बाबाओं की ब्रांडिंग,अंधविश्वास का वाहक बनता टीवी मीडिया, विश्वास और मानवीय गरिमा ताक पर

मीडिया            Mar 09, 2023


ममता मल्हार।

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 25 का पहला खंड कहता है कि लोक व्यवस्था (public order), सदाचार (morality) और स्वास्थ्य (Health) तथा इस भाग के अन्य उपबंधों (यानी कि संविधान का भाग 3) के अधीन रहते हुएसभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा

लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने कार्यव्यवहार में जिस तरह की रिपोर्टिंग पिछले कुछ वर्षों से धर्म को लेकर कर रहा है, उससे धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने का समान हक वाला संवैधानिक मूल्य ही प्रभावित होता लगने लगा है।

इलेक्ट्रॉनिक मीडिया खुद एक ऐसे प्रचारक की भूमिका में दिखाई देने लगा है, जो किसी भी प्रवचन कर्ता को इस सीमा तक चर्चित कर देता है कि जनता की नजर में वह भगवान बन जाता है।

इतना ही नहीं वह व्यक्ति विशेष ही धर्म का आईकॉन बनकर समाज अंधविश्वास फैलाने का वाहक बन जाता है।

यह इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के प्रोपेगेंडा प्रचार कम रिपोर्टिंग का ही परिणाम है कि लोगों का विश्वास आस्था श्रद्धा अध्यात्म के बजाय टोने-टोटकों पर अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। 

वह 90 का दशक था जब पहली बार धार्मिक प्रवचनकर्ताओं की बाढ़ आने लगी थी। एक तरफ रामकथा वाले मुरारी बापू थे दूसरी तरफ पार्थिव शिवलिंग बनवाने वाले देवप्रभाकर शास्त्री दद्दाजी। उस समय इनके कार्यक्रमों की खबरें अखबारों में छपतीं थीं।

हालांकि ये दोनों वाकई धार्मिक गुरू ही थे, जिन्होंने अनर्गल बयानबाजी, टोने-टोटकों, अंधविश्वास को बढ़ावा नहीं दिया।

तब इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का इतना प्रभाव नहीं बढ़ा था। अधिकतर आबादी दूरदर्शन तक सीमीत थी।

फिर 2000 के दशक में आए आशाराम बापू। इनके दीक्षा कार्यक्रम का ऐसा प्रचार हुआ कि लोग सारे कामधाम छोड़ सैकड़ों किलोमीटर दूर एक-एक हफ्ते के लिए आशाराम के आश्रमों में डेरा डालने पहुंच जाते थे।

आशाराम जैसे लोग अखबारों से निकलकर टीवी तक पहुंचे और सुर्खियों में रहने लगे।

इस समय तक टीवी पर धार्मिक प्रवचन चैनल शुरू हो चुके थे और धार्मिक गुरूओं की कथाएं प्रवचन पंडालों से सीधे टीवी के माध्यम से लोगों के घर-घर तक पहुंच चुके थे। यह वो दौर था जब टीवी मीडिया का खुमार लोगों पर चढ़ने लगा था।

पहले ज्योतिष-वास्तु टिप्स फिर छोटे-छोटे टोटके टाईप नुस्खे और फिर पूरे के पूरे एपीसोड स्वतंत्र धार्मिक चैनलों से निकलकर समाचार चैनलों पर दिखाए जाने लगे।

ज्योतिष-राशि भविष्य फल आदि बताए जाने के साथ गृह दशा की स्थिति सुधारने के उपाय आदि भी बताए जाते जिसे दर्शक बड़े ध्यान से सुनते।

यह एक तरह से अंधविश्वास को बढ़ावा देने की ओर टीवी मीडिया का पहला शुरूआती कदम था।

यही वह दौर था जब चमत्कारी मंदिरों, भूत-प्रेत वाले पुराने किलों और चमत्कारी पेड़ों की कहानियां टीवी मीडिया के समाचार चैनलों का हिस्सा बनने लगीं।

यही वह दौर था जब 24 घंटे 7 दिन के प्रवचन कार्यक्रम चैनलों पर आने लगे।  

बात यहीं तक रहती तो ठीक था,  मामला मुरारी बापू और दद्दा जी तक भी वाकई धार्मिक और तार्किक रही उन्होंने वाकई धर्म प्रचार किया लोगों को धर्म से जोड़ा लेकिन कोई अंधविश्वास नहीं फैलाया।

लेकिन ठीक 10 साल बाद अचानक से टोने-टोटके वाले धर्मगुरूओं, बाबाओं की बाढ़ आ गई।

हर यू ट्यूब चैनल, सोशल मीडिया पर टोने-टोटके मोबाइल की स्क्रीन को को स्क्रॉल करते दिखने लगे और दर्शक उसमें खोते गए।

इस बीच आशाराम बापू, राम रहीम, रामपाल जैसे लोग कुकृत्यों के चलते जेल जा चुके थे। लेकिन टीवी मीडिया की इनकी गिरफ्तारी को भी प्रोपेगेंडा की तरह प्रस्तुत करती रहती।

