कौशल सिखौला।
हमें नहीं मालूम कि विदेशों में टीवी मीडिया का क्या हाल है , पर भारत में तो बहुत ही खराब है।
इतना खराब कि उसे खाली खराब कहना संभव नहीं , बेहाल कहना चाहिए ।
बेहद खिजाऊ , उबाऊ , बेशर्म इलेक्ट्रानिक मीडिया।
खबरें जब भी देखनी हों डीडी न्यूज देखते हैं या एनडीटीवी , चर्चाएं सुननी हों तो लोकसभा चैनल देखते हैं या राज्यसभा चैनल।
जब दिमाग की दही जमानी हो, टाइम पास कराना हो या फिर गालियां बकनी हों तो प्राइवेट न्यूज चैनल।
निजी चैनल इतने खिजाते हैं , इतने झल्लाते हैं , इतने उबाते हैं , इतने चिल्लाते हैं कि अच्छे खासे आदमी का माथा गर्म हो जाए।
समझ आता है कि चिढ़कर लोग यात्रा चैनल या डिस्कवरी चैनल या फिर फूड चैनल क्यूं देखने लगते हैं।
हम प्रिंट मीडिया के जमाने की पैदावार हैं जब खबरें और आलेख कागज पर कलम से लिखने पड़ते थे। कोई हमारा पैन मांगता तो मजाक में कह देते - भाई लौटा देना , यह हमारी रोटी है।
आज जब राजधानी और प्रांतीय राजधानियों के टीवी पत्रकारों को करोड़ों के पैकेज लेते देखते हैं तब समझ आता है कि माफियाओं की लाशों को कब्रों तक दफनाने की लाइव टेलीकास्ट उनकी रोटी से जुड़ी है।
उनकी रोटी जुड़ी है , टीआरपी से और टीआरपी चैनल मालिक की तिजोरी से। तो भाड़ में जाएं पत्रकारिता की किताब और आचारसंहिता ?
चैनल माफिया का पेशाब भी लाइव दिखाएंगे और मौका लगा तो टायलेट के दरवाजे से पीछे का नजारा भी किसी दिन ?
न जानें ये चैनल अपने मालिकों की विचारधारा को घुट्टी में मिलाकर दर्शकों को क्यूं पिलाना चाहते हैं ?
क्या वे मान चुके हैं कि दर्शक इन चैनलों के गुलाम बन चुके हैं ?
यदि वे ऐसा मानते हैं तो ठीक मानते हैं । देश की मानसिकता या यूं कहें कि हिंसा सुख मानसिकता बनाने का ठेका इन्हीं चैनलों के पास है।
ये चैनल समाज की प्रवृत्ति बदलकर उसे सैडिस्ट बना रहे हैं। लोगों को यदि परपीड़न में सुख मिलने लगे तो बर्बादी तय है।
भारतीय जनता को परपीड़क प्रवृत्ति के जन्मदाता इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बचाने का समय आ गया है ।
रात देखिए , नौ घंटों की पूछताछ के बाहर केजरीवाल सीबीआई दफ्तर से बाहर आए । वे मीडिया से बात कर रहे थे पर तमाम चैनल दो कब्रों की खुदाई और शवों को दफनाने के बाद भराई का लाइव टेलीकास्ट कर रहे थे।
केजरीवाल को डीडी वाले तो दिखाते नहीं, एक चैनल दिखा रहा था, वहां भी कब्र की भराई आ गई।
चैनल वालों को इस बात का जरा भी अफसोस नहीं कि फर्जी मीडियाकर्मी बनकर तीन हत्यारों ने उनकी बिरादरी को कलंकित कर दिया है ।
कल दिन भर न तो किसी मीडिया संगठन ने पत्रकारों के पपराजी आचरण पर कोई विचार किया और न ही सिक्योरिटी से जुड़े सिस्टम पर कोई बात की।
सरकार ने तो कभी भी पीछा करो पत्रकारिता पर चर्चा कराने का प्रयास किया ही नहीं । संवेदनशील मामलों में मीडिया गाइड लाइन का सख्ती से पालन होनी चाहिए ।
आने वाले दिन बड़े संवेदनशील हैं। ये चैनल समाज को हिंसा का स्लो प्वायजन बांट रहे हैं । यह खतरनाक है चूंकि घर घर फैला सोशल मीडिया इन्हीं चैनलों से विषय उठा रहा है ।
अच्छा हो टीवी चैनलों के लिए कोई आचार संहिता अब बन ही जाए, न मानने वालों के लिए कड़े से कड़े दंड और बहुत भारी जुर्माने का प्रावधान होना बहुत जरूरी है ।
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