सचिन जैन।
इसमें कोई शक नहीं रह गया है कि आधुनिक भारत के लोग मतदान को एक कम महत्व का काम मानने लगे हैं।
विशेष रूप से शहरी समाज और मध्यम-उच्च मध्यमवर्ग विशेष रूप से सोचने लगा है कि उनका मतदान करना जरूरी नहीं है।
वे यह महसूस नहीं कर पा रहे हैं कि भारत के लोकतंत्र को कमजोर करने में वे ही सबसे केंद्रीय भूमिका निभा रहे हैं।
मतदान के अधिकार के स्वरुप से ही तय होता है कि शासन व्यवस्था के प्रबंधन का अधिकार किसको दिया गया है?
स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल रहे राष्ट्रवादी संगठनों की मांग थी कि विधान परिषदों में भारतीयों को प्रतिनिधित्व प्रदान किया जाए।
इसके लिए भारत सरकार अधिनियम, 1909 और फिर 1919 में कुछ व्यवस्थाएं बनाई गईं, लेकिन उन्हें स्वीकार्यता और मान्यता नहीं मिली।
भारत सरकार अधिनियम, 1935 का मकसद भारतीय संघ (फेडरेशन ऑफ इंडिया) की रचना करने का था, लेकिन यह संघ कभी नहीं बन पाया।
साइमन आयोग, भारत में संवैधानिक सुधारों पर ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार द्वारा तैयार किए गए श्वेत पत्र, के आधार पर भारत सरकार अधिनियम, 1935 की रचना की गई।
यह अधिनियम ब्रिटिश शासन व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने के लिए ऐसे तंत्र का निर्माण करता था, जिससे ब्रिटिश शासन व्यवस्था को भारतीयों की मान्यता मिल जाए।
एक तरफ इसमें केंद्रीय (संघीय) स्तर पर द्वि-परिषद (राज्यों की परिषद और संघ परिषद – काउंसिल ऑफ स्टेट्स और फेडरल असेंबली) का प्रावधान किया गया, तो दूसरी तरफ प्रांतों के स्तर पर प्रांतीय विधान परिषद की व्यवस्था बनाई गई।
भारत सरकार अधिनियम, 1935 के अनुच्छेद 18 के मुताबिक संघ स्तर पर राज्यों की परिषद के लिए कुल 260 सदस्यों के लिए स्थान निर्धारित किए गए।
इनमें से 156 सदस्य प्रांतों (ब्रिटिश भारत के राज्यों) और 104 सदस्य भारतीय रियासतों की तरफ से चुने जाने थे।
इसके साथ ही संघ परिषद के लिए कुल 375 स्थान तय किए गए, जिनमें ब्रिटिश भारत के प्रांतों के लिए 250 स्थान और भारतीय रियासतों के लिए 125 स्थान निर्धारित थे।
राज्यों की परिषद (जिसे ऊपरी सदन भी कहा जा सकता है) कभी भंग नहीं होने वाली परिषद थी।
हर तीन वर्षों में इसके एक तिहाई सदस्य बदलने का प्रावधान था। दूसरी तरफ संघ परिषद का कार्यकाल 5 वर्ष तय किया गया था।
स्वतंत्रता से पहले चुनाव की व्यवस्था
राज्यों की परिषद (संघ स्तर)
राज्यों की परिषद (काउंसिल ऑफ स्टेट्स) के लिए ब्रिटिश भारत के प्रांतों की विधान परिषदों के सदस्यों को अपने प्रतिनिधि चुनकर इस सदन के लिए भेजने की व्यवस्था की गई थी।
भारत की सभी प्रांतीय परिषदों के लिए निर्धारित कुल 156 सदस्यों में से 150 का चुनाव प्रांतीय परिषद को प्रत्यक्ष निर्वाचन के माध्यम से करना था जबकि छह सदस्यों के चुनाव का विशेषाधिकार गवर्नर जनरल को दिया गया था।
प्रांतीय परिषदों के 150 स्थानों में से 75 प्रतिनिधियों का चुनाव हिन्दुओं और अन्य समुदायों को करना था। 49 प्रतिनिधियों का चुनाव मुस्लिम समुदाय के मतदाताओं को करना था, 4 प्रतिनिधि सिखों द्वारा चुने जाने थे।
