हेमंत कुमार झा।
कोरोना संकट के दौरान लंबा लॉक डाउन था, स्कूल बंद थे और बच्चों की पढ़ाई एक समस्या बन गई थी। घरों में बंद रहने को मजबूर लोग अपना अधिकतर समय टीवी और मोबाइल पर बिता रहे थे। लोग डरे हुए थे और आगे क्या होगा, इसे लेकर आशंकित थे।
उस दौरान टीवी और मोबाइल पर सबसे अधिक दो तरह के विज्ञापन आ रहे थे, पहला ऑन लाइन पढ़ाई कराने वाली कंपनी बाईजूज का और दूसरा मेडिकल बीमा करवाने वाली कंपनियों का।
उस दौर में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का एक वक्तव्य खासी चर्चा में था और आपसी बोलचाल में एक मुहावरे की तरह इस्तेमाल होने लगा था, "आपदा में अवसर।"
तो, उस अकल्पनीय 'आपदा' के दौर में ऑन लाइन पढ़ाई कराने वाली और मेडिकल बीमा देने वाली कंपनियों ने अपने लिए 'अवसर' को पहचाना और आम लोगों का मनोवैज्ञानिक दोहन कर भारी लाभ कमाने की होड़ में लग गई।
लोग टीवी खोलते थे, मोबाइल खोलते थे, सामने शाहरुख खान हाजिर हो जाते थे, "आप बच्चों की पढ़ाई को लेकर चिंतित हैं? डोंट वरी, बाइजूज है न।
यह आपके बच्चों को ऑन लाइन पढ़ाई करवा कर निजी ट्यूशन का बेहतर विकल्प देगा, मेंटोर बच्चों से पर्सनली बात कर डाउट क्लियर करेंगे...आदि आदि।"
लोगों को लगता था कि घरों में बंद बच्चे ऑन लाइन कोर्स में लगेंगे तो पढ़ाई पटरी पर आएगी। आखिर बदलते दौर के साथ तालमेल बिठाने वाले ही आगे बढ़ते हैं।
लोग कुछ सोच विचार कर ही रहे होते थे कि अचानक से उनके मोबाइल की घंटी बजती थी।
कॉल रिसीव करते ही उधर से कृत्रिम आत्मीयता से भरी आवाज आती थी..."बच्चों की पढ़ाई कैसी चल रही है।" वह बाईजूज कंपनी का एजेंट होता था जिसका काम था ग्राहक जुटाना। पता नहीं, उन्हें कैसे उन लोगों के नंबर मिल जाते थे जिनके स्कूल गोइंग बच्चे होते थे।
लोग फूट पड़ते थे, स्कूल और ट्यूशन के बगैर बच्चों के दिशाहीन होने का रोना रोने लगते थे। फिर वह एजेंट शाहरुख स्टाइल में बोलता था, "डोंट वरी, हम हैं न।"
फिर वह कंपनी से बच्चों को जोड़ने के लाभ तफसील से बताता था, फीस स्ट्रक्चर बताता था और अंत में यह बताना नहीं भूलता था कि अगले साल दो साल तक की एकमुश्त फीस कंपनी ही आपकी तरफ से जमा करवा देगी, आप मासिक किश्तों में बकाया चुका देना।
अपने बच्चों को दुनिया की रेस में आगे देखने की हसरतें पाले मध्य वर्गीय लोग उस एजेंट की बातों में आ जाते थे और उसकी हर शर्ते मानने को तैयार हो जाते थे, मैं भी उनमें से एक था।
वह 2020 का जून या जुलाई का महीना था। बार बार फोन आता था, "मैं फलां कंपनी से फलां बोल रहा हूं। कैसी पढ़ाई चल रही है सूरज और दिव्या की?
