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एक कदम आगे बढ़े समाज को पीछे खींचती रंग की जंग

खरी-खरी            Dec 29, 2022


मुकेश भारद्वाज।

केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड की कैंची से कट-छंट कर, गालियों की जगह बीप की आवाज और सिर्फ व्यस्कों के लिए या आम दर्शकों का प्रमाणपत्र लेकर कोई फिल्म सिनेमा हाल तक पहुंचती है।

इतने नियमन के बाद अब एक और परीक्षा शुरू हो गई है कि सत्ता से जुड़े सूचना तकनीक प्रकोष्ठ की नजर में फिल्म कैसी है।

तो, इस प्रकोष्ठ को आपत्ति हुई नायिका के वस्त्र के संतरी रंग पर और शुरू हो गया बहिष्कार-बहिष्कार का खेल।

पश्चिम की तकनीक और मूल्यों से आया भारतीय सिनेमा समाज से दो कदम आगे रहा है। ‘राजा हरिश्चंद्र से लेकर आज ‘पठान तक के समय में जनता को जबरर्दस्ती उठा कर सिनेमा हाल पहुंचाने का रिवाज नहीं रहा है।

आज जब सिनेमा हाल में एक व्यक्ति का टिकट पांच सौ रुपए से ज्यादा का भाग रहा है तो वहां तक नहीं जाने के कई कारण हो सकते हैं, और इंटरनेट  के मंचों पर तो बिलकुल मर्जी है आपकी क्योंकि ऊंगली और रिमोट है आपका

अभी 70 के दशक का वो गीत जेहन पर आज की धुन की तरह तारी है जब भगवा साड़ी पहन कर मंदिर की सीढ़ियों पर नशे में झूम-झूम कर मुमताज ‘जय जय शिवशंकर’ गाते हुए नमूदार होती थीं।

तब सारा सिनेमा हाल धर्म, जाति और संप्रदाय को भूल कर समूहगान करने लगता था। कारण साफ है तब न कोई रंग, रंग था और न कोई रंग बदरंग।

ऐसा तब भी नहीं था जब जीनत अमान गांजा-सिगरेट के धुएं में ‘दम मारो दम… हरे कृष्णा, हरे राम’ गाते हुए थिरकती हुई बड़े पर्दे पर आईं।

न ही हंगामा तब भी बरपा जब अमिताभ बच्चन ने सिनेमा के परदे पर भगवान की हस्ती को ही ललकार दिया था।

शुक्र है, आज की आहत आत्माओं ने यह गाना नहीं सुना, ‘राम नहीं तो कर दूंगा सारे जग में तुझे बदनाम’।

यह गाना तो 1973 (लोफर) का है, लेकिन इन्हीं शब्दों के साथ आज लिखा जाता तो?

 

अब ऐसा क्या हुआ कि पर्दे पर संतरी रंग ने इतना सता दिया कि तूफान आ गया? कारण साफ है वो दौर सिनेमा को सिनेमा की तरह देखता था और तब संवेदना विकृत नहीं हुई थी। अब हालात और हैं।

यह विकृत संवेदना का समय है,  इसमें संभलने, संभालने में लेशमात्र भी चूक हुई तो सिर फूटने की सौ फीसद गारंटी है।

अभी ज्यादा समय नहीं बीता कि खबरों के तथ्यानवेशी को इसलिए जेल जाना पड़ा क्योंकि उन्होंने ट्वीटर पर हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म का वह दृश्य साझा कर दिया जिसे देख कर दर्शक अब तक सिर्फ ठहाके लगाते थे।

दर्शकों के वे ठहाके अचानक से ठहरा दिए गए जब उसमें भी धार्मिक भावना को आहत करने का हल्ला बोल कर मामला गिरफ्तारी तक पहुंच गया।

भारतीय संदर्भ में सिनेमा और समाज का रिश्ता हमेशा से खींचातानी का रहा है।

पश्चिम से आई सिनेमा की तकनीक पश्चिम के मूल्य भी लेकर आई थी,  स्त्री स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व की बातें।

भारतीय संदर्भ में सबसे अहम स्त्री और पुरुष के बीच प्रेम का रिश्ता। सिनेमा जब बड़े पर्दे पर दो फूलों के टकराने के दृश्यों को दिखा रहा था तो बड़े-बुजुर्गों को लगता था कि आने वाली पीढ़ी का क्या होगा जो जवानी में प्रेम करना सीख रही है।

