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रजनीशपुरम -2 ओशो नेवर बॉर्न नेवर डाइड

खरी-खरी            Dec 14, 2022


मनोज श्रीवास्तव।

इसलिए आर्य आक्रमण सैद्धान्तिकी को अमेरिकन स्कॉलरशिप ने भी इतना जमकर समर्थन दिया क्योंकि उससे स्वयं उसकी आस्तित्विक, साभ्यतिक और मनोवैज्ञानिक क्षति पूर्ति होती थी।

ओशो के सामने ये प्रपंच, ये छद्म कहाँ चलने थे, उनकी नज़रों का तेज ऐसा था कि एकबारगी सामने आए व्यक्ति के भीतर के सच को भी पूरा पूरा स्कैन कर लेती थीं।

तब यह महाकार विडंबना उनसे कैसे छुपती। इसलिए न उनसे वह विडंबना सहन होनी थी न इन्हें भारत से आया हुआ यह पुरुष बर्दाश्त होना था।

भारत में अंग्रेजों ने tribals को aboriginals से conflate करके, आदिवासी और मूल निवासी वाली फॉल्ट लाइंस ढूंढी थीं। लेकिन वे तो फाल्स लाइंस थी।

भारत में जातियों का जैसे संस्कृताइजेशन हुआ, वैसे ही ट्राइबलाइजेशन भी हुआ। पर यूरोप का कोई आगंतुक अबॉरिजिनल नहीं बना, फ़र्क था।

ओशो ने अमेरिकी अबॉरिजिनल की बात उठाके मुश्किलें पैदा कर दीं,  इसी कारण सिर्फ़ उन्हें भारत डिपोर्ट करके संतुष्ट नहीं हुआ जा सकता था।

ओशो कोई हिन्दुत्ववादी नहीं थे,  पर वे उस महाद्वीप के मुल्क के सबसे प्रचलित विश्वास को सभी धर्मों के अधिक्रम में सबसे नीचे रखते थे,  ये उनका एक अलग गुनाह था।

उनका कहना था कि उसे ध्यान की परंपरा का कुछ अता पता न था, कि उसमें जो भी है, वह हाइपोथीटिकल है, प्रमेय है, उपकल्पना है, कि यह लोगों को सत्य का अनुभव लेने से रोकता है, कि इसका आग्रह ईश्वर पर, जीसस क्राइस्ट पर विश्वास करने का है, कि जब भी कोई मज़हब विश्वास करने पर जोर देता है, तब वह प्रज्ञा के ,संबोधि के विरुद्ध है, कि वह आपकी चेतना और स्वातंत्र्य को ऊँचा शिखर नहीं बनने देता।

ये सब कड़वे डोज थे जिन्हें अपने निर्भीक और निस्संकोच अंदाज़ में, पूरी बेलौसी और बेमुरव्वती के साथ रजनीश पिला रहे थे उस जमीन पर जहां लोग अपने 'विश्वास' से बहुत आश्वस्त थे, तब ऐसे पुरुष को बहुत शांति से कोई क्रमिक जानलेवा डोज़ मिलना ही था।

उनकी ऑनेस्टी इतनी शॉकिंग थी कि उन्हें अमेरिकी जेल में शॉक्स दिये ही जाने थे,  वे अपने श्रोताओं की चेतना को इतना मुक्त करते थे, इतना खोलते थे, इतना निर्बन्ध करते थे कि उन्हें अमेरिकन जेलों में बेड़ियों में बांधा ही जाना था।

कौन कहता है कि पोंटियस पिलातूस के वंशज मर गये थे, वे अमेरिकी क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम के कुछ संवाहकों के रूप में फिर प्रकट हुए थे।

जार्ज वाशिंगटन की मेहनत पर बने देश के पुण्य उसी समय क्षीण हो गये थे जब ओशो को डेविड वाशिंगटन के रूप में जेल में रखा गया था।

याद रखें कि उस फ्लूरोकार्बन के इंजेक्शन से बहुत प्रभावित हुए ओशो के शरीर का उनकी संकल्पशक्ति से ही भारत में वैसा ही resurrection हुआ था, जैसा यीशु का हुआ था।

यह भी याद करें कि ओशो ने इसे विक्ट्री आफ ईस्ट ओवर वेस्ट कहा था। उन्होंने इसे प्रेम की जीत कहा था और बिना गांधी जी का नाम लिए यह बात कही थी कि सभ्यता अभी भी एक 'आइडिया' है, यथार्थ नहीं है। गांधीजी से उनके इंग्लैंड दौरे के बारे में किसी ने पूछा था कि पश्चिमी सभ्यता के बारे में उनका क्या विचार है?