तब मेरा बेटा सूरज आठवीं और बेटी दिव्या पांचवी क्लास में पढ़ते थे।
लब्बोलुआब यह कि लंबे ही खिंचते चले जा रहे लॉक डाउन के उस दौर में मैं उस एजेंट की बातों में आ गया।
आनन फानन में एक लाख दस हजार में डील फाइनल हुई और दस हजार एडवांस लेकर बाकी की रकम बारह किश्तों में मेरे एकाउंट से काट लिए जाने का करार हो गया।
जब तक पैसों के भुगतान की प्रक्रिया फाइनल नहीं हुई तब तक फोन पर फोन, कभी एजेंट का, कभी एजेंट के बड़े एजेंट का, कभी उससे भी बड़े एजेंट का।
सबके स्वर शहद से भी मीठे, सबकी बातों में मेरे बच्चों की पढ़ाई को लेकर भारी चिंता। बाजार तमाम एजेंटों को ग्राहकों को फंसाने का गुर सिखा ही देता है।
अपने बच्चों की पढ़ाई को लेकर उन एजेंटों के चिंतातुर स्वरों को सुन कर मैं भी भावुक हो-हो कर उनसे बातें करने लगा था।
लगता था कि अब मेरे बच्चे नए जमाने के साथ कदमताल करेंगे, अच्छी पढ़ाई करेंगे, शाहरुख खान के शब्दों में "मेंटोर तमाम डाउट्स क्लियर करेंगे"।
जब पैसों की डील फाइनल हो गई और एडवांस दे दिया गया, एकाउंट से नियमित कटौती की प्रक्रिया निर्धारित हो गई, तब दोनों बच्चों को दो टैब भेजा गया, जो बताए गए मॉडल से कमतर था।
मैं ने शिकायत की लेकिन अब उन्हें मुझे सुनने की फुर्सत नहीं थी, वे अगले किसी पिता को प्रभावित करने में लग गए होंगे।
निस्संदेह, टैब में वीडियोज के रूप में जो पाठ्य सामग्रियां डाली गई थी वे अच्छी थीं। साथ में कुछ किताबों की शक्ल में स्टडी मेटेरियल्स भी भेजे गए थे।
उसके बाद किसी ने न मुझे कभी फोन किया न मेरे बच्चों को। मेरा नम्बर तो उनके पास था ही, मैं ने बच्चों से डायरेक्ट कॉन्टैक्ट के लिए एक अलग नंबर भी उन्हें दे दिया था।
एकाध महीने के बाद एक दिन शाम को पांच बजे एक महिला का फोन मेरे नंबर पर आया कि बच्चों की पढ़ाई का क्या हाल है। मैं ने उन्हें फिर से वह अलग वाला नंबर लिखा दिया और कहा कि उसी पर बच्चों से बात होगी।
उन्होंने अगले दो तीन महीनों में मुश्किल से एक या दो बार फोन किया और जान बूझ कर शाम को पांच या छह बजे किया, जब बच्चे खेलने के मूड में होते हैं।
फिर, वह फोन आना भी बंद हो गया, इधर से जब मैं कॉल करता तो उधर से कंप्यूटर से कुछ आवाजें आती जो मैं समझ नहीं पाता था।
हालांकि, हर महीने की एक निश्चित तारीख को एक निश्चित रकम मेरे एकाउंट से कट जाया करती थी।
मैं समझ गया कि बाजार ने अपने अक्रामक अंदाज में पहले मुझे प्रभावित कर ग्राहक बना लिया और अब जब पैसों की डीलिंग कर मैं खुद को हार बैठा तो अब मेरा कोई मूल्य उनकी नजर में नहीं।
मैं ने सोचा कि शायद वे महानगरों में रहने वाले ग्राहकों को अधिक तवज्जो देते होंगे और मान कर चलते होंगे कि बिहार जैसे पिछड़े राज्य के एक नामालूम से कस्बे में रहने वाले मेरे जैसे आदमी की बिसात ही क्या है।
पैसा तो ले ही लिया, नियमित कटौती हो हो रही है एकाउंट से, इससे अधिक मुझसे मतलब ही क्या है।
बात रही बच्चों की पढ़ाई की, तो वह उनकी नहीं, मेरी चिंता है।
शिकायत करने की न फुरसत, न मानसिकता रही मेरी, एकाध बार मेंटोर से ऊपर के किसी अधिकारी का फोन आया तो मैं ने जलेभुने शब्दों में अपनी शिकायत दर्ज कराई।
उसने आश्वस्त किया लेकिन फिर न कोई फोन आया न बच्चों से किसी ने कोई बात की।
कुछ महीनों के बाद एक दूसरी महिला का फोन मेरे ही नंबर पर आया, शाम के 6 बजे के करीब।