घर-बाहर और चौपालों की अदालतों में सिनेमा को वर्जित करार दिया जाता था और इसके देखने के अपराधी पैसे जोड़ कर छुप-छुप कर ये अपराध बार-बार करते थे।

1971 में आई फिल्म हरे रामा हरे कृष्णा में अभिनेत्री जीनत अमान गांजा के साथ दम मारो दम करतीं नजर आईं।

लड़के देव आनंद की तरह गर्दन हिला-हिला कर बातें करने लगते थे तो लड़कियां घरों में ही कैंची से अपने बालों को ‘साधना कट’ दे देती थीं।

सिल्क और सूती छोड़ कर बिना सिर पर आंचल लिए एकरंगी शिफान की साड़ी पहनने वाली बहुओं को ससुराल में ‘सिनेमा वाली’ का ताना मिलने लगता था।

दादा-पिता की बात का जवाब देने वाले युवा के साथ सिनेमा की संस्कृति को भी कोसा जाने लगता था।

छोटा पर्दा यानी टेलीविजन आने के बाद से सिनेमा और परिवार की तकरार कुछ कम होने लगी क्योंकि अब घर की बैठकी में सब साथ बैठ कर फूलों के टकराने से आगे बढ़ कर प्रत्यक्ष आलिंगनबद्ध प्रेम-दृश्य देखने लगे थे।

कल तक शिफान की साड़ी में बहू को कोसने वाली सासू मां को अनारकली और सलीम की बगावत अच्छी लगने लगी थी और वे प्रेम करने वालों के दुश्मन ‘मुगल-ए-आजम’ को अपनी भाषा में कोसने लगतीं।

घर की स्त्रियां उस जोधाबाई के द्वंद्व को समझने की कोशिश करतीं जो अपने ही बेटे के खिलाफ जंग में जाने के लिए शौहर का अभिषेक कर रही है।

और, उसी सम्राट के खिलाफ जब अनारकली कहती है ‘पर्दा नहीं जब कोई खुदा से बंदों से पर्दा करना क्या’ तो सास को बुरा नहीं लगता है कि ससुर के सामने बहू बिना पर्दा किए सिनेमा देख रही है।

सिनेमा की अहमियत को पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री भी मानते थे

‘तीसरी कसम’ में हीरामन और ‘बाई जी’ का जो रिश्ता है वही हमारे समाज का सिनेमा से रिश्ता रहा है।

वह सकुचाता रहा है, उसे लगता है कि वह इस आगे की सोच में कहां योग्य साबित हो पाएगा?

लेकिन, सारे विरोधाभासों के बीच ‘बाई जी’ उसे आकर्षित करती हैं। सिनेमा से उठे सवाल घर, सड़क से लेकर खेत तक को प्रभावित कर रहे थे।

देश के प्रधानमंत्री लालबहादुर शास्त्री ‘जय जवान जय किसान’ का नारा लगाने के बाद सिनेमा की तरफ देखते हैं कि यही वह माध्यम है जो उनके नारे को घर-घर तक ले जा सकता है।

यहीं पर हम देखते हैं कि सिनेमा जनसंचार (मास मीडिया) का सबसे बड़ा माध्यम है।

 सरकार के किसी विचार को घर-घर तक पहुंचाने के लिए प्रधानमंत्री से बड़ा चेहरा मनोज कुमार थे।

मनोज कुमार ने खुद पर ‘मेरे देश की धरती सोना उगले, उगले हीरे-मोती’ का दृश्यांकन किया तो आज तक यह देश का राष्ट्रीय गीत सा बन गया है।

अंग्रेजों से आजादी की लड़ाई जीतने के बाद भारत आधुनिक राष्ट्र बना था तो राष्ट्रवाद की जरूरत इसे भी थी और उस वक्त भी इसके लिए सत्ता ने सिनेमा की ओर ही देखा।

‘है प्रीत जहां की रीत’, से लेकर जब विलायती क्लब में मनोज कुमार से कहा जाता है कि चांद तक पहुंची दुनिया में तुम्हारे भारत का योगदान ‘जीरो है जीरो’ तो मनोज कुमार गाते हैं, ‘जब जीरो दिया मेरे भारत ने…देता न दशमलव भारत तो चांद पर जाना मुश्किल था’।

सिनेमा अभिव्यक्ति की आधुनिक विधा होने के कारण हमेशा से समाज से दो कदम आगे रहा है।