6 स्थान महिलाओं और 6 स्थान अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थे।
राज्यों की परिषद के प्रतिनिधियों का चुनाव प्रत्यक्ष निर्वाचन से होना था लेकिन बेहद सीमित जनसंख्या को ही मतदान का अधिकार दिया गया था।
इन चुनावों में आयकर चुकाने वाले, जमींदार-भूस्वामी, आवासीय संपत्ति रखने वाले, साक्षर-प्राथमिक-मैट्रिक स्तर की शिक्षा हासिल कर चुके, ब्रिटिश शासन व्यवस्था में सेवारत, सेना में काम करने वाले व्यक्ति ही मतदान कर सकते थे।
इस परिषद के लिए भारतीय रियासतों के राजप्रमुख/शासक अपने प्रतिनिधि मनोनीत कर सकते थे. वही रियासतें संघ की राज्यों की परिषद के लिए अपनी प्रतिनिधि भेज सकती थीं, जिन्होंने भारतीय संघ (फेडरेशन ऑफ इंडिया) में शामिल होना स्वीकार कर लिया हो। बड़ी रियासतों को उनकी जनसंख्या के आधार पर राज्यों की परिषद में प्रतिनिधित दिया गया था।
हैदराबाद को 5, मैसूर, कश्मीर, ग्वालियर, बड़ोदा को तीन-तीन स्थान मिले लेकिन छोटी रियासतों को समूह बना कर स्थान आवंटित किए गए थे।
मसलन जावरा और रतलाम को एक स्थान, बड़वानी, अलीराजपुर और शाहपुरा को मिलाकर एक स्थान, पोरबंदर और मोरवी को एक स्थान दिया गया। एक तरह से छोटी रियासतों को समूह में रख दिया गया था।
इसके साथ ही यह व्यवस्था की गई कि उन्हें आपसी सहमति से राज्यों की परिषद के लिए सदस्य का चुनाव करना है. बड़ी रियासतें, जिन्हें अकेले अपना सदस्य चुनना था, उनका कार्यकाल 9 वर्ष था।
जबकि साझा सदस्य चुनने वाली रियासतों के समूह के सदस्यों का कार्यकाल तीन-तीन वर्ष तय किया गया।इतना ही नहीं समूह में मिलकर सदस्य चुनने वाली रियासतें बारी-बारी से अपने सदस्य परिषद में भेज सकती थीं।
भारतीय रियासतों द्वारा चयनित सदस्य की नियुक्ति या किसी भी तरह के संदेह या विवाद की स्थिति में गवर्नर जनरल को नियम बनाने और निर्णय लेने का अधिकार दिया गया था।
संघ परिषद (फेडरल असेंबली) (संघ स्तर)
संघ परिषद के लिए कुल 375 स्थान निर्धारित किए गए थे। इनमें से ब्रिटिश भारत के प्रांतों को 250 सदस्य और भारतीय रियासतों को 125 सदस्य चुनकर भेजने थे।
भारतीय रियासतों को तो अपने प्रतिनिधि वैसे ही चुनने थे, जैसे कि राज्यों की परिषद के लिए तय किया गया।
कुछ रियासतों ने भी विधान परिषद सरीखी व्यवस्था स्थापित करना शुरू कर दी थी। अतः वे भी चुनाव का तरीका अपना सकती थीं।
ब्रिटिश भारत के प्रांतों (राज्यों) की प्रांतीय विधान परिषद के सदस्यों को संघ परिषद के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करना था।
दूसरे अर्थों में प्रांतीय परिषद के सदस्य संघ परिषद के चुनाव में प्राथमिक मतदाता थे. संघ परिषद के लिए अप्रत्यक्ष निर्वाचन की व्यवस्था बनाई गई थी।
ब्रिटिश भारत की प्रांतीय परिषदों को जिन 250 प्रतिनिधियों को चुनना था, उनमें से 105 स्थान सामान्य श्रेणी के थे। इनमें 19 स्थान अनुसूचित जाति के लिए आरक्षित थे।
