वर्षा मिर्जा ।
इस निज़ाम में आ से आम नहीं आंदोलन होता है और ड से होता है उसका डर। आम युवा की फ़िक्र ना करना और जब वह किसी प्रदर्शन का हिस्सा बनें तो फिर पूरे देश में ऐसा माहौल बनाना कि ये भ्रमित हैं, दिशाहीन हैं और उन पर गोलियां दाग देना।
राजस्थान,उत्तरप्रदेश,बिहार,उत्तराखंड,कर्नाटक के युवाओं की पेपर लीक की बेचैनी,चयनित प्रशानिक अधिकारियों के नतीजों को रद्द करने की तकलीफ़ और इससे उपजी व्यापक बेरोज़गारी को नज़रअंदाज़ कर सरकार अपनी मदमस्त चाल से चल ही रही थी कि सीमा पर लेह और लद्दाख में हालात बेकाबू हो गए।
शांत प्रदर्शन हिंसक विरोध में बदल गया,भारतीय जनता पार्टी का कार्यालय आग के हवाले हो गया क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि केंद्र उनकी सुनेगा। इतिहास गवाह है कि युवा, वायु के प्रचंड आवेग से होता है जो समय रहते उसकी तक़लीफ़ पर कान नहीं रखे तो फिर उसे आंधी-तूफ़ान में बदलते देर नहीं लगती। यही लद्दाख में हुआ है।
चार युवाओं की जान गई है जिसमें तीन की उम्र 20 से भी कम है और उनके सर में गोलियां लगी हैं। आखिर क्यों सरकार समय रहते बातचीत नहीं करती ? क्यों कोई युवा यह जानते हुए भी कि पुलिस की लाठी,गोली किसी भी पल उसके जीवन का शिकार कर सकते हैं, वह सर पर कफ़न बांध लेता है ?
सरकारों की दिक्कत है, वे ऊपर से चलती हैं और फिर ज़मीन पर उतरती है। आवाम की मुसीबत यह है कि वह ज़मीन पर रह कर तकलीफ़ भुगत रही है। उसे लोकतंत्र की आदत हो गई है, वह चीज़ों को राजदंड से चलते हुए नहीं देखना चाहती।
यूं भी लोकतंत्र कोई आसमानी व्यवस्था का हवाला देकर चलने वाली अवधारणा नहीं है बल्कि यह चलती है पक्ष-प्रतिपक्ष और जनता के बीच निरंतर संवाद से। यह संवाद भीतर के प्रतिरोध से भी बचाता है।
विपक्ष और मीडिया लोकतंत्र का सेफ्टी वाल्व है। अगर विरोध कहीं जन्म भी ले रहा है तो कुकर की सीटी की तरह दबाव यहां से बाहर निकल जाता है। विपक्ष को सरकार शामिल नहीं करती और ना ही मीडिया को ऐसी छूट देती है।
यह गठजोड़ का नया और प्रभावी बिज़नेस मॉडल है। सरकार को डर होता है कि जो विपक्ष को शामिल किया तो वह बिगबॉस के सदस्य क़ी तरह सारा फुटेज ले उड़ेगा।
बेहतर यही है कि हर बार, हर मोड़ पर उसे कोसते रहो। आगे मौका भी उसे ही दो जो और बेहतर ढंग से कोसे। पता नहीं क्यों लेकिन बड़ी और मज़बूत सरकारों में यह डर भी बड़ा देखने में आया है।
लद्दाख की इस बेचैनी और ग़ुस्से को भी मुख्य धारा के मीडिया में कोई जगह नहीं मिली। जगह तब मिलती है जब हिंसा या आगज़नी होती है। नेपाल में नई पीढ़ी इस क़दर उद्वेलित थी, यह दुनिया को कहां पता था। उसकी उग्रता और तक़लीफ़ तब समझी गई जब एक दिन वह उग्र हुई।