बोली कि मैं नई मेंटोर हूं सूरज और दिव्या की, मैं ने उनसे अपनी निराशा व्यक्त की, उन्होंने भी आश्वस्त किया।
हालांकि, बच्चों का नम्बर दिए जाने के बाद भी उनका कोई फोन कई महीनों तक नहीं आया। इस बीच मेरे एकाउंट से तयशुदा कुल रकम काटी जा चुकी थी और बाइजूज के मुनाफे में शामिल हो चुकी थी।
साल गुजर गया, अचानक से एक दिन शाम में कंपनी से किसी का फोन आया, मैं फट पड़ा और उसे बुरी तरह डांट लगाई कि तुम किसी ऐसी कम्पनी में क्यों नौकरी करते हो जहां ग्राहकों को फंसा कर उनसे रुपए ऐंठने का ही काम होता है।
बहुत गुस्से में था मैं और उसे यह भी बताया कि मेंटोर कभी ध्यान नहीं देती और महीनों के अंतराल पर जब फोन करती भी है तो शाम के उस समय, जब बच्चे खेलने में लगे होते हैं।
कल हो कर मेंटोर का फोन आया, कंपनी ने शायद हड़काया हो, लेकिन समय वही साढ़े पांच बजे शाम।
स्वर निर्विकार जैसा, "कैसी पढ़ाई चल रही है बच्चों की?" मैं ने उन्हें भी खूब डांटा कि अब मेरे बच्चों की चिंता मत करो, प्रोफेसर के बच्चे हैं, जैसे तैसे पढ़ ही लेंगे, मैं समझ गया हूं कि तुम सबने मिल कर मुझे ठग लिया है, तुम्हारी कंपनी का भट्ठा बैठना तय है क्योंकि ठग-ठग कर बिजनेस में बहुत दूर तक नहीं जाया जा सकता।
जो बाइजूज कंपनी कोरोना संकट के दौरान बेहद तेज वृद्धि दर दर्ज करती देश की सबसे प्रमुख स्टार्ट अप कंपनी बन गई, जिसने भारतीय क्रिकेट की स्पॉन्सरशिप हासिल कर खुद का बड़ा नाम बनाया, अब खबरों में देख सुन रहा हूं कि वह उतनी ही तेजी से जमीन सूंघने लगी है।
वह 2020 था, जब कंपनी उछाल मारने लगी थी। यह 2023 है, जब खबरें बताती हैं कि कंपनी की रेवेन्यू एक चौथाई भी नहीं रह गई है और उसकी कुल औकात भी घट कर पांचवे हिस्से भर रह गई है।
यह होना ही था। बायजूज कंपनी उदाहरण है कि ग्राहकों को ठग कर एक सीमा से आगे नहीं बढ़ा जा सकता।
लेकिन, मेरे जैसे हजारों, लाखों साधारण लोगों को लाख लाख रुपए का चूना लगा कर कंपनी ने जितने लाभ कमाए, उसका कोई जिम्मेदार नहीं है।
बाजार इसी तरह आक्रामकता के साथ अब व्यवहार करता है, वह ग्राहकों को मनोवैज्ञानिक रूप से प्रभावित कर उनमें मांग पैदा करता है, बहुधा यह कृत्रिम मांग भी होती है।
फिर, लोगों के साथ छल करके करोड़ों अरबों रुपए कूट लिए जाते हैं।
फिर, कंपनी की असफलता का ठीकरा छोटे कर्मचारियों पर डाल कर उनकी छंटनी कर दी जाती है।
जैसा कि बायजूज ने हजारों कर्मियों की छंटनी कर दी और लगातार कर ही रही है।
अब तो ऑन लाइन पढ़ाई के ढेरों प्लेटफार्म उपलब्ध हैं,उनमें से कुछ बहुत अच्छी पढ़ाई करवाते हैं और फीस भी ज़्यादा नहीं लेते।
इसी साल दसवीं पास कर चुका मेरा बेटा उनमें से कुछ प्लेटफार्म से जुड़ा हुआ है और अच्छा रिमार्क देता है उनके बारे में।
हम लोग अब बायजूज नामक हादसे से उबर चुके हैं लेकिन भूले नहीं हैं कि किस तरह उसने हमें चूना लगाया।
बाजार में उसकी भारी गिरावट की खबरें लगातार सुर्खियों में हैं।
उसे गिरना ही था।
उम्मीद है कि ऑन लाइन पढ़ाई करवाने वाली कंपनियां बायजूज की शुरुआती बेहिसाब सफलता और अंत में जमीन सूंघने के उदाहरण से जरूर सीख ले रही होंगी।
लेखक पटना यूनिवर्सिटी में एसोशिएट प्रोफेसर हैं।
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