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यदि रजनीशपुरम libertarian था तो क्या वह मुल्क ब्रॉडमाइंडेड नहीं था

खरी-खरी            Dec 12, 2022


मनोज श्रीवास्तव।

नेटफ्लिक्स पर एक डॉक्यूमेंट्री सीरीज़ आई है। निर्देशक हैं मैक्लेन एवं चैपमैन बंधु। नाम है- वाइल्ड वाइल्ड कंट्री। नाम से आपको लगेगा कि वे हमारी आरण्यक सभ्यता वाले देश की बात कर रहे हैं पर नहीं, वे तो ओरेगॉन की बात कर रहे हैं।

यहाँ आरण्यक संस्कृति से आए हुए एक व्यक्ति को जंगली सिद्ध करने की बारीक कोशिश की गई है। अरण्य तो ध्यान के लिए थे। अरण्य का संगीत। पेड़ों के झुरमुट में पत्तियों की सरसराहट। नदी की कल-कल।सूरज की किरनों की छुअन। चॉंदनी का बरसना।

इसलिए आरण्यकता में आश्रम थे, क्योंकि अश्रम था, विश्राम था। पर वाइल्ड वाइल्ड कंट्री सीरीज़ उसे कहाँ पकड़ सकी। यह सीरीज़ इस बात का उदाहरण है कि ओशो को उस मुल्क में एडमिनिस्टर किया गया।

थैलियम या फ्लूरोकॉर्बन या जो भी उस सब्सटेंस का नाम हो, अंतिम नहीं था।

उनके यश-शरीर के विरूद्ध हमारी रक्तधारा में, हमारी ब्लडस्ट्रीम में यह सीरम प्रवेश कराना क्रमशः जारी है। अभी भी जारी है। अभी तक जारी है।

हम सब उस हल्की सी चुभन की उपेक्षा करके रह जाते हैं। एक prick ही तो है। कई बार नोटिस तक नहीं कर पाते। लेकिन वह अपना काम कर चुकी होती है। ओशो के अनुभव से हम जानते हैं। इसलिए प्रत्यौषधि ढूँढनी ही होगी।

उनकी कीर्तिकाया हम सब की साझी विरासत है, पर वह हम सबकी सामूहिक जवाबदारी भी है।

कभी-कभी हमें यह सोचना भी चाहिए कि ओशो में ऐसा क्या था जो दुनिया के सबसे शक्तिशाली मुल्क को आज तक भी विचलित करता है। ओशो ने उसके किस कंफर्ट को कँपा दिया था?

क्यों रह रह कर उन्हें कभी इस सीरीज़ या कभी उस पुस्तक में यों टीस उठती रहती है। ओशो अपने अनुयायियों के द्वारा न भुलाये गये, वो बात ठीक है और उसके लिए निश्चित आप सब बंधु बधाई के पात्र भी हैं।

पर बड़ी बात यह है कि ओशो को अपना दुश्मन मानने वाले भी उन्हें नहीं भूल सके हैं।

आप लोग उन्हें याद करते हैं, वे उन्हें याद रखते हैं और तरह तरह से उनका अपयशीकरण करने की कोशिश करते रहते हैं।

यदि वे उनके कम्यून को ऐन्द्रिक अति के स्वर्ग की तरह चित्रित करते हैं तो इससे उन्हें क्यों आपत्ति हो जिनका अपना देश उस सेंसुअलिटी में गले गले तक डूबा हुआ है।

ड्रग्स और सेक्स और कसीनो,  विवाहों का औसतन आठ वर्षों तक टिकना,  तलाक़ की सबसे अधिक दर। रेप और टीन एज प्रेग्नेंसीज।

यदि ओशो को इन भोगों के प्रतीक के रूप में ही पेश करना था तो कम से कम उस मुल्क को अपने आचरण और यथार्थ में उस कथित भोगवाद और भोक्तावाद का प्रतिध्रुव प्रस्तुत करना चाहिए था।

जिससे असहमति थी, जिसे जिस रूप में बदनाम किया गया, उसी के हिसाब की जीवनशैली अपनाकर तो आपने उसे विजयी बना दिया।

तब तो ज़रा देखें कि who is having the last laugh.

