मनोज कुमार।
कुछेक तारीखें हमारी छाती पीटने के लिए तय कर दी गई हैं. विलाप करने का मौका भी ये तारीखें हमें देती हैं. इन्हीं तारीखों में 5 जून भी एक ऐसी ही तारीख है जिस दिन पर्यावरण सुरक्षा के नाम पर सियापा करते हैं और दिन बीतते ना बीतते हम 5 जून को बिसरा देते हैं.
खैर, ऐसा करना हम भारतीयों की जीवनशैली बन गई है क्योंकि हम उत्सव प्रेमी हैं और किसी भी तारीख पर उत्सव की बेसब्री से प्रतीक्षा करते हैं.
पर्यावरण का संकट दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है. ज्यों ज्यों किया इलाज, त्यों-त्यों बढ़ता गया मर्ज वाली कहावत चरितार्थ हो रही है. पर्यावरण के जानकार चेता रहे हैं, सजग कर रहे हैं लेकिन हमारी नींद नहीं टूट रही है. पर्यावरण संरक्षण के लिए अकेले सरकार को कटघरे में खड़ा करना या उसकी जवाबदारी तय करना अनुचित है.
पर्यावरण संरक्षण में समाज की भागीदारी सुनिश्चित किया जाना चाहिए. आखिरकार सरकार हम बनाते हैं और हम ही सरकार हैं. इसलिए समाज को पर्यावरण की दिशा में पहले जागरूक होना होगा. किसी और पर जिम्मेदारी डालकर फौरीतौर पर हम बच सकते हैं लेकिन दुष्परिणाम हमें ही भुगतना होगा.
चेरापूंजी की बारिश कितने बच्चों को याद है? शायद उन्हें ही स्मरण में होगा जिनके प्रश्नपत्र में यह सवाल पूछे जाते हों. कितने बुर्जुगों को याद होगा कि उन्होंने अपने नाती-पोतों के जन्म के अवसर पर गांव या मोहल्ले में तालाब का निर्माण कराया हो या पहले से बने तालाबों के गहरीकरण में कोई योगदान दिया हो?
कितने लोग आज भी बारिश की पहली बूंदों से भीगी मिट्टी की खुश्बू से आल्हादित हो जाते हैं? सबकुछ अंगुलियों में गिनने लायक ही बच गया है. हम परम्परा से दूर भाग रहे हैं और विकास के भेंट चढ़ रहे हैं.
शेष दुनिया की बात ना करें और इस दिवस को भारत तक ही केन्द्रित रखें तो हमें निराशा ही मिलेगी. भारत गांवों का देश कहलाता है और हमारी जीवनशैली और देशों की तुलना में भिन्न है.
हम लोग ठेठ देशज हैं लेकिन विकास की आंधी में हमारी देशी जीवनशैली गुम होती जा रही है. एक समय था जब बारिश की पहली बूंदों के साथ मिट्टी की सोंधी गंध हमारे नथुनों में भर जाती थी. चेहरे पर इस गंध से एक मुस्कान उभर आती थी और आज कहीं दूर-दराज के इलाकों में शायद ही कभी ऐसा हो.
माटी के ऊपर हमने क्रांकीट की सडक़ें बिछा दी है. धरती के भीतर बारिश का जो पानी समा जाता था, उसके रास्ते हमने बंद कर दिए हैं. तेज फर्राटा से भागने वाली सड़कों के कारण हम अब उस तापमान में जी रहे हैं जो भारत की कल्पना से बाहर थी. पेड़ों की कटाई, प्लास्टिक का बेहिसाब इस्तेमाल और ई-कचरा से जीवन में घुलता जहर.
उल्लेखनीय है कि समाज की चिंता करते हुए संयुक्त राष्ट्र अलग अलग समस्याओं पर तारीख निर्धारित कर जनमानस को जागरूक करने का प्रयास करता है. इसी क्रम में 1972 में संयुक्त राष्ट्र द्वारा मानव पर्यावरण विषय पर संयुक्त राष्ट्र्र महासभा का आयोजन किया गया था. इसी महासभा में विश्व पर्यावरण दिवस का सुझाव भी दिया गया और इसके दो साल बाद, 5 जून 1974 से इसे मनाना भी शुरू कर दिया गया.
