श्रीकांत सक्सेना।
आज के एक प्रमुख अख़बार में यह ख़बर प्रकाशित हुई है कि 2011 जनगणना के मुताबिक़ देश में लगभग पौने चार लाख भिखारी हैं और इनमें से 21 प्रतिशत से ज़्यादा बारहवीं पास हैं या इससे भी ज़्यादा पढ़े लिखे हैं।
हम सब जानते हैं कि यह संख्या तो निश्चित ही वास्तविक नहीं है नागरिक राष्ट्र के महत्वपूर्ण संसाधन होते हैं।
जिनकी राष्ट्रहित में उत्पादक भागीदारी और योगदान वांछनीय है।
हाल ही में यूरोप और अमरीका में लाखों शरणार्थी युद्धग्रस्त क्षेत्रों सीरिया आदि से पहुँचे हैं।
और अनेक देशों की सरकारें यह गणना कर रही हैं कि अब से 15 या 20 साल बाद यह शरणार्थी उनकी अर्थव्यवस्था में कितना योगदान करने वाले हैं।
यह भी कि इन लोगों के माध्यम से भविष्य में कितना राजस्व भी मिलेगा।
भारत में मन्दिरों ,गुरुद्वारों,गाँवों और क़स्बों से लेकर महानगरों में अनुमानत: दो करोड़ से ज़्यादा लोग भीख माँगकर राष्ट्र के लिए पूरी तरह अनुत्पादक भूमिका निभा रहे हैं।
इनमें अगर मंदिरों के पंडे पुजारियों और इस अनुत्पादक से जुड़े दूसरे लोगों को जोड़ दें तो ये संख्या कई करोड़ और बढ़ जाएगी।
सरकारी बैंकों से क़र्ज़ा लेकर वापस न करने वालों को भी जोड़ लें तो यह संख्या और भी बढ़ जाएगी।
हम सब जानते हैं कि सड़क पर हाथ फैलाकर एक दो रुपए की भीख मांगने वालों,पंडे पुजारियों और बैंकों से कर्ज़ लेकर भागने वालों में चारित्रिक समरूपता है।
बहुत से राजनेता भी प्रकारांतर से इसी सूची में आते हैं, ऐसे में भारत को भिखारियों का देश कहे तो अचरज कैसा?
बहरहाल देश में रहकर सक्षम होते हुए भी किसी भी प्रकार का उत्पादक योगदान न देने वालों को यदि संसाधनों के नज़रिये से देखा जाए तो बहुत महत्वपूर्ण संसाधनों की आपराधिक बर्बादी का मामला तो बनता ही है।
कोई भी इंसान जो बिना मेहनत किए दूसरों की कमाई पर जी रहा है।
दरअसल भिखारी ही है, सच तो ये है कि बहुत से भगवान भी इसी श्रेणी में आ जाते हैं।
भीख मांगना भारत की प्राच्य परंपरा है, इसे सरकारें प्रोत्साहन देती रही हैं।
भारत का भविष्य इसी कला में हैं भिक्षाम देही ।
सरकार को भिखारियों की संख्या कम करके दिखाने के बजाय असली संख्या बतानी चाहिए।
संभव है इस क्षेत्र में भारत से सीख लेने दूसरे देश आ जाएं और भारत को विश्वगुरु बनने का अवसर मिल जाए।
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