Breaking News

चुनावी राजनीति में सफलता के बिना किसी बड़े राजनीतिक बदलाव की उम्मीद बेमानी

खरी-खरी            Oct 24, 2025


राकेश कायस्थ।

राहुल गाँधी के जन्मदिन पर मैंने एक लंबा पोस्ट लिखा था, जिसका केंद्रीय सवाल ये थे कि राहुल गाँधी क्या बनना चाहते हैं, गाँधी या इंदिरा? सवाल इसलिए महत्वपूर्ण था क्योंकि इससे ही काँग्रेस पार्टी और देश का भविष्य तय होगा। सवाल आज भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

भारत जोड़ो यात्रा के बाद राहुल गाँधी लोकप्रियता नई बुलंदी पर पहुँची। लोकप्रियता में बढ़ोत्तरी जारी है। राहुल गाँधी के पक्ष में बुद्धिजीवियों का एक ऐसा जज्बाती तबका उठ खड़ा हुआ है, जिसे उनके बारे में कोई भी आलोचनात्मक बात सुनना ज़रा भी पसंद नहीं है। इतना ही नहीं लगभग विलुप्त हो चुकी कांग्रेसी ट्रोल प्रजाति भी फिर से दिखाई देने लगी है। एक लिहाज से कांग्रेस के लिए यह अच्छा संकेत है।

लेकिन असली सवाल राहुल गाँधी की राजनीतिक यात्रा और उनकी मंजिल को लेकर है। राहुल गाँधी ने पिछले दो-तीन साल में नरेंद्र मोदी के खिलाफ परसेप्शन वॉर में जबरदस्त कामयाबी हासिल की है। सोशल मीडिया पर लोकप्रियता का मामला हो, बड़े सवाल उठाने और जनमत बनाने के मौके हों, वो नरेंद्र मोदी पर भारी पड़े हैं। लेकिन दूसरा पहलू ये है कि वास्तविक राजनीतिक लड़ाइयों में उन्हें मोदी ने हर बार शिकस्त दी है।

बिहार के मोर्चे पर अभूतपूर्व तरीके से माहौल बनाने के बाद राहुल गाँधी अचानक परिदृश्य से गायब हो चुके हैं। वे ना तो बिहार जा रहे हैं, ना कोई बयान दे रहे हैं। कांग्रेस पार्टी में टिकट को लेकर सिर-फुटौव्वल जारी है और महागठबंधन में टूट की आशंकाएं जताई जा रही है।  ऐसे में राहुल की ताजा तस्वीरें बिहार से नहीं बल्कि दिल्ली के घंटेवाला हलवाई के यहाँ से आ रही हैं, जहाँ वो पूरी तन्मयता से इमरती तलते नज़र आ रहे हैं।

शायद राहुल गाँधी को यह लगता है कि देश की जनता उनकी सादगी पर मर मिटेगी और आम आवाम से कनेक्ट करने की उनकी क्षमता  देश में क्रांति ले आएगी। यह बला की मासूमियत है। राहुल गाँधी के सामने सिस्टम पर कब्जा जमा चुका संगठित अपराध तंत्र खड़ा है और संगठन विहीन राहुल लगभग निहत्थे हैं।

इमेज के सिवा राहुल गाँधी के पास कुछ भी नहीं है। वो अपनी पार्टी के भीतर के अंदरूनी लड़ाइयां सुलझाने में पूरी तरह नाकाम रहे हैं। एक गठबंधन का नेतृत्व करने के लिए जिस राजनीतिक कौशल और चातुर्य की आवश्यकता वह उनमें नहीं है। अगर संगठन क्षमता होती तो राहुल 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद रूठकर अध्यक्ष पद नहीं छोड़ते।

कांग्रेस पार्टी राहुल गाँधी के बिना नहीं चल सकती और राहुल गाँधी पार्टी चला नहीं सकते। फिर इस देश में विपक्ष की राजनीति का भविष्य क्या होगा? आदर्श स्थिति यह होती कि राहुल खुद को कांग्रेस पार्टी के फादर फिगर के रूप में परिवर्तित करते और पार्टी चलाने का जिम्मा वैसे लोगों पर छोड़ देते, जिनके पास सांगठनिक तौर पर कांग्रेस खड़ा करने की क्षमता है।

मगर राहुल ऐसा नहीं कर पा रहे हैं। महात्मा गाँधी के पास एक नैतिक शक्ति थी, इसलिए राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान ज्यादातर मौकों पर उन्होंने असहमत कांग्रेस ही नहीं बल्कि असहमत देश को भी अपने पीछे चलने को विवश किया। अर्ध महात्मा होकर कोई गाँधी नहीं बन सकता।

राहुल जिक्र तो गाँधी का करते हैं लेकिन अपने लिए राजनीतिक नतीजे इंदिरा गाँधी वाले चाहते हैं। यह नामुमकिन है। इंदिरा गाँधी जैसे राजनीतिक परिणामों के लिए इंदिरा गाँधी बनना पड़ेगा।

किसी भी राज्य के कांग्रेस दफ्तर में घूमते हुए चले जाइये, आपको अंदाज़ा होगा कि यह कितनी निर्जीव पार्टी है। अगर राहुल ये भी कह देते कि उन्हें अगले पाँच-दस साल तक सत्ता नहीं चाहिए, वह सिर्फ काँग्रेस पार्टी को पुनर्जीवित करना चाहते हैं, एक देश का एक बड़ा तबका उनके साथ उठ खड़ा होता।

देश का एक बड़ा वोटर समूह अब भी उनके साथ है लेकिन, ऐसा लगता है, खुद उनकी पार्टी उनके साथ नहीं है। बिहार के चुनाव को लेकर जो कुछ चल रहा है, उसे देखकर यह धारणा और मजबूत होती है।

चुनावी राजनीति में सफलता के बिना किसी बड़े राजनीतिक बदलाव की उम्मीद बेमानी है और इस सफलता के लिए यह जरूरी है कि देश के सबसे बड़े विपक्षी दल के रूप में कांग्रेस अपनी जिम्मेदारी ठीक से निभाये।       

(फोटो सौजन्य-- इंडियन एक्सप्रेस)

 


Tags:

bihar-assembly-election congress-party malhaar-media rahul-gandhi

इस खबर को शेयर करें


Comments