श्रीकांत सक्सेना।
कठोर मौसम,अंतरराष्ट्रीय विरोध और सभी पड़ोसियों से वैमनस्य, ऊपर से एक फ़ीसदी से नीचे घरेलु उत्पाद में बढ़ोत्तरी, कोविड़ का कहर।
मोदी जी से टकराए तो अपने 150 अरब डॉलर भी गंवाए जो भारत से वसूलने है व्यापार घाटे के। लड़ने के मामले चीन का इतिहास वैसे भी बहुत गौरवशाली नहीं है।
1962 में भारत या फिर 1959 में तिब्बत के अलावा कभी कहीं जीतने का मौका नहीं मिला।
भारत के पास एक पराजय के बाद निरंतर विजयों की गाथा है।
1965,1967,1971 और सबसे ऊपर 1999 की कारगिल विजय जिसके बारे में कहा जाता है।
दुनिया की किसी भी फौज के बूते की बात नहीं कि इतनी ऊपर पहाड़ों पर मज़बूत और सुरक्षित दुश्मन को सीधी चढ़ाई चढ़कर ख़त्म कर सके।
ये लगभग नामुमकिन लक्ष्य हासिल करने वाली एकमात्र फौज भारत की ही है।रक्षा विशेषज्ञ मानते हैं ऐसा करना दुनिया की किसी भी फौज के लिए असंभव है।
बहरहाल अभी तक तो ड्रैगन बचाव की मुद्रा में दिखाई दे रहा है, भारत के पास बहुत कुछ खोने को नहीं।
पुराने ज़माने के मोदी यानि चार्वाक बहुत पहले कह गए हैं_कर्ज़ा ले ले खाइए,जब लग घट में प्राण,देने वाला रोएगा मरने पर श्रीमान कि जैसे बाप मरा हो।
हमारी ही तरह चीन के सभी पड़ोसी,ताइवान, अमरीका और पश्चिमी जगत चीन के वर्चस्व को खत्म करना चाहते हैं।
भारत को तो चीन सीमा पर ही नहीं संयुक्त राष्ट्र में भी इसी तरह परेशान करता रहा है।यहां तक कि खतरनाक आतंकियों के पक्ष में veto करके और सुरक्षा परिषद में हमारी दावेदारी को विफल करके भी।
ये सब तब जब उसे संयुक्त राष्ट्र में स्थाई सदस्यता के लिए भारत ने जबरदस्त पैरवी की थी, अमेरिका के विरोध के वाबजूद।
चीन से निपटने का ये सबसे अनुकूल समय है, विदेशी मामलों के मंत्री जयशंकर की दुनियाभर में प्रशंसा हो रही है।
मोदी जी ने बेहतरीन व्यक्ति को चुना है, भारत की प्रतिष्ठा अभूतपूर्व रूप से बढ़ी है। चीन के मामले में तो मियां की जूती मियां का सर।
बाद में मुआवजे में कुछ न भी मिला तो जो हमारे पास है वो तो वापस नहीं करना पड़ेगा पहले ही भारत पर सवा छः सौ अरब डॉलर का कर्ज़ है।
इस बहाने कुछ कम हो जाए तो बुरा क्या है, हो सकता है सीमा पर से भी पीछे हट जाए।या फिर अरुणाचल से दावा छोड़ दे।
अगर चीन हार मान लेता है तो मोदी जी के नाम एक और रिकॉर्ड हो जाएगा 1962 की पराजय के कलंक से भारत को मुक्त करने का सो वीर तुम अड़े रहो, ड्रैगन डरा हुआ है।
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