रहे हैं और जवाब नहीं है तो फिर उसकी राजनीतिक सक्रियता का मतलब ही क्या निकला।
दरअसल मोदी ही नहीं बल्कि उससे पहले मनमोहन सिंह के कार्यकाल से ही राजनीतिक सत्ता में सिमटते हर संस्थान के सारे अधिकार महसूस किये जा रहे थे। यानी संस्थानों का खत्म होना या राजनीतिक सत्ता के निर्देश पर काम करने वाले हालात मनमोहन सिंह के दौर में सीबीआई से लेकर सीवीसी और चुनाव आयोग से लेकर यूजीसी तक पर लगे। लेकिन मोदी के दौर में संकेत की भाषा ही खत्म हुई और राजनीतिक सत्ता की सीधी दखलंदाजी ने इस सवाल को बड़ा कर दिया कि अगर चुनी हुई सत्ता का नजरिया ही लोकतंत्र है तो फिर लोकतंत्र के चार खम्भों के बारे में सोचना भी बेमानी है।

इसलिये तमाम उलझे हालातों के बीच जब संसद सत्र भी शुरु हो रहा है तो यह खतरा तो है कि राष्ट्रपति के अभिभाषण के वक्त ही विपक्ष बायकाट ना कर दे और सड़क पर भगवा ब्रिगेड ही यह सवाल ना उठाने लगे कि नेहरु माडल पर चलते हुये ही अगर मोदी सरकार पूंजी के आसरे विकास की सोच रही है तो फिर इस काम के लिये किसी प्रचारक के पीएम बनने का लाभ क्या है। यह काम तो कारपोरेट सेक्टर भी आसानी से कर सकता है। सही मायने में यही काम तो मनमोहन सिंह बतौर पीएम से ज्यादा बतौर सीईओ दस बरस तक करते रहे।
यानी पेट का सवाल। भूख का सवाल। रोजगार का सवाल। किसान का सवाल। हिन्दुत्व का सवाल। हिन्दुत्व को राष्ट्र से आगे जिन्दगी जीने के नजरिये से जोड़ने का सवाल। मानव संसाधन को विकास से जोड़ कर आदर्श गांव बनाने की सोच क्यों गायब है यह सवाल संघ परिवार के तमाम संगठनो के बीच तो अब उठने ही लगे है। किसान संघ किसान के मुद्दे पर चुप है। मजदूर संघ कुछ कह नहीं सकता। तोगडिया तो विहिप के बैनर तले राजस्थान में किसानों के बीच काम कर रहे हैं।

यानी मोदी सरकार के सामने अगर एक तरफ संसद के भीतर सरकार चल रही है यह दिखाने-बताने का संकट है तो संसद के बाहर संघ परिवार को जबाब देना है कि जिन मुद्दों को 2014 लोकसभा चुनाव के वक्त उठाया वह सिर्फ राजनीतिक नारे नहीं थे। असर मोदी सरकार के इस उलझन का ही है कि बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह भी अब संघ के राजनीतिक संगठन के तौर पर सक्रिय ऐसे वक्त हुये जब संसद शुरु होने वाली है। यानी टकराव सीधा नजर आना चाहिये इसे संघ परिवार समझ चुका है, इसलिये पीएम बनने के बाद मोदी के ट्रांसफरमेशन को वह बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है और ध्यान दे तो संघ की राष्ट्रभक्ति की ट्रेनिंग का ही असर रहा कि नरेन्द्र मोदी ने 2014 के चुनाव में राइट-सेन्टर की लाइन ली।