विश्व पर्यावरण दिवस पर्यावरण की सुरक्षा और संरक्षण हेतु पूरे विश्व में मनाया जाता है। विश्व पर्यावरण दिवस को अलग अलग देशों में हर वर्ष मनाना सुनिश्चित किया गया. साथ ही हर वर्ष इस दिन के लिए अलग अलग थीम का निर्धारण किया गया. इस बात को कितने लोगों को स्मरण होगा कि जब पहली बार संयुक्त राष्ट्र महासभा के मंच पर बोलने का अवसर मिला तो भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने पर्यावरण संरक्षण के प्रति सचेत करते हुए अपना व्याख्यान दिया था.
भारतीय समाज की मानसिकता आगे पाठ, पीछे सपाट होता है. लगभग साढ़े चार दशक से दुनिया में इस बात को लेकर बहस चल रही है कि समय रहते हम नहीं चेते तो पर्यावरण का सत्यानाश हो जाएगा. आज हम इस संकट से प्रतिदिन जूझ रहे हैं. सुविधा हमारे लिए सर्वोपरि हो गया है और पर्यावरण दूसरे पायदान पर चला गया है.
पर्यावरण संरक्षण की दिशा में समाज के साथ शासन-सत्ता का भी योगदान अहम है लेकिन सरकार की दोहरी नीति के कारण पर्यावरण बदहाल हुआ जा रहा है. सरकार ने सडक़ों पर बेहिसाब दौड़ती गाडिय़ों पर नियंत्रण पाने के लिए कई किस्म के जतन किए हैं. सख्ती भी बरती है लेकिन उसकी दोहरी नीति से उसके ही बनाये कानून तार तार हो रहे हैं.
सरकार का नियम है कि 15 वर्ष से पुरानी गाडिय़ों को चलन से बाहर किया जाएगा. तकनीकी रूप से माना गया कि ऐसी गाडिय़ां कंडम हो जाती हैं और प्रदूषण को ज्यादा फैलाती हैं. कई बार बड़े हादसे भी इन गाडिय़ों की वजह से होता है.
यह बात ठीक है लेकिन सरकार स्वयं समय-समय पर उपयोग की गई गाडिय़ों की नीलामी करती है. नीलामी के लिए रखी गई गाडिय़ां अपनी औसत उम्र 15 वर्ष पूर्ण कर चुकी होती हैं. सवाल यह है कि सरकार इस बात के लिए क्यों चिंतित नहीं है कि जो गाडिय़ां तकनीकी रूप से कंडम हो चुकी है, उन्हीं गाड़ियों की नीलामी की जाएगी तो दुबारा चलन में आएगी.
एक आम आदमी की गाड़ी पर 15 साल का बंधन और दूसरी तरफ स्वयं सरकारी गाडिय़ों की नीलामी? जो सरकारी नीलामी में कीमत चुका कर गाड़ी खरीदेगा, वह उसे चलाएगा भी. तब पर्यावरण प्रदूषण नियंत्रण में सरकार की नीति और नीयत पर सवाल उठना लाजिमी है.
सरकार को चाहिए कि वह 15 या इससे अधिक समय से उपयोग की गई शासकीय वाहनों को नीलाम करने के बजाय डिस्ट्राय करें ताकि सरकार की नीति-नियम और नीयत में एकरूपता हो.
इसी तरह यूज्ड कारों का बड़ा मार्केट है. इस पर भी सरकार को नियंत्रण पाने की जरूरत है. संभवत: यूज्ड कार विक्रेताओं के पास ऐसा अधिकार नहीं होता है लेकिन सरकार के परिवहन विभाग की सख्ती ना होने से इसका चलन बढ़ता जा रहा है.
इन कारों के विक्रय से कई तरह की सामाजिक समस्या उठ खड़ी हो रही हैं. पहले तो यह पर्यावरण का सत्यानाश करती हैं और दूसरे यह तय करना मुश्किल होता है कि गाड़ी कहीं चोरी की तो नहीं.इसमें मध्यमवर्गीय क्रेता उलझ जाता है और उससे कई प्रकार की कठिन कानूनी प्रक्रिया से गुजरना पड़ता है.
पर्यावरण संरक्षण की चर्चा करते समय हम इन मुद्दों पर भी चर्चा करें. पौधे लगाना, प्लास्टिक का उपयोग रोकना और जलसंरक्षण की दिशा में स्वप्रेरित होना तो आवश्यक है ही, पर्यावरण को बचाने में हम सब मिलकर साथ खड़े हों तभी कुछ कदम आगे चल सकेंगे. वरना विलाप करने के लिए आपके पास अगले साल भी 5 जून की तारीख होगी.
लेखक वरिष्ठ पत्रकार एवं समागम पत्रिका के संपादक हैं
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