इधर एक एक ग़लती भारत सरकार अक्सर करती है। किसी भी आंदोलन पर विदेशी ताक़त के हाथ होने का ठप्पा वह हाथों-हाथ लगा देती है। शाहीन बाग़ (सीएए, नागरिकता संशोधन अधिनियम के ख़िलाफ़) और फिर किसान कानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शनकारी किसानों को लेकर यही नैरेटिव बनाया गया। लद्दाख के बेहद सम्मानित और जनता के लिए समर्पित सोनम वांगचुक को लेकर भी यही जाल बुना गया।
वांगचुक कई बार अपनी आवाज़ बुलंद करने के लिए शांतिपूर्ण प्रदर्शन और भूख हड़ताल कर चुके हैं। ताज़ा हड़ताल शुरू होने के दस दिन बाद बुधवार को हड़ताल पर बैठे बुज़ुर्गों की हालत बिगड़ने लगी।
सरकार ने तुरंत बातचीत की बजाय छह अक्टूबर की तय तारीख़ पर ही बातचीत में दिलचस्पी दिखाई। इस रवैये ने हालात असामान्य बना दिए। हड़ताल की मांग थी कि लद्दाख को पूर्ण राज्य का दर्जा मिले,संविधान की छठी अनुसूची (राज्यों को विशेष वित्तीय,न्यायिक और शासन चलाने के अधिकार जैसे असम ,त्रिपुरा,मेघालयऔर मिज़ोरम को हासिल हैं ) के तहत उन्हें संवैधानिक सुरक्षा हासिल हो,कारगिल-लेह अलग लोकसभा सीटें हों और सरकारी नौकरियों में स्थानीय लोगों की भर्ती हो।
संभव है कि सरकार को सारी मांगे मानने में कुछ दुविधा हो लेकिन लंबे समय से इस शांतिपूर्ण प्रदर्शन को अनदेखा किया गया। 2019 से पहले तक जम्मू, कश्मीर और लेह लद्दाख एक राज्य थे।
इसी साल अनुच्छेद 370 और 35A हटाते समय जम्मू-कश्मीर और लेह-लद्दाख दो केंद्र शासित प्रदेश बना दिए गए। तब सरकार ने हालात सामान्य होने पर पूर्ण राज्य का दर्जा बहाल करने का भरोसा दिया था। छह साल बाद भी यह पूरा नहीं हो सका है।
लद्दाख देश का बेहद सुन्दर और शांतिप्रिय सीमावर्ती हिस्सा है लेकिन इसका चुनाव के लिए इसका सीमांकन फ़िलहाल मुश्किल है। उत्तर पूर्व में चीन से सीमा लगती है और यह सीमा लम्बे समय से विवादित और अचिन्हित है।
1962 के युद्ध के बाद अक्साई चिन पर चीन ने कब्ज़ा जमा लिया और अब भी कई बड़े-बड़े घास के मैदानों में, चरवाहों को जाने की मनाही है। चीन की पैनी और विस्तारवादी निग़ाह अब भी क्षेत्र पर लगी हुई है।
हमारी सेना मुस्तैद है लेकिन चुनाव कराना और नए सिरे से चुनावी क्षेत्रों का सीमांकन मुश्किलें पैदा कर सकता है।
केंद्र फ़िलहाल इसे ना छेड़ने में ही अपनी सुरक्षा देख रहा है जबकि जनता चाहती है कि उनके विकास के लिए उसकी अपनी चुनी हुई विधानसभा हो।
अजीब और दुखद है कि आंदोलन के बाद ऐसा रवैया अपना लिया जाता है जो अब गली-नुक्कड़ों से भी 'आउट ऑफ़ फैशन' हो गया है। सरकार अब सोनम वांगचुक की संस्था के खाते खंगालेगी,उनकी पाकिस्तानी यात्रा की जांच करेगी।
गृह मंत्रालय ने सोनम वांगचुक के संगठन, स्टूडेंट्स एजुकेशनल एंड कल्चरल मूवमेंट ऑफ लद्दाख का लाइसेंस रद्द कर दिया है। संगठन पर विदेशी अंशदान (विनियमन) अधिनियम (एफसीआरए) के तहत कार्रवाई की गई है। इससे पहले गृह मंत्रालय ने वांगचुक पर आरोप लगाया था कि उन्होंने भड़काऊ भाषण देकर युवाओं को गुमराह किया था।