पाकिस्तान को ना बख्शने का अंदाज था। किसान-जवान को साथ लेकर देश को आगे बढाने की सोच भी थी। कारपोरेट और औघोगिक घरानों की टैक्स चोरी या सरकारी रियायत को बंद कर आम जनता या कहे गरीब भारत को राहत देने की भी बात थी। यानी संघ परिवार के समाज के आखिरी व्यक्ति तक पहुंचने की सोच के साथ देशभक्ति का जुनून मोदी के हर भाषण में भरा हुआ था,लेकिन बीते दो बरसों में राइट-सेन्टर की जगह कैपिटल राइट की लाइन पकडी और पूंजी की चकाचौंध तले अनमोल भारत को बनाने की जो सोच प्रधानमंत्री मोदी ने अपनायी उसमे सीमा पर जवान ज्यादा मरे और घर में किसान ने ज्यादा खुदकुशी की।

नवाज शरीफ से यारी ने कट्टर राष्ट्रवाद को दरकिनार कर संघ की हिन्दू राष्ट्र की थ्योरी पर सीधा हमला भी कर दिया। लेकिन इसी प्रक्रिया में स्वयंसेवकों की एक नयी टीम ने हर संस्थान पर कब्जा शुरु भी किया और मोदी सरकार ने मान भी लिया कि संघ परिवार उसके हर फैसले पर साथ खड़ा हो जायेगी क्योंकि मानव संसाधन मंत्रालय से लेकर रक्षा मंत्रालय और पेट्रोलियम मंत्रालय से लेकर कृषि मंत्रालय और सामाजिक न्याय मंत्रालय में संघ के करीबी या साथ खडे उन स्वयंसेवकों को नियुक्ति मिल गई जिनके जुबा पर हेडगेवार-गोलवरकर से लेकर मोहन भागवत का गुणगान तो था लेकिन संघ की समझ नहीं थी, संघ के सरोकार नहीं थे।
विश्वविद्यालयों की कतार से लेकर कमोवेश हर संस्धान में संघ की चापलूसी करते हुये बडी खेप नियुक्त हो गई जो मोदी के विकास तंत्र में फिट बैठती नहीं थी और संघ के स्वयंसेवक होकर काम कर नहीं सकती थी,फिर हर नीति, हर फैसले, हर नारे के साथ प्रधानमंत्री मोदी का नाम चेहरा जुडा, तो मंत्रियों से लेकर नौकरशाह का चेहरा भी गायब हुआ और समझ भी।

पीएम मोदी सक्रिय हैं तो पीएमओ सक्रिय हुआ। पीएमो सक्रिय हुआ तो सचिव सक्रिय हुये। सचिव सक्रिय हुये तो मंत्री पर काम का दबाब बना। लेकिन सारे हालात घूम-फिरकर प्रदानमंत्री मोदी की सक्रियता पर ही जा टिके। जिन्हें 365 दिन में से सौ दिन देश में अलग—अलग कार्यक्रमों में व्यस्त रखना नौकरशाही बखूबी जानती है। फिर विदेशी यात्रा से मिली वाहवाही 30 से 40 दिन व्यस्त रखती ही है। तो देश के सवाल जो असल तंत्र में ही जंग लगा रहे हैं और जिस तंत्र के जरीये अपनी योजनाओं को लागू कराने के लिये सरकार की जरुरत है वह भी संकट में आ गये तो उन्हें पटरी पर लायेगा कौन?
मसलन एक तरफ सरकारी बैक तो दूसरी तरफ बैक कर्ज ना लौटाने वाले औघोगिक संस्थानों का उपयोग। यानी जो गुस्सा देशभक्ति के भाव में या देशद्रोह कहकर हैदराबाद यूनिवर्सिटी से लेकर जेएनयू तक में निकल रहा है। उसको देखने का नजरिया चाह कर भी छात्रों के साथ नहीं जुड़ेगा। यानी यह सवाल नहीं उटेगा कि छात्रों के सामने संकट पढाई के बाद रोजगार का है। बेहतर बढाई ना मिल पाने का है। शिक्षा में ही 17 फिसदी कम करने का है। शिक्षा मंत्री की सीमित समझ का है। रोजगार दफ्तरों में पड़े सवा करोड आवेदनों का है। साठ फीसदी कालेज प्रोफेसरों को अंतराष्ट्रीय मानक के हिसाब से वेतन ना मिलने का है। सवाल राजनीतिक तौर पर ही उठेंगे।