आलम यह हुआ कि इनके फॉलोवर्स की श्रद्धा पर कोई फर्क नहीं पड़ा।

पिछले कुछ सालों में सोशल मीडिया पर शॉर्ट वीडियो का ट्रेंड बढ़ा, जिनमें इसी प्रकार का कंटेंट ज्यादा सामने आने लगा।

 पिछले दिनों एक चर्चा में सामने आया कि ऐसे लोगों का बहुत बड़ा प्रतिशत है जो पहले इन सब लोगों और टोने-टोटकों में विश्वास नहीं करते थे, लेकिन टीवी, सोशल मीडिया आदि पर बार-बार देखने के कारण कहीं न कहीं उनके मन में यह आया कि यह सब सही है और हम ऐसा नहीं करेंगे तो हमारे साथ भगवान कुछ गलत कर देंगे।

अभी तक व्यवस्था का टूल बनकर काम कर रहा इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अब ऐसे बाबाओं और टोटके बाजों का भी टूल भी बन गया, क्योंकि टीआरीपी सामने थी।

टीवी मीडियाकर्मी के पत्रकारीय कार्यव्यवहार में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के बहाने लोगों के विश्वास को अंधविश्वास में मानसिक रूप से बदलकर मानवीय विश्वास की गरिमा से ही खेला जाने लगा।

इसी खेल का परिणाम कहिए या इसकी अगली कड़ी कि पिछले दो-एक सालों में मध्यप्रदेश में दो बाबाओं को जोर बढ़ा, एक सीहोर वाले प्रदीप मिश्रा दूसरे मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड के बागेश्वरधाम बालाजी के धीरेंद्र शास्त्री का।

यहां पहले स्थानीय लोग जुड़े,सोशल मीडिया पर धीरे-धीरे प्रचार शुरू हुआ और देखते ही देखते ये दोनों आम से देखने वाले प्राणी जनता की नजरों में सिद्ध पुरूष बन गए।

धीरे-धीरे समाचार चैनलों की नजर में आये और छा गए।

सीहोर वाले मिश्रा जी जहां चमत्कारी रूद्राक्ष बांटकर लोगों के दुख-दर्द तकलीफ दूर करने का दावा करते हैं वहीं बागेश्वर धाम वाले शास्त्री के बारे में कहा जाता है कि वे लोगों के मन की बात और तकलीफ को पढ़ लेते हैं और बालाजी के दरबार में उनकी अर्जी लगाकर कष्ट दूर करने की प्रार्थना करते हैं। ये अलग बात है कि खुद शास्त्री भी यही कहते दिखाई देते हैं कि जाओ कल्याण हो जाएगा, सब ठीक हो जाएगा।

बहरहाल इन दो धार्मिक प्रवचनकर्ताओं का जिक्र यहां इसलिए जरूरी था क्योंकि पिछले कुछ सालों में मध्यप्रदेश में ये दो ऐसे बड़े उदाहरण बनकर सामने हैं जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की बदौलत तो प्रसिद्ध हुए ही साथ ही सोशल मीडिया पर भी बहुतेरे पत्रकारों ने इनका प्रचार-प्रसार किया।

 दरअसल धर्म अलग चीज है और टोने-टोटके अलग, धार्मिक कर्मकांड अलग हैं लेकिन कर्मकांडों को रिफाइंड करके उनसे चमत्कारिक उम्मीद जगाना अलग विषय है।

 अब समस्या यह हो गई इनकी रिपोर्टिंग कुछ इस तरह प्रस्तुत की गई कि धर्म को टोने-टोटके से जोड़कर उसमें से आस्था तो विलोपित हो गई मगर अंधविश्वास इतना हावी हो गया कि आस्था कहीं कोने में विश्वास तलाशती दिख रही, धार्मिक विश्वास।

 चैनलों की रिपोर्टिंग का ही कमाल था कि सीहोर वाले मिश्रा जी कीर्ति इतनी फैली कि तमाम राज्यों के लोग चम्तकारी रूद्राक्ष के चक्कर में सीहोर जा पहुंचे और कई अपनी जान गंवा बैठे।

 यह चैनलों की रिपोर्टिंग का ही नतीजा था कि धीरेंद्र शास्त्री असभ्य शब्दों, गालियों के साथ भी भगवान के रूप में मान्य होते जा रहे हैं और बागेश्वरधाम की चर्चा तो हो रही है मगर बालाजी के प्रताप की कम।

ये दो चेहरे उदाहरण हैं कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया चाहे तो किस तरह अपनी टीआरपी के लिए किसी को भी ब्रांड फेस बनाकर उसकी ब्रांड वेल्यू बढ़ा सकता है। आज दो प्रवचनकर्ता हिंदू धर्म के फेस ब्रांड बन चुके हैं।

