श्रीकांत सक्सेना।
सवाल इस दौर के भारतीय महा आख्यान या महाविमर्श(Grand narrative or master narrative)का है।
उत्तर आधुनिक फेंकुओं ने ये तो समझा ही दिया है कि जो व्यक्ति या दल अपने समाज के सामने सबसे स्वादिष्ट महाविमर्श का चारा फेंकेगा,समाज उस चारे को चुभलाते हुए उसी 'मास्टर' के आगे दुम हिलाता रहेगा।
जो महाविमर्श का चारा फेंकेगा,वही समाज को हाँकने की सामर्थ्य रखेगा,वही सत्ता का दावेदार भी होगा।
इस बारे में हिटलर के दौर की एक घटना का उल्लेख समीचीन होगा।
हिटलर जब सत्ता के सुनहरे दिनों का आनंद लेते हुए ख़ुद को पूरी तरह मज़बूत बना चुका था,तो उसने पार्टी के शीर्षस्थ लोगों के साथ हुई एक सभा में ये अजीबोग़रीब प्रदर्शन किया।
उसने अपनी मेज़ पर थोड़ा सा मुर्ग़ों का चारा रख लिया और एक हाथ में एक मुर्ग़े को,उसके पंखों को पकड़कर उन्हें एक-एककर निर्ममता से नौंचता रहा।
मुर्ग़ा दर्द से तड़प रहा था, थोड़ी देर बाद हिटलर ने मुर्ग़े को नीचे छोड़ दिया और उसके आगे कुछ दाने फेंक दिए, मुर्ग़ा तकलीफ़ भूलकर दाने खाने में व्यस्त हो गया।
हिटलर ने अपनी सभा सामान्य रूप से जारी रखी और बीच-बीच में मुर्ग़े को पकड़कर उसके कुछ और पंख भी नौंच डाले और फिर से दाने फेंक दिए।
हालाँकि सभा में कुछ लोगों को हिटलर की यह हरक़त बहुत वीभत्स,निर्मम और घिनावनी लग रही थी लेकिन कोई हिटलर को ऐसा न करने के लिए कहने का साहस नहीं जुटा पा रहा था।
हिटलर मुर्ग़े को पकड़कर उसके पंखों को बुरी तरह नौंचकर अलग करता रहा और फिर मुर्ग़े के आगे दाने भी फेंकता रहा।
उसने धीरे-धीरे मुर्ग़े के सारे पंख नौंच कर फेंक दिए और लहुलुहान मुर्ग़े को फ़र्श पर घिसटने दिया।
मुर्ग़ा आश्चर्यजनक रूप से ऐसी अवस्था में भी दानों को खाने में ही मस्त रहा। बाद में हिटलर ने अपने साथियों को समझाया कि जनता का स्वभाव भी मुर्ग़े की ही तरह होता है।
बस उसके सामने थोड़े दाने फेंक दो,फिर चाहे तो उसके सारे पंख नौंचकर उसे लहुलुहान ही क्यों न कर दो,वह कभी आपसे शिकायत नहीं करेगी।
ऊपर की दोनों बातें जनचेतना,जनभागीदारी या जनता की ज़िम्मेदारी जैसे जुमलों की कलई खोलती हैं।
हम सब जानते हैं कि जनतंत्र इस मूल प्रस्थापना पर आधारित वह व्यवस्था है जिसमें यह मान लिया जाता है कि लोगों में अपना हितों को पहचानने,अपने लिए सही फ़ैसले लेने,सही प्रतिनिधि चुनने,अपने आसपास हो रही विसंगतियों और ज़्यादतियों के प्रति अपनी प्रतिक्रिया देने और सबसे बढ़कर व्यवस्था के हर क्षेत्र पर नज़र रखते हुए लगातार अपना दख़ल देने की योग्यता,क्षमता और प्रवृत्ति होती है।
अपनी अदालतों,पुलिस,शासन,सरकार और सत्तारूढ़ दलों की गतिविधियों और अपने आसपास पसरी व्यापक संवेदनशून्यता को देखें और यह तय करें कि हम कैसे जनतंत्र का निर्माण कर रहे हैं।
महाआख्यान या महाविमर्श को तय करने की जुगत में सत्तारूढ़ दल रोज़ाना नये शगूफ़े छोड़ता है।
प्रतिपक्ष भी चाहता है कि कोई विमर्श ऐसा हो जिसमें उसके लिए भी संभावनाओं के कुछ द्वार खुलें।
Grand Narrative,Master Narrative,महा आख्यान महा विमर्श, खड़ा करने के लिए सैकड़ों मीडिया मर्कट छोड़े गए हैं। व्यवस्था के ठेकेदार इनके आगे विज्ञापनों के दाने फेंकते हैं और बदले में ये पूरी ताक़त से चीख-चीखकर इसकी क़ीमत भी अदा करते हैं।एक अरसा हुआ जब समाचारों के क्षेत्र में गंभीर विचार परंपरा जुड़ी होती थी।बाद के वर्षों में घोषित रूप से' न्यूज़ एंकरों' के नाम पर चीखने चिल्लाने वाले जाहिल भांड और नौटंकियों की भर्ती होने लगी...ज़ाहिर है दावेदारों के सामने अपनी पसंद का महा आख्यान,महा विमर्श,Grand Narrative,Master story या Master Narrative खड़ा करने की जल्दबाज़ी और होड़ लगी थी।
टीआरपी स्कैंडल,किसी कलाकार की ख़ुदकुशी ,किसी की नशे की लत,किसी के नाजायज़ संबंध ,किसी की जेलयात्रा यहाँ तक कि किसी मज़बूर दलित किशोरी का बलात्कार और हत्या तक को भी मीडिया मर्कटों ने अपने लिए वीभत्स संभावनाओं के तौर पर ही लिया।
और एक बाजारू नैरेटिव गढ़ने की कोशिश की।
इन सबमें पीड़ित पक्ष की गरिमा या भावनाओं का कोई ख्याल नहीं रखा गया, यह सिलसिला अनवरत जारी है।
हम जो समाज निर्मित कर रहे हैं वह संवेदनाओं की दृष्टि से दिनोदिन बंजर होता जा रहा है।
चलते-चलते एक ग़ज़ल के दो शे'र भी मुलाहिज़ा फ़रमाएँ-
अख़बार में तुम कोई ख़बर देख रहे हो
नादान हो,बाज़ार में घर देख रहे हो
ख़ामोश तुम हो और गुनहगार कोई और
जो सामने है,उसको किधर देख रहे हो__श्रीकांत
Comments