पृथक निर्वाचिका (सेपरेट इलेक्टोरेट) की व्यवस्था के आधार पर सिखों के लिए 6, मुस्लिमों के लिए 82, एंग्लो-इंडियन के लिए 4, यूरोपीय समुदाय के लिए 8, वाणिज्य और औद्योगिक समूहों के लिए 11, भू-स्वामियों के लिए 7, मजदूरों के प्रतिनिधियों के लिए 10 और महिलाओं के लिए 9 स्थान तय किए गएध थे।
प्रांतीय परिषदों में सिखों और मुस्लिमों के चुनाव के लिए केवल सिख और मुस्लिम प्रतिनिधि की मतदान कर सकते थे।
संघ परिषद के लिए निर्धारित वाणिज्य और उद्योगों, भू-स्वामियों, मज़दूरों के प्रतिनिधियों का चयन इन्हीं वर्गों की सभाओं-संगठनों को करना था।
संघ परिषद के चुनाव के लिए प्रांतीय परिषद के सदस्यों/प्रतिनिधियों को “प्राथमिक मतदाता” (प्राइमरी इलेक्टोरेट) माना गया था। ये प्राथमिक मतदाता संघ परिषद के सदस्यों के चुनाव के लिए शक्तिसंपन्न थे।
ब्रिटिश भारत में प्रांतीय विधान सभा और विधान परिषद (राज्य स्तर)
ब्रिटिश भारत के प्रांतों (राज्यों) में भी दो सदनों की व्यवस्था की गयी थी. इन्हें विधान सभा (लेजिस्लेटिव असेंबली) और विधान परिषद (लेजिस्लेटिव काउंसिल) की कहा जाता था।
सभी प्रांतों की विधान सभा के लिए कुल 1,585 स्थान तय किए गए. ये स्थान प्रत्यक्ष चुनाव से भरे जाने थे। इस सभा में सामान्य स्थान, सिखों, मुस्लिम समुदाय, भारतीय ईसाइयों, एंग्लो-इंडियन, यूरोपियन समुदाय, जमींदार, विश्वविद्यालय, उद्योग और वाणिज्य तथा महिलाओं के लिए स्थान निर्धारित थे।
इसी तरह विधान परिषद में कुल 517 स्थान निर्धारित थे. जिनमें सामान्य स्थान, मुस्लिम, यूरोपीय, भारतीय ईसाई आदि के लिए स्थान तय थे।
इसमें सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि को चुनने के लिए मुस्लिम, यूरोपियन या भारतीय ईसाई मतदान नहीं कर सकते थे।
इसी तरह मुस्लिम प्रतिनिधि स्थान के लिए यूरोपियन मतदान नहीं कर सकते थे।
यानी सामान्य वर्ग के प्रतिनिधि का चुनाव सामान्य वर्ग के मतदाता, मुस्लिम प्रतिनिधि का चुनाव मुस्लिम मतदाता, एंग्लो-इंडियन प्रतिनिधि का चुनाव एंग्लो-इंडियन मतदाता और भारतीय ईसाई का चुनाव भारतीय ईसाई ही कर सकता था।
प्रांतीय विधान सभा के चुनाव
भारत सरकार अधिनियम, 1935 में प्रांतों (राज्यों) को अधिक स्वायत्तता देने के मकसद से प्रांतीय परिषदों के चुनाव और गठन की व्यवस्था की गई थी. ब्रिटिश भारत में 11 प्रांत (मद्रास, बम्बई, बंगाल, संयुक्त प्रांत, पंजाब, बिहार, मध्य प्रांत और बरार, असम, उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत, उड़ीसा और सिंध) और चार मुख्य आयुक्त नियंत्रित क्षेत्र (ब्रिटिश बलूचिस्तान, दिल्ली, अजमेर-मेरवाड़ा और कूर्ग) थे।11 प्रांतों की विधान परिषद के लिए कुल 1,585 विधायी स्थान निर्धारित थे।
प्रांतीय परिषद में प्रतिनिधित्व का वर्गीकरण इस प्रकार किया गया था – सामान्य स्थान, पिछड़े क्षेत्र और पिछड़ी जनजातियां, सिख समुदाय, मुस्लिम समुदाय, एंग्लो-इंडियन समुदाय, यूरोपियन समुदाय, भारतीय ईसाई समुदाय, वाणिज्य, उद्योग, खनन और वानिकी, भू-स्वामी, विश्वविद्यालय और मजदूर।
किन्हें मिला था मतदान का अधिकार (वर्ष 1935)?
