हेमंत कुमार झा।
लालू जी जब मुख्य मंत्री थे तब हम अक्सर उन्हें निवेश आकर्षित करने वाली यात्राएं करते देखते सुनते थे। हुआ कुछ नहीं। उल्टे, उनके और राबड़ी जी के पंद्रह वर्षों के शासन काल में बिजनेस के मामले में बिहार उजाड़ हो गया। 1998 में पटना से निकलने वाली मासिक पत्रिका 'समकालीन तापमान' की एक रिपोर्ट में मुजफ्फरपुर और पटना से व्यवसायियों के पलायन पर एक रिपोर्ट पढ़ने के बाद मेरा मन अजीब सा हो गया था यह सोच कर कि कोई राज्य इतने अराजक प्रशासनिक माहौल में सांस कैसे ले सकता है।
जाहिर है, उस दौर में बिहार में व्यवसाय सांस नहीं ले पा रहा था बल्कि उसका दम घुट रहा था।
उसके बाद नीतीश जी आए। निश्चित रूप से बिहार में अपराध के संगठित तंत्र पर अंकुश लगा लेकिन अर्द्ध शहरी क्षेत्रों और ग्रामीण इलाकों में रंगदारी बदस्तूर कायम रही। रंगदारी और निवेश एक दूसरे के विरोधी बिंदु पर अवस्थित रहते हैं। इस कारण अर्द्ध शहरी और ग्रामीण इलाकों में सड़कें जरूर बनी, बिजली की स्थिति भी सुधरी, लेकिन निवेश नहीं आया।
निवेश नहीं आया तो नहीं ही आया।
पलायन बदस्तूत जारी रहा। जो नौजवान ऊर्जावान थे, जिनमें विजन था, जो गांवों, कस्बों में छोटा मोटा बिजनेस खड़ा कर खुद तो आर्थिक रूप से सक्षम हो ही सकते थे, अपने साथ चार-छह और लोगों को जोड़ कर उन्हें रोजगार दे सकते थे, वे भी बिहार से पलायन ही करते रहे। कारण...उनके इलाके में रंगदारी।
रंगदारी और रंगदारी टैक्स...बिहार की पहचान है।
चाहे लालू राज हो या नीतीश राज, बिहार के अधिकतर थानों में रंगदारों को प्रोटेक्शन देने वाले छुटभैए पुलिस अधिकारी बने रहे। ऐसे पुलिस जी लोग किसी शरीफ से इस टोन में बात करते हैं कि अगले को कभी थाना जाने के नाम से ही मन झुरझुरा जाए। लेकिन, छोटे मोटे रंगदार टाइप लोग शान से थाने से कनेक्शन रखते हुए निर्बलों, शरीफों पर अपनी धौंस जमाए रखते रहे।
बिहार में कोई बड़ा उद्योग खुले, इसकी सिर्फ उम्मीद जताई राजनीतिज्ञों ने। इक्के दुक्के के अलावा इन मामलों में बिहार सुनसान ही रहा। लघु उद्योग को लीलने के लिए छूटभईए रंगदार सदैव तत्पर रहे। कस्बों, गांवों में जहां किसी का कोई छोटा मोटा व्यवसाय फला फूला, उसके पास रंगदारी टैक्स का संदेशा पहुंचा..."चिन्हैई नय छहीं...?"
बिहार की भयानक बेरोजगारी को कस्बाई लघु उद्योग और व्यवसाय के प्रोत्साहन से चुनौती दी जा सकती थी, लेकिन, इस मामले में हमारी कानून व्यवस्था लचर रही। नतीजा सामने है। जो नौजवान यहां कुशल उद्यमी बन कर कुछ और साथियों को भी अपने साथ रोजगार दे सकता था वह स्वयं बाहर के किसी महानगर में श्रमिक बन कर किसी तरह जी रहा है।
मार देब गोली केहू न बोली..., हमर सिक्सर के छौ गोली छाती में रे..., मार देब कट्टा कपार में...आदि आदि गाने बिहार में खूब खूब लोकप्रिय हैं और बिहारी ग्रामीण आयोजनों में अश्लील गीतों के साथ ऐसे गाने भी खूब बजते हैं। सार्वजनिक तौर पर कट्टा लहराते नाचते लफंदरों के वीडियो अक्सर वायरल होते रहते हैं। ऐसे वीडियो भी खूब देखे जाते हैं यहां। लफंदरों को रंगदार में प्रोन्नत होने में ऐसे विडियोज बहुत काम आते हैं। अचानक से इलाके में सिक्का जो जम जाता है। ऐसे मामलों में सख्त पुलिसिया कार्रवाई के उदाहरण कम ही मिलते हैं।
बिहार उन अभागे राज्यों में शामिल है जहां का कनविक्सन रेट देश में सबसे कम है। लगभग छह प्रतिशत मात्र। यानी चौरानबे प्रतिशत अपराधों में अपराधी फाइनली फ्री हो कर समाज को आतंकित करने के लिए पुनः तत्पर हो जाता है। यह रेट देश ही नहीं, संभवतः दुनिया के तमाम सभ्य देशों में सर्वाधिक है।
जिन अर्थों में जंगल राज जैसा शब्द लालू राज पर आरोपित किया गया, नीतीश राज में भी कनविक्सन रेट को देखते हुए इस आरोप से मुक्त नहीं कर सकते।
जब तक कस्बाई इलाकों की कानून व्यवस्था को सख्ती से नहीं लिया जाता, अपराध प्रमाणित कर सजा दिलाने की दर नहीं बढ़ती, जब तक रंगदारी समाज में सम्मान का पर्याय बनी रहेगी, जब तक छोटे मोटे उद्यमी पुलिस में किसी रंगदार की शिकायत करते घबराते रहेंगे...बिहार इसी तरह भयानक बेरोजगारी और प्रशासनिक अराजकता का शिकार बना रहेगा। बेहतर पुलिसिंग और त्वरित एवं प्रभावी न्याय के सिस्टम को डेवलप करने का कोई विकल्प नहीं है। धानुक, पंडित, राजपूत, यादव आदि के समीकरण बिठाते कभी कोई पार्टी सत्ता में आ जाएगी, कभी कोई, लेकिन बिहार की आत्मा कलपती ही रहेगी।
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिए प्रोफेसर हैं।
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