जब कल यह एक लड़के और लड़की के बीच जाति, धर्म और संप्रदाय की दीवार को लांघता हुआ प्रेम दिखा रहा था तब भी और आज जब यह समलैंगिक रिश्तों को अन्य रिश्तों की तरह समानता देने की मांग करता रहा है तब भी।

अब तक सिनेमा और समाज की लड़ाई इन दोनों का आपसी मामला था। एक तरह से कहें तो ‘स्वनियमित’। धीरे-धीरे दोनों एक-दूसरे को तैयार कर लेते हैं।

जब भारतीय समाज में खुला प्रेम नहीं था, जाति और धर्म का बंधन कट्टर था, सिनेमा ने माहौल बदलने की कोशिश की।

पहले भी ये चीजें लोगों को पसंद नहीं आती थीं तो वे समाज को बर्बाद करने के लिए सिनेमा को कोस लेते थे।

लेकिन, आज की तरह कट्टरता नहीं होती थी जैसी कुछ समय पहले करणी सेना के कारण संजय लीला भंसाली की ‘पद्मावत’ को झेलनी पड़ी थी और, जैसा आज दीपिका पादुकोण और शाहरुख खान को झेलना पड़ रहा है।

हिंदी सिनेमा के शोमैन राजकपूर की 49 वर्ष पहले बनी फिल्म बॉबी के एक दृश्य में ऋषि कपूर के साथ डिंपल कपाडिया। 

सिनेमा के विषयवस्तु पर आपत्ति घर के बड़े-बुजुर्गों से निकल कर राजनीतिक दलों के सूचना तकनीक प्रकोष्ठ के हाथ में चली गई है।

जिस देश के लोग 70  के दशक में ‘बाबी’ के गाने ‘हम तुम एक कमरे में बंद हों’ पर झूम-गा चुके हों और डिंपल कपाड़िया के आधुनिक वस्त्र स्वीकार कर चुके हों उन्हें क्या 21 वीं सदी में दीपिका पादुकोण के उसी तरह के वस्त्र से आपत्ति होगी?

लेकिन उन्हें आपत्ति करने के लिए एक पूरा मानस बनाया जा रहा है और ठीकरा ‘रंग’ पर फोड़ा जा रहा है।

यह रंग के बहाने वो जंग है जिसमें एक कदम आगे बढ़ चुके समाज को दो कदम पीछे धकेलने की तैयारी है। यहां फर्क बस हमारी बहू और तुम्हारी बहू का है।

रंग पर छिड़े इस बेशर्म जंग का समाधान भी सिनेमा में ही है

एक सिनेमा की बहू परदे की हद तोड़ कर सत्ता का सिनेमा करके समाज को दिशा देने लगी जबकि सिनेमा की बहू वहीं की वहीं रही। रंग की आड़ में समाज को बदरंग करती हुई।

इस देश की इस समय सबसे बड़ी विडंबना यही है कि यहां हर किसी ने अपनी अलग-अलग पहचान का रंग चुन लिया है। भगवा, हरा, नीला, लाल। लेकिन, सिनेमा तो शुरुआत से सपनों के सतरंगी रंग को लेकर चला है जिसमें हर किसी का मुक्ति-गान रहा है। रंग पर छिड़े इस बेशर्म जंग का समाधान भी सिनेमा में ही है।

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आज भी सिनेमा को लेकर ‘स्वनियमन’ का ही कायदा होना चाहिए।

फिल्म बनाने वाले की तरफ से कोई बंदिश नहीं कि फिल्म देखनी ही है। एक अरसे में फिल्म को एक राजनीतिक औजार बना दिया गया है।

राजनीतिक दल फिल्म को अपनी विचारधारा के प्रचार का माध्यम बना रहे हैं पर, वह दौर शायद ही कभी आए कि आप को घर से घसीट कर थिएटर पहुंचाया जाए।

फिल्म को देखना या गाने को गाना आज भी स्वेच्छा से जुड़ा मसला है और, सबसे अहम पक्ष, हाहाकारी महंगाई के इस दौर में प्रति व्यक्ति 500 रुपए का टिकट लेना कोई आसान फैसला नहीं और नेटफ्लिक्स व अन्य मंचों पर आने के सवाल पर याद रहे रिमोट तो आपके हाथ में ही है।

लेखक जनसत्ता के कार्यकारी संपादक हैं।

 



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