दरअसल, वांगचुक इस साल फरवरी में पाकिस्तान गए थे। उनका एक वीडियो सामने आया था , जिसमें वे कह रहे थे - मैं पाकिस्तान के इस्लामाबाद हूं। यहां क्लाइमेट चेंज कॉन्फ्रेंस में शामिल होने आया हूं।" पाकिस्तान तो देश के और भी नेता गए हैं। वांगचुक पर्यावरण को लेकर अपनी सोच के लिए दुनिया भर में जाने जाते हैं।
भारत में उनके क़िरदार पर एक बहुत लोकप्रिय फिल्म 'थ्री इडियट्स' भी बन चुकी है। वहां उनका नाम फ़ुंशुक वांगडू था।
हालात बेक़ाबू होने के बाद वांगचुक बोले- "शांति का संदेश अनदेखा करने से ऐसे हालात हुए। यह लद्दाख और मेरे लिए सबसे दुखद दिन है। हम पिछले पांच सालों से शांति के रास्ते पर चल रहे हैं। हमने पांच बार भूख हड़ताल की और लेह से दिल्ली तक पैदल चले, लेकिन आज हम हिंसा के कारण शांति के अपने संदेश को विफल होते देख रहे हैं।"
दिल्ली तो मैगसेसे सम्मान प्राप्त सोनम वांगचुक के पैदल चलने में ही डर गई। केंद्र को पहाड़ों की ओर देखना ही होगा।
उत्तराखंड में 'नक़ल जेहाद' बोलकर और लद्दाख में सोनम वांगचुक को कटघरे में खड़ा कर युवाओं की आवाज़ नहीं दबाई जा सकती। सेफ्टी वाल्व नहीं खोले गए तो सरकार की फ़ेहरिस्त में कई आंदोलन जुड़ते जाएंगे।
इस सरकार से बेहतर कौन जानता है कि जन आंदोलन क्या होते हैं? अन्ना हज़ारे और उनके आंदोलन को सरकार कैसे भुला सकती है जिसने मनमोहन सिंह सरकार को पलट दिया था। क्या सरकार को ऐसा लगता है कि आंदोलन की आवाज़ सुनना उस सरकार की ग़लती थी? शायद इसीलिए गृह मंत्री ने सितंबर के दूसरे सप्ताह में आयोजित राष्ट्रीय सुरक्षा रणनीति सम्मलेन में पुलिस अनुसंधान एवं विकास ब्यूरो ( बीपीआरएंडडी )को निर्देश दिया था कि वह आज़ादी के बाद से अब तक हुए जन आंदोलनों की लिस्ट बनाए और उसके आर्थिक, सामाजिक पहलू और उसके पीछे के शातिरों पर शोध कार्य करे।
आ से आम शब्द (जनता) को ही तवज्जो देनी होगी आंदोलन को नहीं।
ताशी नामग्येल लद्दाखी कवि हैं जो लद्दाख विश्विद्यालय में अंग्रेजी के शिक्षक हैं। उनकी कविता में लद्दाख की खूबसूरती को महसूस कीजिये और इस निहायत निर्दोष जगह को बचा लीजिए।
सादा पर्दा पीछे हटने लगता है,
जैसे विशाल हिमालय की अंगुली का फैलाव।
ठंडक नीले आसमान को भी जला देती है
जैसे-जैसे लद्दाख अपने आश्चर्य की ओर बढ़ता है
सुनहरी ठंडी हवा क्षितिज को घेर लेती है,
लोगों को ओम मणि पद्मा हौंग के जाप के लिए जागृत कर
मठ आनंदित हैं,
लद्दाखी लोग अच्छाई की एक सिम्फनी की तरह उभर रहे हैं
दुनिया भर से सैलानियों के आते ही
हर सांस नई खुशियों से भर जाती है
लद्दाख अपनी असली सुंदरता को नुमाया करता है
- S. अफ़सोस पर्यावरणविद और पूरी दुनिया में अपनी वैज्ञानिक सोच के लिए प्रिय सोनम वांगचुक को मोदी सरकार ने गिरफ़्तार कर लिया है। आख़िर कोई अपने ही सम्मानित लोगों के इस क़दर ख़िलाफ़ कैसे हो सकता है?
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