क्या मज़ाक़ था कि रजनीशपुरम पर बायो-टेररिज़्म के आरोप उस देश ने लगाये जिसने 1943 से बॉयोलॉजिकल वेपन्स प्रोग्राम चला रखा है?

1952 के कोरिया युद्ध के दौरान जो रहस्यमयी बीमारियाँ फैलीं, वे किसके जैवहथियारों का परिणाम थीं? वर्ल्ड पीस कौंसिल की तब की रपट क्या थी?

जोसेफ नीधम के नेतृत्व में बनी समिति के द्वारा इकट्ठा किए गए साक्ष्य क्या कहते थे?

जॉन हॉलिडे और ब्रूस क्यूमिंग्स की पुस्तक ‘ कोरिया: द अननोन वॉर’ 1988 में फिर इन बातों को पुष्ट करती थी। इन दोनों इतिहासकारों में न कोई चीनी था न कोरियाई।

दस साल बाद कनाडा के दो इतिहासकार स्टीफ़न एंडिकॉट और एडवर्ड हैगरमैन ‘ द यूनाइटेड स्टेट्स एंड बॉयोलॉजिकल वारफ़ेयर’ लिखते हैं।

तो कौन किस पर आरोप लगा रहा था? लॉजिकल ओशो को बाहर करने के लिए छल बॉयोलॉजिकल हुए जा रहे थे।

ओशो उन्हें क्यों खल रहे थे? वे तो बड़े टॉलरेंट, बड़े रिसेप्टिव, बड़े इनक्लूसिव राज्य थे।

फिर उन्हें ओशो असह्य कैसे हो गये।

अभी ओशो को निकालने के अस्सी पचासी साल पहले तो वे विश्व धर्म संसद का आयोजन करते थे। बाद में 1993 में भी किया।

सो वहाँ तो दुनिया भर के धर्मोपदेशक आते रहे हैं। यदि रजनीशपुरम amoral था तो क्या वह राज्य स्वयं unconscionable नहीं था?

यदि रजनीशपुरम libertarian था तो क्या वह मुल्क ब्रॉडमाइंडेड नहीं था? तब ये दो तत्कथित समान दिखने वाले दृष्टिकोण आपस में टकरा क्यों गये?

कहीं इसका कारण यह तो नहीं था कि यह समानता दृष्टि के कारण नहीं थी, दृष्टि-भ्रम के कारण ही ऐसी लगी थी।

कि तत्वतः दोनों एक-दूसरे से स्वभाव, संस्कार और संकल्प में भिन्न भिन्न थे। कुछ तो था जिसके चलते शायद ओशो पर चले उस मुक़दमे का नाम यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका विरुद्ध भगवान श्री रजनीश था। विरुद्ध- versus. यह थी स्थिति।

क्या यह इसलिए हुआ कि शुरूआत में जिन ओशो को सेक्स गुरु के रूप में पश्चिमी मीडिया ने चित्रित और प्रचारित कर स्वागत किया, उसे बाद में समझ आया कि यह तो सेक्स के पार ले जाने वाला है।

यह जन्म जन्म का यात्री रहा है। यह सेक्स पर टिकने वाला, वहीं खूँटा गाड़ लेने वाला नहीं है।

जब इसने पहली पहली ‘ संभोग से समाधि की ओर’ वाली वैचारिक क्रांति की थी, तब भी वह एक यात्रा की बात कर रहा था।

और अब जब वह भारत से यात्रा कर यहाँ आ पहुँचा था तो यहाँ भी वो एक जर्नी की बात कर रहा था।

उसी की ओर लगातार निदेशित कर रहा था। भटका नहीं रहा था। और यह तो आरंभिक स्वागत के क्षण सोचा ही न था।

अन्यथा जिन लोगों को लॉस वेगस स्वीकार था, जिन्हें स्यू के फैंटेसी क्लब से न तब आपत्ति थी न अब है, जिन्हें नेवाडा के मुस्टैंग रांच और शेरी रांच को बेरोकटोक चलने देना था, उन्हें रजनीशपुरम क्यों न सुहाया?

