 संदीप वर्मा।
एक समय था मीडिया सम्पादकों के पास कहने को एक रद्दी की टोकरी होती थी जिसका प्रयोग पाठको के पात्र यानी पाठको के विचार को कचरा मानकर प्रयोग करते थे। भारत का मीडिया कब सत्ता की राजनीति और दलाली की कमाई के आसपास ही घूमने लगा ,इसका अहसास जनता को भले ही ना हो पाया हो मगर जनता ने मीडिया से खुद को दूर जरूर पाया। मीडिया से जुड़े व्यवसायिक लेखक पत्रकार आम जनता के लिए बौद्धिक आतंकवादी की भूमिका में लगने लगे। जनता के सरोकार से जुड़े गिने चुने बचे पत्रकार किसी एलियन की भाँती दूसरे गृह के प्राणी नजर आने लगे।
ऐसे समय में अचानक फेसबुक के रूप में जनता के एक बहुत बड़े वर्ग को अपनी अभिव्यक्ति और विचारों को लोगों से कहने का मौक़ा मिल गया। सैकड़ों सालों से मुंह में पट्टी बाँध कर रहने की परम्परा , की-बोर्ड पर उंगलियों के नृत्य से टूटने लगी। महिलाएं जो कभी महज कुछ कविताएं लिखती दिखती थीं ,अब विचारों और तर्क के मैदान पर जम गयीं। गूंगा दलित चीख—चीख कर सारी दुनिया को अपनी आवाज सुनाने को बेताब होने लगा। वंचित और पिछड़े समुदाय अपनी मेरिट पर लगे प्रश्न चिन्ह से घबडाना छोड़कर विचारों के मैदान में अखाड़े में ताल ठोकने लगे। 
जीवन भर नौकरी में अनुशासन रूपी गुलामी का पालन करते—करते रिटायर लोगों ने अपनी आजादी के मायने खोजने के लिए फेसबुक को अपना कर्मक्षेत्र बना लिया। लोगों तक पहुंचने के लिए कविताएं ,कहानियाँ ,किस्से किसी सम्पादक या आलोचक के मोहताज होना बंद हो गए। लायब्रेरी में सजने वाली कहानियाँ अब फेसबुक पर धडाधड लाईक और शेयर पाने लगी। लिखने के लिए ना सिर्फ नयी—नयी कलमें उगीं बल्कि न पढ़ने वाले लोग भी पढ़ने और शेयर करने लगे।
इस नयी और वाचाल दुनिया के लोगों को संकलित और स्थायित्व देने की इच्छा लिए हुए एक फेसबुक मासिक पत्रिका की कल्पना करने का सुझाव मित्रों ने दिया। अभिव्यक्ति को करोपोरेट , चिटफंड कम्पनी और बिल्डर मीडिया से मुक्त आम जनता के स्वतंत्र पत्र को आपके लिए आपके ही सहयोग से शुरू होना तय हुआ है। इस अभियान में अधिक से अधिक लोगों से जुड़ने से फेसबुक पोस्ट के संकलन का यह नियमित प्रयास एक मजबूत और सुन्दर पत्रिका के रूप में आपके सामने आये। इसके लिए आपसे बेहतर पोस्ट्स और नियमित आर्थिक सहयोग की अपील है।
फेसबुक लेखक समुदाय के वृहद् हित में इस पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करने की अपील करता हूँ ।
संदीप वर्मा।
एक समय था मीडिया सम्पादकों के पास कहने को एक रद्दी की टोकरी होती थी जिसका प्रयोग पाठको के पात्र यानी पाठको के विचार को कचरा मानकर प्रयोग करते थे। भारत का मीडिया कब सत्ता की राजनीति और दलाली की कमाई के आसपास ही घूमने लगा ,इसका अहसास जनता को भले ही ना हो पाया हो मगर जनता ने मीडिया से खुद को दूर जरूर पाया। मीडिया से जुड़े व्यवसायिक लेखक पत्रकार आम जनता के लिए बौद्धिक आतंकवादी की भूमिका में लगने लगे। जनता के सरोकार से जुड़े गिने चुने बचे पत्रकार किसी एलियन की भाँती दूसरे गृह के प्राणी नजर आने लगे।
ऐसे समय में अचानक फेसबुक के रूप में जनता के एक बहुत बड़े वर्ग को अपनी अभिव्यक्ति और विचारों को लोगों से कहने का मौक़ा मिल गया। सैकड़ों सालों से मुंह में पट्टी बाँध कर रहने की परम्परा , की-बोर्ड पर उंगलियों के नृत्य से टूटने लगी। महिलाएं जो कभी महज कुछ कविताएं लिखती दिखती थीं ,अब विचारों और तर्क के मैदान पर जम गयीं। गूंगा दलित चीख—चीख कर सारी दुनिया को अपनी आवाज सुनाने को बेताब होने लगा। वंचित और पिछड़े समुदाय अपनी मेरिट पर लगे प्रश्न चिन्ह से घबडाना छोड़कर विचारों के मैदान में अखाड़े में ताल ठोकने लगे। 
जीवन भर नौकरी में अनुशासन रूपी गुलामी का पालन करते—करते रिटायर लोगों ने अपनी आजादी के मायने खोजने के लिए फेसबुक को अपना कर्मक्षेत्र बना लिया। लोगों तक पहुंचने के लिए कविताएं ,कहानियाँ ,किस्से किसी सम्पादक या आलोचक के मोहताज होना बंद हो गए। लायब्रेरी में सजने वाली कहानियाँ अब फेसबुक पर धडाधड लाईक और शेयर पाने लगी। लिखने के लिए ना सिर्फ नयी—नयी कलमें उगीं बल्कि न पढ़ने वाले लोग भी पढ़ने और शेयर करने लगे।
इस नयी और वाचाल दुनिया के लोगों को संकलित और स्थायित्व देने की इच्छा लिए हुए एक फेसबुक मासिक पत्रिका की कल्पना करने का सुझाव मित्रों ने दिया। अभिव्यक्ति को करोपोरेट , चिटफंड कम्पनी और बिल्डर मीडिया से मुक्त आम जनता के स्वतंत्र पत्र को आपके लिए आपके ही सहयोग से शुरू होना तय हुआ है। इस अभियान में अधिक से अधिक लोगों से जुड़ने से फेसबुक पोस्ट के संकलन का यह नियमित प्रयास एक मजबूत और सुन्दर पत्रिका के रूप में आपके सामने आये। इसके लिए आपसे बेहतर पोस्ट्स और नियमित आर्थिक सहयोग की अपील है।
फेसबुक लेखक समुदाय के वृहद् हित में इस पोस्ट को अधिक से अधिक शेयर करने की अपील करता हूँ । 
                   
                   
	               
	               
	               
	               
	              
Comments