 लेकिन इस सारे खेल में जो सबसे बड़ा अवमूल्यन हो रहा है वह यह कि संविधान द्वारा प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता का दुरूपयोग कर जनमानस की भावनाओं और विश्वासों को खंडित करने के प्रयास किए जा रहे हैं वहीं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया विश्वास जैसे मूल्य की गरिमा को तो ठेस पहुंचा ही रहा है वहीं अंधविश्वास फैलाने का वाहक भी बन रहा है।

 खुद इलेक्ट्रॉनिक मीडिया कर्मी इसको स्वीकारने में हिचकते नहीं हैं, उनका कहना है कि नौकरी की मजबूरी, चैलन की टीआरपी की ललक, चाहत के आगे हमें अपनी वर्किंग स्टाईल में वही सब करना दिखाना होता है जो जनता पसंद करे। फिर धर्म से बड़ा और पसंदीदा पैकेज क्या हो सकता है। लेकिन यह पूछा जाए कि धर्म के बजाय अंधविश्वास फैलाने का काम ज्यादा किया जा रहा है तो इसका उनके पास कोई जवाब नहीं होता।

 टीवी पत्रकारिता में करीब ढाई दशका का समय गुजार चुके वरिष्ठ पत्रकार बृजेश राजपूत लिखते हैं कि दरअसल ये धार्मिक चैनलों का प्रताप है कि अपनी पेन इंडिया पकड़ के चलते पूरे देश में कथावाचकों का बडा दर्शक मंडल पैदा हो गया है और जो उसे घर के टीवी और हाथ के मोबाइल पर देखकर उसके एक बुलावे पर दौड़ पड़ते हैं। तो सिहोर जिले के चितावलिया हेमा गांव में रहने वाले कथावाचक पंडित प्रदीप मिश्रा ने जब टीवी पर कहा कि लोग महाशिवरात्रि पर्व मनाने उनके गांव में बने कुबेरेश्वर धाम आयें वहां सात दिन ठहरें, उनकी कथा सुनें, भोजन प्रसादी पायें और लौटते में वो रूद्राक्ष भी ले जायें जो अभिमंत्रित है जिसकी महिमा वो अपने प्रवचनों में लगातार बताते हैं तो क्या चाहिये धर्म में डूबी जनता को। आम के आम गुठली के दाम।

सारी मनोकामना पूरी करने वाले रुद्राक्ष लेकर आने की चाह में ये सब चले आ रहे थे गाड़ियों में भरकर ट्रेनों में लटककर और बसों में ठूंस कर। टीवी के चमकते प्रवचनों की सच्चाई से ठीक उलट जब ये लोग तेज धूप में नौ किलोमीटर पैदल चल रहे थे तो सोच रहे थे महाराज जी के इंतजाम ठीक नहीं हैं,  मगर कुछ ऐसे भी थे तो इसी बात पर संतोष जता रहे थे कि चलो ऐसी जगहों पर ऐसा तो होता ही है।

कथा वाचकों के आयोजन की लापरवाहियाँ जानलेवा हो रहीं हैं।

मध्य प्रदेश से 6 मौत की खबर आईं एक बागेश्वर धाम से तो दूसरी कुबेरेश्वर धाम से.. टीवी के कथावाचकों के आग्रह पर पहुँचे लाखों लोग इनके गाँवों मेंपरेशान होते हैं, आयोजकों पर लापरवाही का केस दर्ज हो तो ये परंपरा टूटे।

इस बारे में सेवानिवृत आईएएस मनोज श्रीवास्तव की टिप्पणी को भी अनदेखा नहीं किया जा सकता, चैनलों का स्वभाव ही मुर्ग़ा लड़ाई है। अब वे उसे हिन्दुत्व के क्षेत्र में भी ले आये हैं।

तो कल एक सरकार दूसरे सरकार को भला-बुरा कह रहे थे और उधर एक के असफल गादी-दावेदार अपनी कुढ़न निकाल रहे थे।

मुर्ग़ों की तरह लड़ाई के लिए पंखों को फड़फड़ाना। पहले ये हिन्दू-मुस्लिम करते थे तो सुप्रीम कोर्ट ने लड़वाने वालों के ही पंख नोच लिये तो अब हिन्दुओं के ही भीतर रिंग ढूँढ कर काम चलाने लगे। यह थोड़ा सुरक्षित क्षेत्र है।

अब समझ आया कि क्यों जॉन मोंक्स ने कहा होगा The first thing communists do when they take over a country is to outlaw cockfighting. काश उसका आशय इस तरह की मुर्गा लड़ाई से होता।

अन्यथा कोई अद्वैतवादी तो निश्चित यही करता।

पुरानी मुर्ग़ा लड़ाई तो कई देशों में प्रतिबंधित हो गई। नई करेंगे तो अभिव्यक्ति की आज़ादी वाले चले आएँगे। पर जब सुप्रीम कोर्ट ने लताड़ लगाई अंतर्सांप्रदायिक में तब अंतर्वैयक्तिक की लांड्री खुले में धोने की कौन सी तुक है।

मुर्ग़ा बनाना हमारे बचपन में एक सजा मानी जाती थी। पर अब बनने वाला और बनाने वाला दोनों खुश।

 

 


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