 उन्होंने कहा था : वेस्टर्न सिविलाइजेशन ! ओह दैट इज़ अ गुड आइडिया।

ओशो को जब एक जेल से दूसरे जेल में घुमाया गया तो उन्होंने उन जेलों में सिर्फ ब्लैक ही ब्लैक लोग भरे देखे और वे भी युवा लोग।

आज ओबामा का एक कथन उस अन्याय को छुपाने के लिए ओशो के कथन के साथ कंट्रास्ट किया जाता है जिसमें वे कहते नज़र आते हैं कि यंग पीपुल कमिट मिस्टेक्स। ओ भाईसाहब, जवान लोग ग़लतियां जरूर करते हैं, पर गलतियां करने और गुनाह करने के बीच कोई फ़र्क़ होता है या नहीं।

आज ओशो के स्वप्न और स्वर्ग को रौंद देने वाले में खुश होंगे। वे द गॉड दैट फ्लेड या इस वाइल्ड वाइल्ड कंट्री जैसी सीरीज़ को बनाकर संतुष्टि कमा रहे होंगे।

पर यह संतोष बिल्कुल वैसा है जैसा जीसस को सजा देने वालों को हुआ था। ओशो यदि यह भगवान होता तो भागता? यदि यह भगवान होता तो सूली पर चढ़ता ?

किन्तु जब ओशो उनके साथ किए गए जहरखुरानी षड्यंत्र के बावजूद उनके ठीक हो जाने पर यही कहे थे कि यह 'झूठ के ऊपर सत्य की, घृणा के ऊपर प्रेम की, पश्चिम के ऊपर प्रेम की विजय है।

तब क्या इससे उन लोगों को पॉल के वे शब्द याद आए होंगे कि यह तमस पर प्रकाश की, बुराई पर अच्छाई की विजय है?

जैसे क्रास ने जीसस के जीवन को एक पूर्णता दी, वैसे ही उस कैद ने ओशो की दिव्य शक्ति को प्रमाणित किया। क्रास जीसस के जीवन का क्लाईमेक्स था तो यह कैद ओशो के जीवन का।

जैसे जीसस को चोरों के बीच सलीब पर लटकाकर dehumanize करने की कोशिश की जा रही थी, वैसे ही रजनीश के साथ अमेरिकी पुलिस सभ्यता के अपने स्तर का पता दे रही थी।

मैं इस तुलना से न तो ओशो और न यीशु की सिंगुलेरिटी को किसी संदेह में नहीं डालना चाहता।

दोनों अपनी अपनी तरह से प्रकाश- -पुरुष हैं। लेकिन दोनों को एक शेम और स्कैंडल के बीच मे से गुज़ारा गया। सुकरात हों या डेमस्थनीज़, मीरा हो या मैक्सिम गोर्की, लाल बहादुर शास्त्री हो या श्यामाप्रसाद मुखर्जी, दयानंद हों या हैमलेट- जहर से इन सबको गुजरना पड़ा,  ओशो को भी।

वह व्यक्ति जो "आर्ट ऑफ डाइंग' सिखाते हुए मृत्यु की mysteries खोलता था, उसकी स्वयं की मृत्यु एक रहस्य बनकर रह गई।

कैसे लोग हैं जो सभ्यता असभ्यताओं का फर्क करते हैं ? और कैसे करते हैं?

किसी ने यदि अपने प्रॉफेट की शान में गुस्ताखी पर किसी का सर तन से तत्काल जुदा कर दिया है तो वह असभ्य है और किसी ने अपने रिलीजन की शान में गुस्ताखी पर आपके ब्लडस्ट्रीम में धीरे धीरे असर करने वाला कोई ऐसा तत्व प्रविष्ट करा दिया है जो अन्ततः आपकी जान लेगा तो वह सभ्य है?