प्रांतों की विधान सभा के लिए मतदाताओं की सूची कुछ पात्रता शर्तों के आधार पर बनाई गई थी. अलग-अलग प्रांतों में मतदाता होने के लिए अलग-अलग पात्रताएं थीं।
सामान्य बुनियादी पात्रता – मद्रास प्रांत में जो व्यक्ति विधान परिषद क्षेत्र में बीते वित्तीय वर्ष में कम से कम 120 दिन निवासरत रहा हो। जबकि बम्बई प्रांत में व्यक्ति के निवास की अवधि 180 दिन, संयुक्त प्रांत और पंजाब में व्यक्ति का स्थानीय निवासी होना जरूरी माना गया।
कर भुगतान के आधार पर पात्रता – मद्रास प्रांत में जिस व्यक्ति ने मद्रास मोटर व्हीकल टैक्सेशन अधिनियम, 1931 के तहत वर्ष भर का कर अदा किया हो या मद्रास नगर पालिका अधिनियम, 1919, मद्रास जिला परिषद अधिनियम, 1920 या सैनिक छावनी अधिनियम, 1924 के अंतर्गत प्रांतीय व्यवसाय कर अदा किया हो या आयकर अदा किया हो।
बम्बई, संयुक्त प्रांत, पंजाब, बिहार, मध्य प्रांत और बेरार में भी आयकर भुगतान को पात्रता माना गया। बंगाल प्रांत में भी बंगाल मोटर व्हीकल टैक्स एक्ट, 1932 के तहत कर देने वाला व्यक्ति पात्र माना गया। बिहार में जिस व्यक्ति ने कम से कम डेढ़ रुपए का कर चुकाया हो, उसे मतदान का अधिकार दिया गया। उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में भी आय कर, नगर निकाय कर के आधार पर पात्रता तय की गयी।
संपत्ति के आधार पर पात्रता – जो व्यक्ति मद्रास एस्टेट्स लैंड अधिनियम, 1908 के अंर्गत बीते फसली वर्ष के आखिरी दिन पंजीकृत भू-स्वामी, ईनामदार, रैय्यतवारी पट्टेदार हो या बीते फसली वर्ष में सरकार को भूमि किराया दिया हो या बीते फसली वर्ष में मालाबार टेनेंसी एक्ट में निश्चित अवधि के लिए कनामदार (बटाईदार) या कुजहीकनामदार रहा हो या संयुक्त भू-धारिता होने पर जिसका वार्षिक किराया 1,000 रुपए या अधिक रहा हो। संयुक्त प्रांत और पंजाब में व्यक्ति के पास इतनी जमीन हो, जिसका भू-राजस्व सालाना कम से कम पांच रुपए चुकाया जाता हो. पंजाब में अगर किराए पर छह एकड़ सिंचित या बारह एकड़ असिंचित जमीन ली हो, पंजाब प्रांत में ऐसी अचल संपत्ति का मालिक हो, जिसकी कीमत 2,000 रुपए से कम न हो। उत्तर पश्चिम सीमा प्रांत में छह एकड़ सिंचित या बारह एकड़ असिंचित जमीन का स्वामी हो या कम से कम दस रुपए के भू-राजस्व की श्रेणी में आता हो। सिंध प्रांत में व्यक्ति के पास कराची में अपना या किराए का घर हो या किसी नगर में कोई घर हो।
अगर पात्र व्यक्ति नाबालिग हो – अगर व्यक्ति किसी ऐसे नाबालिग का अभिभावक है, जो यदि वयस्क होता तो उसे मतदान का अधिकार होता।
साक्षरता – मद्रास में साक्षर व्यक्तियों को भी मतदान का पात्र माना गया लेकिन बम्बई, सिंध, बिहार और बंगाल में मैट्रिक उत्तीर्ण या इसके समकक्ष शिक्षा होना जरूरी माना गया, जबकि संयुक्त प्रांत में अपर प्राथमिक स्तर की शिक्षा को जरूरी माना गया. पंजाब प्रांत में प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा जरूरी मानी गई।
ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार में सेवारत – यदि कोई व्यक्ति ब्रिटिश साम्राज्य की सरकार से सेवानिवृत्त है, पेंशन पाता है या ब्रिटिश सेना में सैनिक है. किसी सैनिक की विधवा भी मतदान की पात्र मानी गई।
लेखक निदेशक विकास संवाद और सामाजिक शोधकर्ता हैं।
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