चंद्रभान सिंह भदौरिया।
एक कहावत है कि जब रोम जल रहा था
तब नीरो चैन की बंशी बजा रहा था ..!!
चर्चा है कि झाबुआ के कलेक्टर को CM ने योजनाओं के क्रियान्वयन में देरी और क्रियान्वयन की प्रक्रिया में रिश्वतखोरी रोकने में नाकाम रहने पर हटाया है।
अब सवाल यह उठता है कि प्रभारी मंत्री नाम का एक पद होता है जो जिले का एक तरह से CM होता है।
उसे CM की तरह जिले की योजनाओं के क्रियान्वयन में निगरानी रखनी होती है।
रिश्वतखोरी रोकने और प्रशासनिक कसावट करनी होती है।
लेकिन अब यह सवाल मुख्यमंत्री को जिले के प्रभारी मंत्री इंदरसिंह परमार से जरूर करना चाहिए कि साहब आप बतौर प्रभारी मंत्री क्या देख रहे थे ?
उनकी जवाबदेही तय करनी चाहिए।
गाज क्या सिर्फ प्रशासनिक लोगों पर ही गिरना चाहिए?
क्या राजनीतिक नेतृत्व की कोई जवाबदेही नहीं होनी चाहिए ?
हकीकत यह है कि इंदरसिंह पूरी तरफ प्रभारी मंत्री की भूमिका में फ्लाप साबित हुए हैं।
हमने देखा कि पहले जो प्रभारी मंत्री हुआ करते थे वह महीने - डेढ़ महीने में दो दिवसीय प्रवास करते थे।
बिना बताए औचक निरीक्षण करते थे, जिले में आते ही पहले पार्टी कार्यालय जाकर जाकर पार्टी कार्यकर्ताओं से संवाद कर फीडबैक लेते थे।
स्थानीय मीडिया से बात करते थे, स्थानीय मीडिया भी उन्हें जमीनी हकीकत बताती थी फिर वे अफसरों के साथ समीक्षा बैठक करते थे।
योजनाओं का ज़मीनी क्रियान्वयन देखने के लिए औचक निरीक्षण किया करते थे। लेकिन यह प्रभू यानी प्रभारी मंत्री इंदरसिंह परमार ने ऐसा कुछ नहीं किया।
ना कार्यकर्ताओं से संवाद, ना स्थानीय मीडिया से ना औचक निरीक्षण, नतीजा वही निकला।
जिला प्रशासन के चुनिंदा अफसरों ने ऐसी वसूलियां शुरू कर दीं कि ईस्ट इंडिया कंपनी के अफसरों और मुगलों की आत्माएं तक खुद को धिक्कारने लगीं कि हम ऐसा क्यों नहीं कर पाये वह भी सिस्टम में होते हुए?
खैर अब हालात बदलने के लिए मुख्यमंत्री को खुद तत्काल कदम उठाना पड़ा।
हालात तेजी से सुधरेंगे ऐसी उम्मीद है लेकिन प्रभारी मंत्री बदलेंगे ऐसी उम्मीद कम ही है ।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।
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