प्रकाश भटनागर।
इसी सोमवार हमने इस कॉलम का उपसंहार ‘आइना वही रहता है, चेहरे बदल जाते हैं,’ से किया था। आशय यह था कि सरकार में चेहरे बदल जाते हैं, लेकिन हालात वैसे के वैसे ही बने रहते हैं। आज इन पंक्तियों से इस कॉलम की प्रस्तावना लिख रहे हैं।
इंदौर के देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में जो कुछ हुआ, वह मालवा के ही प्रोफेसर सभरवाल कांड से बहुत अधिक अलग नहीं है। सभरवाल के लिए कहा गया था कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के कार्यकर्ताओं ने उनकी जान ले ली।
हालांकि अदालत से सभी आरोपी बरी हो गये। इधर, देवी अहिल्या विश्वविद्यालय के कुलपति प्रोफेसर नरेंद्र धाकड़ को जिन हालात में यकायक कुलपति पद से हटाया गया, वह भी किसी की पीट-पीटकर जान लेने के कृत्य से कम नजर नहीं आता है।
यदि सीईटी फेल होने की बात पर यह निर्णय लिया गया होता, तो बात कुछ हद तक हजम भी हो जाती। लेकिन एक विश्वविद्यालय में महज इसलिए धारा 52 लगा दी गयी, कि वहां प्रदेश के उच्च शिक्षा मंत्री जीतू पटवारी का पुतला जला दिया गया था।
पुतला कुलपति ने नहीं जलाया। जिन्होंने जलाया, पटवारी उनकी मूंछ का बाल भी टेढ़ा करने की ताकत नहीं रखते। इसलिए उनका गुस्सा कुलपति पर निकला। उन्होंने धाकड़ को फोन करके लताड़ा।
फिर पहुंच गये मुख्यमंत्री कमलनाथ से शिकायत करने। नाथ के पास बतौर मुख्यमंत्री कुछ खास करने को नहीं बचा है। इसलिए बिना किसी विलंब के विश्वविद्यालय में धारा 52 लगाकर धाकड़ को कुलपति पद से हटा दिया गया।
सच कहें तो आपातकाल की बरसी के ठीक एक दिन पहले हुए इस घटनाक्रम ने आपातकाल जैसी याद ही दिला दी है। आखिर आप एक कुलपति से क्या चाहते हैं? वह शिक्षा व्यवस्था देखे या फिर डंडा लेकर शिक्षा मंत्री का विरोध करने वालों को हांकने चल पड़े!
पटवारी की यह करतूत क्या आपातकालीन आचरण से किसी भी तरह कम है? राज्य के उच्च शिक्षा मंत्री उन युवा तुर्कों में शामिल हैं, जो बीते पंद्रह साल से गला फाड़-फाड़कर तत्कालीन भाजपा सरकार पर असहिष्णुता के आरोप लगा रहे थे।
उनसे पूछा जाना चाहिए कि कल का घटनाक्रम किस किस्म की सहिष्णुता का प्रतीक माना जाए? उनकी इस मानसिकता को प्रदेश के लिए किस भयावह भविष्य का संकेत समझा जाए? विधानसभा चुनाव के प्रचार के दौरान कांग्रेस के लिए ‘गयी तेल लेने’ वाली बात कहने वाले पटवारी ने कल साबित कर दिया कि अपने अहं के लिए वह वाकई किसी को भी तेल लेने की हद तक चलता कर सकते हैं। फिर चाहे वह राज्य सरकार की मर्यादा ही क्यों न हो।
अब क्या होगा? यह होगा कि प्रदेश का हरेक कुलपति, सरकारी कॉलेजों का एक-एक प्राचार्य और अन्य स्टाफ इसी चिंता में दुबले होते चले जाएंगे कि कहीं उनके संस्थान में जीतू पटवारी का किसी भी रूप में अपमान न हो जाए।
यह दंभ किसी भी लिहाज से उचित नहीं कहा जा सकता। प्रदेश की शिक्षा के विकास के लिए पटवारी के पिटारे में कोई ठोस योजना आज तक नजर नहीं आयी है। हां, यह जरूर दिख गया है कि इस पिटारे के भीतर बदला लेने की भावना वाले जहर से भरे किसी भयावह जीव का ठिकाना है।
यकीन नहीं आता कि यह वही कमलनाथ हैं, जिन्होंने सत्ता संभालते ही अपने खिलाफ बेहद भद्दी बयानबाजी करने वाले एक हेडमास्टर की नौकरी खत्म करने के निर्णय को वापस लिया था। यह यकीन जताया था कि वह बतौर मुख्यमंत्री अपने काम से हेडमास्टर की अपने प्रति नकारात्मक सोच को बदल सकेंगे।
क्या लोकसभा चुनाव में प्रदेश में हुई शर्मनाक पराजय से कांग्रेस की सरकार बौखला गयी है? क्या जन-हित के कमोबेश सभी कामों पर लगे ब्रेक के चलते नाथ सहित उनके तमाम मंत्री झुंझलाहट से भर उठे हैं? महज एक प्रदर्शन के चलते लिए गए इस तुगलकी फैसले को देखकर तो इन दोनों सवालों के जवाब ‘हां’ में ही दिए जा सकते हैं।
नाथ के तमाम मंत्रियों की तरह ही पटवारी भी उन्माद से भरे दिख रहे हैं। अच्छा होता कि यह उन्माद जन-हित में दिखाया जाता। प्रदेश के विकास के लिए इसका इस्तेमाल किया जाता। दुर्भाग्य से न ऐसा हो रहा है और न ही ऐसा होने के आसार दिखते हैं।
पटवारी जैसे मंत्रियों के लिए कान के कच्चे होने का आचरण करते नाथ को यह महसूस करना चाहिए कि प्रदेश में हवा तेजी से उनकी सरकार के खिलाफ चलने लगी है। वल्लभ भवन के वातानुकूलित कक्ष में बैठकर इस हवा को महसूस करना मुश्किल है।
फिर मामला चाटुकारों से घिरकर हर किसी को खुश करने की फितरत का हो तो इस हवा की खबर तक नहींं मिल पाती है। इससे पहले कि यह पवन तूफान का रूप ले, नाथ को संभलना होगा। किसी ने फरमाया है, ‘खुद समझ जाओगे, उसकी चाहतों का रुख है क्या, तुम हवा के समाने मिट्टी उड़ा के देखना।’
नाथ को चाहिए कि अपने इर्द-गिर्द जमती पटवारी जैसी धूल को झाड़कर उसे हवा में उड़ाएं, वह खुद समझ जाएंगे कि पवन का रुख किस कदर उनके बहुत खिलाफ हो चुका है।
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