पंकज शुक्ला।
तस्वीर शर्मनाक है ... इसलिए तस्वीर नहीं लगा पा रहा हूं। सिर्फ शब्द...पीड़ा से भरे शब्द...
यह नफरत का ऐसा दौर है जब हम किसी से भी नफरत कर सकते हैं। रंग से, शब्द से, अंदाज से, इस तरफ से, उस तरफ से। इस हद तक नफरत कि कोई नहीं छूटा। लाल बहादुर शास्त्री भी नहीं।
जी हां, भारतीय राजनीति में नाटे कद के ऊंचे व्यक्तित्व शास्त्री जी भी नहीं। कई लोग मानते हैं कि राजनीति में उनके साथ अन्याय हुआ मगर सभी एकमत हैं कि उन्होंने देश, समाज, राजनीति की सेवा में कोई कसर नहीं छोड़ी। पूरी ईमानदारी और सादगी से की गई सेवा। ऐसा व्यक्तित्व कि उनके जीवन के सच्चे किस्से आज की पीढ़ी को अचरज से भर देते हैं। ऐसा मनीषी व्यक्ति राजनीति में हुआ है, यह आज कोई मानता ही नहीं है।
ऐसे लाल बहादुर शास्त्री से भी नफरत हो सकती है?
यह सोच–सोच कर डूबे जा रहा हूं।
नफरत न होती तो भोपाल में क्यों कोई उनकी प्रतिमा पर जूते रख जाता !!!
जूतों की माला राजनीति–समाज का सबसे बुरा प्रतिसाद।
ये शब्द लिखना भी कितना कष्टप्रद है। फिर भी लिखना पड़ रहे हैं इस सवाल के साथ कि शास्त्री जी से नफरत क्यों? किसे?
सोचता हूं, किसी के विचार से नफरत हो सकती है। किसी के जीवन सिद्धांत से, किसी के तरीकों से, किसी के निर्णयों से, किसी के चुप रहने से, किसी के बोलने से, किसी के काम से नफरत हो सकती है। हां, नफरत के तमाम कारण है।
मगर वह क्या वजह है कि कोई शास्त्री जी से नफरत कर बैठा?
क्या यह श्रद्धा के उतार का दौर है कि हम हर पूजनीय व्यक्तित्व के प्रति आस्था, सम्मान, कृतज्ञता सब खो चुके हैं। क्या यह प्रतिमाओं के विखंडन का दौर है जब प्रतिमा पुरुष नहीं, उनका आदर सम्मान करने वाला समाज पतनशील हो चला है?
कोस लीजिए, इस कृत्य को कितने ही कड़वे शब्दों से कोस लीजिए, मगर क्या असर होगा? नफरत तो उजागर हो ही गई है।
शास्त्री जी से भी नफरत!!!
शास्त्री जी के बाद अब कौन बचा?
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