क्योंकि यहाँ तो जीवन की इन सीमाओं को उत्तीर्ण और अतिक्रांत करने की ध्यान-पद्धतियाँ भी सिखाई जा रहीं थीं।

आपत्ति कीचड़ से नहीं थी। आपत्ति कमल से थी। प्रज्ञा के पुंडरीक से थी। उसके खिलने से थी।

ओशो ने जो आलोचना की थी, वही विशेष रूप से क्यों असह्य हो गई थी?

नोम चॉम्स्की से बड़ा आलोचक आज कौन है उस राज्य का? या उस स्टेट के दूसरे सबसे बड़े आलोचक हॉवर्ड जिन को भी सहा गया।

पर तब ओशो को लेकर ही इतना विद्वेष क्यों था? क्या यह इसलिए था कि चॉम्स्की और जिन दोनों इनसाइडर थे, और वे हद से हद एक denunciationका, एक गर्हणा का, एक परिनिंदा का ही प्रतिनिधित्व करते हैं लेकिन उस नये नेशन की बाउंड्री कंडीशंस पर हमला नहीं करते।

 उनकी बात गवर्नेंस की बात है ।

लेकिन एक आउटसाइडर ओशो एक साभ्यतिक चुनौती को exemplify कर रहे थे। वे एक सभ्यतागत अंतिमेत्थम (सिविलाइजेशनल अल्टीमेटम) को रूपायित (epitomise) कर रहे थे।

मैं इस बात को कुछ चीजों की याद दिलाकर स्पष्ट करना चाहूँगा।

याद करें जब रजनीशपुरम पर इमिग्रेशन फ्रॉड का आरोप लगा था तब उन्होंने जो कहा वह उस महाद्वीप के बारे में कुछ आधारमूलों को छिंछोड़ने वाला था।

वहाँ के औसत नागरिक को उनका कथन चोरी और सीनाज़ोरी लगा होगा पर वो ऐसी कड़वी सच्चाई थी जो ओशो ही कह सकते थे।

उन्होंने तब कहा था कि मेरे पास तो फिर भी एक वैलिड वीसा है, पर ये लोग जो आज इस महाद्वीप पर छाये हुए हैं, ये तो बिना किसी वैधता के, बिना किसी सक्षम पूर्वानुमति के घुसे हैं।

यह ओशो का dare था या दुस्साहस? यह defiance वहाँ के बहुमतीय सांस्कृतिक अहंकार को जैसे तोड़ता था, वैसा पहले किसी आध्यात्मिक गुरु ने कभी नहीं किया।

विवेकानंद ने हिन्दुत्व के गौरव की स्थापना की पर ओशो उपनिवेशवाद विरोध के प्लेटफ़ार्म से बोल रहे थे। वह कोई ईक्वलाइजिंग भाषा न थी।

ओशो विवेकानंद नहीं थे। वे उत्तर-विवेकानंद, उत्तर-रामतीर्थ और उत्तर-प्रभुपाद युग के वक्ता थे। इन सभी के उत्तराधिकारी और इन सभी की उत्तरकथा।

सेटलर कॉलोनाइजेशन की आलोचना करने वाले वे पहले भारतीय गुरु थे। विवेकानंद के बारे में कहा जाता है कि वे भारत ने रिवर्स कॉलोनियलिज्म उनसे शुरू किया था।

ओशो रिवर्स कॉलोनाइजेशन कर रहे थे।

उनका रजनीशपुरम वही था। पर सेटलर कॉलोवाइजर किसी दूसरे की बस्ती, उनका सेटलमेंट कैसे स्वीकार कर सकते थे?