यानी हैदराबाद यूनिवर्सिटी के आईने में दलित का सवाल सियासी वोट बैक तलाशेगा। तो जेएनयू के जरीये लेफ्ट को देशद्रोही करारते हुये बंगाल और केरल में राजनीतिक जमीन तलाशने का सवाल उठेंगे। या फिर यह मान कर चला जायेगा कि अगर धर्म के साथ राष्ट्रवाद का छौक लग गया तो राजनीतिक तौर पर कितनी बडी सफलता बीजेपी को मिल सकती है । और चूंकि राजनीतिक सत्ता में ही सारी ताकत या कहे सिस्टम का हर पूर्जा समाया हुआ बनाया जा रहा है तो विपक्षी राजनीतिक दल हो या सड़क पर नारे लगाते हजारों छात्र या तमाशे की तर्ज पर देश के हालात को देखती आम जनता। हर जहन में रास्ता राजनीतिक ही होगा।
इससे इतर कोई वैकल्पिक सोच उभर सकती है या सोच पैदा कैसे की जाये यह सवाल 2014 के एतिहासिक जनादेश के आगे सोचेगा नहीं और दिमाग 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले दिनो की गिनती करने लगेगा। यानी सवाल यह नहीं है कि संघ परिवार अब सक्रिय हो रहा है कि मोदी फेल होते हैं तो वह फेल ना दिखायी दे। या फिर कांग्रेस हो या अन्य क्षेत्रिय राजनीतिक दल इनकी पहल भी हर मुद्दे का साथ राजनीतिक लाभ को देखते हुये ही नजर आयेगी।


हालात इसलिये गंभीर हैं क्योंकि संसद का बजट सत्र ही नहीं बल्कि बीतते वक्त के साथ संसद भी राजनीतिक बिसात पर प्यादा बनेगी और लोकतंत्र के चारो पाये भी राजनीतिक मोहरा बनकर ही काम करेंगे। इस त्रासदी के राजनीतिक विकल्प खोजने की जरुरत है इससे अब मुंह चुराया भी नहीं जा सकती। क्योंकि इतिहास के पन्नों को पलटेंगे तो मौजूदा वक्त इतिहास पर भारी पड़ता नजर आयेगा और राजद्रोह भी सियासत के लिये राजनीतिक हथियार बनकर ही उभरेगा। क्योंकि इसी दौर में अंरुधति से लेकर विनायक सेन और असीम त्रिवेदी से लेकर उदय कुमार तक पर देशद्रोह के आरोप लगे। पिछले दिनों हार्दिक पटेल पर भी देशद्रोह के आरोप लगे और अब कन्हैया कुमार पर। लेकिन उंची अदालत में कोई मामला पहले भी टिक नहीं पाया लेकिन राजनीति खूब हुई।
जबिक आजादी के बाद महात्मा गांधी से लेकर नेहरु तक ने राजद्रोह यानी आईपीसी के सेक्शन 124 ए को खत्म करने की खुली वकालत यह कहकर की अंग्रेजों की जरुरत राजद्रोह हो सकती है। लेकिन आजाद भारत में देश के नागरिकों पर कैसे राजद्रोह लगाया जा सकता है। बावजूद इसके संसद की सहमति कभी बनी नहीं। यानी देश की संसदीय राजनीति 360 डिग्री में घूम कर उन्हीं सवालों के दायरे में जा फंसी है जो सवाल देश के सामने देश को संभालने के लिये आजादी के बाद थे।
इसी कडी में 2014 के जनादेश को एक एतिहासिक मोड माना गया । इसलिये मौजूदा दौर के हालात में अगर मोदी फेल होते हैं तो सिर्फ एक पीएम का फेल होना भर इतिहास के पन्नों में दर्ज नहीं होगा बल्कि देश फेल हुआ दर्ज यह होगा और यह रास्ता 2019 के चुनाव का इंतजार नहीं करेगा।
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