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सीबीआई की साख बचाने दूरगामी निर्णय जरूरी ताकि तोते की फितरत बदले

खरी-खरी            Oct 29, 2018


राकेश दुबे।
कितनी सरकारें आईं और चली गईं। सी बी आई जैसे काम करती थी, करती है और करती रहेगी। किसी भी सरकार की मंशा उसके सुधार में नहीं है। सब उसका उपयोग और एक हद तक दुरूपयोग करते रहे हैं।

हर राजनीतिक दौर में एक दबाव में यह सन्गठन काम करता रहा है। 1984 में सी बी आई ने जब जगदीश टाइटलर दाग धोये थे के तब भी बहुत से लोगों ने उस पर अंगुली उठाई। मुलायम सिंह और मायावती के विरुद्ध आय से अधिक संपत्ति के मामलों में भी सी बी आई ने लीपापोती की जिससे ये दोनों नेता कानून की पकड़ से बच गए।

बोफोर्स तोप की खरीद में भी सी बी आई की निष्पक्षता पर सवाल उठे। जो भी दल सत्ता में रहा उसने सीबीआइ का दुरुपयोग किया। एक सत्तारूढ़ पार्टी के वरिष्ठ नेता ने तो खुलेआम विरोधियों को धमकाते हुए कहा था कि हमारे पास सी बी आई है।

कारण साफ़ है यह तोता अपने स्वर ही नहीं रंग भी बदलता है। सी बी आई की इस फितरत [गिरगिटी प्रवृति] के पीछे का मुख्य कारण खुद का जमीर न होना है। राजनीतिक दलों की कभी भी इसमें बदलाव की मंशा ही नहीं दिखी।

सी बी आई दिल्ली स्पेशल पुलिस एस्टेब्लिशमेंट एक्ट, १९४६ के तहत कार्य करती है, ४० सालों से संसद की विभिन्न समितियां बार-बार दोहरा रही हैं कि सी बी आई का अलग अधिनियम बनाया जाए परंतु किसी भी सरकार के कान पर जूं नहीं रेंग रही है।

सभी को सी बी आई का वर्तमान स्वरूप इसलिए ठीक लगता है, क्योंकि उसका मनचाहा उपयोग-दुरुपयोग किया जा सके। १९७८ में एलपी सिंह समिति ने संस्तुति की थी कि एक व्यापक केंद्रीय अधिनियम बनाकर सी बी आई को सशक्त बनाया जाए।

संसद की स्थाई समिति ने भी २००७ और २००८ में संस्तुति की थी कि सी बी आई को विधिक आधार और पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराए जाने चाहिए। सरकार तो सरकार सर्वोच्च न्यायलय भी इस और गौर नहीं फरमा रहा है इस विषयक एक जनहित याचिका भी पांच वर्षो से लंबित पड़ी है।

वर्तमान में सी बी आई में हुई उठापटक के पीछे भी राजनीतिक हस्तक्षेप है। सत्तारूढ़ पार्टी राकेश अस्थाना को वरिष्ठतम पद पर बैठाना चाहती थी। उसने निदेशक की आपत्ति के बावजूद उन्हें विशेष निदेशक बना दिया।

निदेशक का कहना था कि अस्थाना की पृष्ठभूमि स्वच्छ नहीं है, इसलिए वह सी बी आई के उपयुक्त नहीं हैं, परंतु मुख्य सतर्कता आयुक्त ने अस्थाना का समर्थन किया और सी बी आई में दूसरे वरिष्ठतम पद पर उन्हें नियुक्ति मिल गई। निदेशक आलोक वर्मा और राकेश अस्थाना के बीच हमेशा खींचतान रही। जो लगभग एक साल से मनमुटाव में बदल गई।

भारत सरकार ने दोनों के बीच की समस्याओं को सुलझाने का कोई प्रयास नहीं किया। कार्मिक एवं प्रशिक्षण मंत्रलय, जिसके अधीन सी बी आई आती है, वो और सी वी सी तमाशा देखते रहे। स्थिति बिगड़ती गई। केंद्र सरकार ने तब हस्तक्षेप किया जब मामला अपराध तक की श्रेणी में पहुंच गया।

इस मसले में कुछ बातें खासतौर से उभरकर सामने आती हैं। यह कि राकेश अस्थाना को बराबर इस बात का अहसास था कि उन्हें राजनीतिक समर्थन हासिल है इसलिए वह जो चाहे कर सकते हैं।

सामान्यत: किसी भी विभाग में नंबर दो के अधिकारी की हिम्मत नहीं होती कि वह नंबर एक अधिकारी के आदेशों की अवहेलना करे परंतु अस्थाना ने लगातार ऐसा किया।

यह भी आरोप है कि अपनी बेटी की शादी के दौरान उन्होंने अपने पद का दुरुपयोग करते हुए कई होटलों में समारोह आयोजित किए। सी बी आई के इस झगड़े में सी वी सी की भूमिका भी निष्पक्ष नहीं नजर आती।

आलोक वर्मा द्वारा भारत सरकार को लिखे पत्र में स्वभाविक पक्षपात साफ़ झलकता है। सी वी सी यह तर्क गले नहीं उतरता सी बी आई के अधिकारी जांच में सहयोग नहीं कर रहे थे, बल्कि अड़ंगा लगा रहे थे और जरूरी फाइलें नहीं दे रहे थे।

अभी तो लगता है कि सर्वोच्च न्यायालय के हस्तक्षेप से मौजूदा विवाद सुलझ जाएगा। लेकिन जरूरी है, सी बी आई के बारे में दूरगामी निर्णय लिए जाएं। जिससे इसकी साख बचे।

 


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