और वह भी ऐसी बस्ती जहॉं उनके जीवन-मूल्यों के सतहीपन और खोखलेपन का नित्यप्रति पोलखोल चलता हो।

जो सेटलर कलेक्टिव गौरांग महाप्रभुओं के पश्चात्तापहीन सेटलर कॉलोनाइजेशन के सामने सवाल खड़े करता हो।

ड्रेन उपनिवेशवाद तो फिर भी कभी कभार अपनी गिरेबान में झांक लेता है, कभी-कभी मुआवज़े या क्षतिपूर्ति की चर्चा या बहस कर लेता है।

भले ही उससे यथास्थिति में कोई बड़ा बदलाव न आता हो किन्तु सेटलर उपनिवेशवाद तो वह है जिसकी ऑंखों का पानी सूख चुका है।

वह समझता ही नहीं कि उसे कितने अनुताप की ज़रूरत है।

उसे लगता है कि उसकी परंपरा में जिसे एक मूल पाप कहा गया बस उसी के atonement की ज़रूरत है। या उसकी भी नहीं क्योंकि वह तो उसकी तरफ़ से यीशु ने कर लिया।

लेकिन एक समाज की तरह, एक सभ्यता की तरह, एक संस्कृति के सदस्य होने के नाते कोई उन्मोचन, कोई redemption उसे चाहिए, यह उसकी सोच में ही नहीं आता।

ओशो उसके इस नैतिक अंत:करण को उसकी भयावह मूर्च्छा से जगाने की जुगत कर रहे थे। उन्होंने कहा कि वह राज्य अपने आप को बार बार ‘लैंड ऑफ द फ्री’ कहता है।

आज़ाद लोगों की भूमि। लेकिन सच यह है कि वह सबसे बड़ी दासता है। उन्होंने कहा कि इन तथाकथित अमेरिकियों का नहीं है अमेरिका।

यह तो उन देसी लोगों का है, उन नेटिव्स का है, उन सीधे सादे अबोध रेड इंडियन्स का है। इसलिए वह उन्हें आज़ादी और लोकतंत्र की बात करने वाली सबसे अजीब जगह लगती थी।

जो समस्त भूमि ही जिनकी थी, उन्हें ही वहाँ रिज़र्वेशनों वाले विशेष क्षेत्रों में घेर कर बॉंध दिया गया है।

एक विचित्र जनतंत्र जिसमें भूमि के वास्तविक स्वामियों की कोई सहभागिता नहीं।

जिन्होंने इस धरती के निर्दोष नागरिकों का सबसे निर्मम नरसंहार किया, वे मूलभूत मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और ऐसी ही तमाम बकवास बड़े गर्व सेकरते हैं, यह कहते थे ओशो।

 उनका यह भी कहना था कि अमेरिकियों को सबसे ज़्यादा इर्रिटेटिंग तब लगता है जब मैं कहता हूँ कि इस धरती पर तुम भी उतने ही विदेशी हो जितना मैं हूँ।

फ़र्क़ इतना है कि मैं नया हूँ और तुम पुराने टूरिस्ट हो।

फ़र्क यह भी है कि मेरे पास एक वैलिड वीसा है और तुम गन्स के साथ बलात्प्रवेश करने वाले हो। तुम कैसे अमेरिका के नागरिक हो गये? किसने तुम्हें स्वीकार किया?

यदि तुममें थोड़ा सा भी आत्म-सम्मान है, डिग्निटी है तो तुम्हें अमेरिका छोड़ देना चाहिए।

ये बहुत खरे खरे बहुत उद्दंड कथन थे जिसमें किसी तरह की चाशनी नहीं थी, फ्लैट बात थी, फ्लैटरी न थी।

यह मुँहदेखी न थी, मुँहजोरी थी। इस सपाटबयानी का क़ुसूर यह था कि यह बहुत पर्तों के पीछे बहुत जतन से बचाके सजाके रखी गई उस हक़ीक़त को सामने लाती थी,  जिसके एक लगातार denial से ही उन लोगों की आत्म-छवि बनी रह सकती है।

अपनी जिस नीचता का सामना आईने में नहीं कर सको, उसे दुनिया के सामने आने ही न दो बल्कि वैसा ही आरोप अपने को चुनौती देने वाली सभ्यता पर मढ़के उसे अपनी धोती सँभालने में व्यस्त कर दो।

लेखक सेवानिवृत आईएएस अधिकारी हैं।

 

 



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