जबकि कोई तात्विक फर्क नहीं है। एक स्थूल है दूसरा सूक्ष्म है। एक क्रूड है, दूसरा subtle है। एक औचक है, आकस्मिक है, दूसरा bit by bit है, step by step है, by degrees है; लेकिन एसेंस में, सार में, मूल में कोई फर्क नहीं है।

ओशो जब इतनी बड़ी ताक़त के खिलाफ़ यों बोल रहे थे तब वे अकृतज्ञ नहीं हो रहे थे, तब वे आभार की अवगणना नहीं कर रहे थे। पर जिसकी चेतना ही निर्भार हो, वह क्या करे।

जिसके शब्दों में सत्य का जल प्रपात हो, वह अपनी ऊर्जा उसी से पैदा कर लेता है। लेकिन असुविधाजनक ज्ञान को नेस्तनाबूद कर देने की जिसकी आदत उपनिवेशवाद के दौर से, मध्यकालीन आक्रमणों के दौर से पड़ी हुई है और लगता है यह किसी कलेक्टिव अनकांशस का हिस्सा बन गई है।

वह आज भी यही लक्ष्य लेकर चलता है कि जहाँ असहमत को रास्ते से हमेशा के लिये ही हटा देना है।

इसके बावजूद ओशो अपने संबोधनों में उस कलेक्टिव ट्रॉमा की कटाई-छंटाई नहीं कर सकते थे जो तृतीय विश्व के देशों ने भुगता है, तो क्या यह उनका दोष था?

और वे जो डिबेट खड़ी कर रहे थे, उसमें लगातार प्रश्न और प्रतिप्रश्न थे, जिज्ञासाएं थी और समाधान थे, जब यह कह रहे थे कि कन्वर्जन करने वाले अनपढ़ों, अशिक्षितों और गरीबो का कन्वर्ज़न करते हैं- तब वह बात उनके उन्हीं संस्कारों और विरासत से निकली थी जहां शास्त्रार्थ और खंडन मंडन की एक प्रक्रिया से गुज़रा जाता है और सहजविश्वासी, credulous, innocent, unsuspecting लोगों की gullibility का, उनके सीधेपन का फायदा नहीं उठाया जाता। वे वहाँ के सबसे सॉफिस्टिकेटेड, इंटेलेक्चुअल, क्वेश्चनिंग लोगों के बीच बात कर रहे थे।

उनके Skepticism का उत्तर देते हुए, उनकी incredulity का स्वागत करते हुए। जिनसे ऐसा व्यक्ति नहीं सहा गया, वे आज भारत में आत्माओं की फसल काटने की स्वतंत्रता मांगते हैं और किसी प्रतिप्रश्न पर धार्मिक स्वतंत्रता की अपनी रेटिंग सिस्टम, अपनी इंडेक्स पर भारत के मार्क्स कम कर देते हैं।

यह मुझे एक व्यंग्य ही लगता है कि जो ओशो यह कहते थे कि There is nothing ugly about death. Man has made even the word death ugly and unutterable. People do not talk about it. They won't even listen to the word death, उसी व्यक्ति की ugly death के लिए दुनिया के सबसे बड़े सत्ता- उन्माद ने साज़िशें रचीं और अब वे इस मृत्यु के बारे में वाकई बात नहीं करना चाहते।

They don't talk about it. They won't even listen to the word death in the special context of Osho, पर हम जानते हैं कि ‘ओशो नेवर बॉर्न नेवर डाइड ' हैं।

वे इस पृथ्वी पर विज़िट किये, यह उनके स्मृतिलेख पर लिखा हुआ है, पर उनके हत्यारे कब अपनी आत्मा को विज़िट करेंगे।

ओशो कहते थे “ मैं मृत्यु सिखाता हूँ” पर हमारे लिए उनकी मृत्यु में भी बहुत सी सीखें हैं।

लेखक सेवानिवृत आईएएस हैं।

 

 

 



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