ममता मल्हार।
वाह मन्त्रीजी वाह! क्या बात कही आपने! वैसे मेहमानों से वोट भी नहीं लिया जाता, क्योंकि ऐसा वोटर स्थायी निवासी नहीं होता। वैसे मन्त्रीजी लंबे समय तक केंद्र में रहे हैं पर मूल निवासी तो मध्यप्रदेश के ही हैं, तो यह उम्मीद तो की ही जा सकती है कि उन्हें यह इतिहास भी पता होगा कि नियमित शिक्षकों को कैसे अतिथि बनाकर सिर्फ और सिर्फ़ मुद्दा बनाकर छोड़ दिया गया है? वैसे ये जो सरकार होती है न ये घर तो सरकर में बैठे लोगों का भी नहीं होती है।
जो यहां तक पहुंचाए जाते हैं वे 5 साल के लिये पहुंचाए जाते हैं और मंत्री पद तय होने के बाद शपथ क्या लेते हैं, यह भी बताने की जरूरत नहीं। कायदे से तो नियमित विधायक, सांसद भी नहीं होते पर वे वेतन पेंशन और तमाम सुविधाओं के हकदार होते हैं। बस जनता न नौकरी मांगे, नौकरी मिल भी जाये तो नियमितीकरण के लिये न कहे और पेंशन वो क्या होती है?
यही हाल रहा तो एक-दो जनरेशन के बाद के लोग तो पेंशन शब्द ही भूल जाएंगे।मन्त्रीजी को बधाई उन्होंने अपने, अपनी पार्टी के वोटर को घर में ही मेहमान बनाकर यह भी कह दिया कि घर में घुसोगे क्या? धन्य-धन्य राजनीति
नियमितीकरण, वेतन बढ़ाने की मांग करते सालों प्रदर्शन करते-करते वे दलबदल औऱ सत्ता परिवर्तन की तिकड़म में नेताओं को सत्ता तक पहुंचाने का जरिया तो बन गए पर खुद वहीं के वहीं रह गए। सैकड़ों मर गए। कोई बीमारी में तो कई आर्थिक अभावों से तंग आकर खुद ही मौत को गले लगा चुके। मुझे याद है जब कांग्रेस सरकार ने संविदा नौकरियों की शुरुआत की थी। वर्ष 2003 में शिक्षकों ने प्रदर्शन किया और पहली बार शिक्षकों पर लाठियां चलीं।
तब बिजली-पानी-सड़क से पहले शिक्षकों पर चली लाठी बदलाव की लहर का कारण बन चुकी थी। शाहजहानी पार्क से नीलम पार्क के बीच यह हुआ। उसके बाद जैसे सरकारों को हर नौकरी को ठेके पर देने का चस्का लग गया। अब आधुनिक नाम आउटसोर्स कर्मचारी है।
शिक्षकों की तरह अतिथि विद्वान भी भटक रहे हैं। तो कहीं असिस्टेंट प्रोफेसर सिलेक्ट होने के बाद भी 13 प्रतिशत को पोस्टिंग ही नहीं मिल पा रही। आरक्षण के घालमेल में इधर से उधर। मेरी फेलोशिप के दौरान एक समाचार पर नजर गई डीपीआई के सामने कुछ अतिथि शिक्षक स्थायी तम्बू गाड़ चुके थे। बारी-बारी से वहां बैठते थे।
तमाम दुश्वारियों के बीच गांव और दूर दराज के इलाकों में पढ़ाने वाले उन शिक्षकों को भी सलाम जो कई कठिन रास्तों से होते हुए कभी बस कभी दूसरे पब्लिक ट्रांसपोर्ट से इन स्कूलों में पढ़ाने जाते हैं। उनकी सुबह से शाम तक स्कूल के नाम ही रहती है।
जनगणना, मतदान पर्ची, आदि के वितरण से लेकर अन्य सर्वे टाइप के तमाम काम इन्हीं के हवाले होते हैं।
फिर बोर्ड परीक्षाओं में अच्छे रिजल्ट की उम्मीद भी इनसे। बीच-बीच में यह भी खबरें चलती रहती हैं कि फलां काम की वजह से सिलेबस अधूरा बोर्ड परीक्षा सर पर।
दिलचस्प है पहले कांग्रेस इसी मुद्दे पर जीतकर सरकार में आई, फिर मनमुताबिक पोजिशन न मिलने पर वर्तमान केंद्रीय मंत्री और तत्कालीन कांग्रेस नेता यह कहकर पार्टी छोड़ गए कि मैं उन अतिथि शिक्षकों के लिये सड़क पर उतर जाऊंगा। पर आज वे उड्डयन मंत्री हैं तो अतिथि शिक्षकों की सड़क का क्या...? फ़िर भाजपा सरकार आई पर बहुत कुछ बदला नहीं।
नियमितीकरण आज भी बड़ा सवाल है। सर्वपल्ली राधाकृष्णन के नाम पर शिक्षक दिवस मनाने वाले देश में ज्यादातर हिंदी राज्यों में शिक्षकों की दशा यही है। इस सबके बीच भी कुछ शिक्षक कभी-कभी वायरल होते हैं बच्चों को पढ़ाते हुए उन्हें गणित के सूत्र, पहाड़े और गिनती याद करने की अनोखी तकनीक खेल-खेल में रोचक तरीके से सिखाते हुए।
जिजीविषाओं, उम्मीदों, सपनों बच्चों के भविष्य से जुड़ा व्यक्ति जमीनी संघर्ष के साथ मन-मस्तिष्क के संघर्ष से भी जूझता रहता है। फिर भी बच्चों को पढ़ाता है उन्हें दिशा देता है, एक नागरिक गढ़ता है। कुछ नकारात्मक उदाहरण होते हैं पर सकारात्मक भी बहुत हैं। क्या कारण है लोग अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों में नहीं पढ़ाना चाहते? इस पर सोच-समझकर, समस्या की जड़ को पकड़कर सुधार करना सरकारों के लिये कोई बड़ा काम नहीं है, बशर्ते नियत हो।
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