कीर्ति राणा।
लोकसभा से सदस्यता समाप्त किया जाना राहुल गांधी के लिए झटका इसलिए नहीं है क्योंकि कांग्रेस के रणनीतिकारों को पूरा भरोसा था कि यह नौबत आ सकती है।
अब जो होगा वह कितना, किसके लिए लाभदायक होगा, इसका इंतजार करना चाहिए।
लोकतंत्र की हत्या और संविधान की दुहाई देकर कांग्रेस का सड़कों पर छाती-माथा कूटते हुए चिल्लाना तय है लेकिन इको सिस्टम से लौटती आवाज में देश को इमर्जेंसी-इमर्जेंसी ही सुनाई देगा।
ये झटका राहुल गांधी के लिए, कांग्रेस के और उन विपक्षी दलों के लिए भी है जो मोदी-भाजपा के खिलाफ लामबंद होने की हिम्मत जुटा रहे थे।
सूरत कोर्ट के फैसले के खिलाफ एक महीने की अवधि में कांग्रेस का सर्वोच्च न्यायालय तक जाना भी तय था। सुप्रीम कोर्ट से किसके मन की होती, उससे पहले लोकसभा सचिवालय ने वह कर दिखाया जिसकी अपेक्षा खुद भाजपा सांसदों को भी नहीं थी।
एक सप्ताह से अधिक समय से दोनों दलों के हंगामे के चलते लोकसभा-राज्यसभा स्थगित होती रही है किंतु सचिवालय के इस पत्र ने बता दिया है कि उसके लिए कौन से काम अत्यावश्यक हैं।
संसदीय इतिहास में ऐसा भी पहली बार देखने को मिला है कि सत्ता पक्ष के कारण संसद कार्रवाई स्थगित होती रही है।
अगले साल लोकसभा चुनाव में कांग्रेस या संयुक्त विपक्ष का सरकार बनाने का सपना पूरा हो ही जाएगा, इसमें संशय अपनी जगह लेकिन कांग्रेस सहित तमाम विपक्षी दलों को यह तो समझ आ ही जाना चाहिए कि सरकार ऐसे भी चलाई जा सकती है और लोकतंत्र को इस शान से भी कंधे पर ढोया जा सकता है।
राहुल गांधी ने यदि कहा है कि वे दुर्भाग्य से सांसद हैं तो लोकसभा सचिवालय ने उन्हें सौभाग्य प्रदान कर दिया।
बंगला खाली कराने की कार्रवाई भी तयशुदा थी, बेघर राहुल के लिए सड़कों का ही सहारा है।
संसद में तो मल्लिकार्जुन खरगे, सोनिया-राहुल की सलाह बिना भी सत्ता पक्ष की नाक में दम कर ही रहे हैं।
पिछली भारत जोड़ो यात्रा में लोगों ने उनका दाढ़ी वाला चेहरा देख लिया है, अब देश के बाकी हिस्से के लोग जटाजूट राहुल बाबा को देख लेंगे।
लोकसभा सचिवालय ने इतनी फुर्ती अध्यक्ष ओम बिरला के इशारे पर दिखाई हो यह संभव नहीं लगता वरना हर रोज संसद स्थगित होने की नौबत नहीं आती।
राहुल गांधी को सूरत के न्यायालय ने जिस मामले में सजा सुनाई है उस पर तो कपिल सिब्बल, मनु संघवी अभी अपील के कागज तक तैयार नहीं कर पाए हैं।
संसद में अडानी मामले में बहस, जेपीसी की मांग से बचती रही सरकार चैनलों को तो समझा सकती है, लेकिन सड़क पर उतरने वाले राहुल की बोलती कैसे बंद करेगी।
यह कहना जल्दबाजी होगी कि इस निर्णय से उपजी सहानुभूति के चलते विपक्षी दल बांहे फैलाकर राहुल को गले लगाने दौड़ पड़ेंगे।
राहुल का साथ देने के लिए अन्य विरोधी दल मुंह दिखाई जितनी औपचारिकता दिखाएंगे ऐसा इसलिए भी संभव है क्योंकि क्षेत्रीय दलों को अपनी जमीन भी बचानी है।
इन दलों के नेता नहीं चाहेंगे कि सरकारी जांच एजेंसियां दबी फाइलों की धूल झटकारें। राहुल के लिए यह खुश होने का अवसर भी है।
अच्छा तो यह भी हो सकता है कि कांग्रेस यह घोषणा करने का साहस जुटाए कि लोकसभा सचिवालय की इस कार्रवाई को अदालत में चुनौती देने की बजाय हम जनता की अदालत में ले जाएंगे।
विपक्ष द्वारा कांग्रेस को लोकसभा में विपक्ष का साथ मिले ना मिले राहुल का सड़क पर उतरना संसद में कांग्रेस के पैर मजबूत करने में सहायक हो सकता है।
मीडिया के मठाधीशों ने जिस तरह मजबूरी में भारत जोड़ो यात्रा को दिखाना शुरू किया था, वही मजबूरी उसे अब भी दोहराना पड़ सकती है।
यह तो कांग्रेस और विपक्ष में दमगुर्दे होना चाहिए जो इस झटके को दोगुनी ताकत से भाजपा की तरफ उछाल सके।
सरकार इतनी भी भोली नहीं है कि सदस्यता समाप्ती के ऑफ्टर इफेक्ट का उसने अनुमान नहीं लगाया हो। इसलिए कांग्रेस और विपक्ष को अभी से मान लेना चाहिए की यह झटके की शुरुआत है।
सड़क पर उतरेगी तो भाजपाई राज्यों में जोरदार झटके लगना तय है।
1975 में इंदिरा गांधी ने अपने विरोधियों को कुछ अलग अंदाज में तलना शुरू किया था, यह सरकार साहसिक निर्णय लेने और हर विरोध को अपनी ऐतिहासिक विजय दर्शाने में सक्षम है।
-समूह संपादक सांध्य दैनिक हिन्दुस्तान मेल
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