संजय वोहरा।
गुजराती भाषा में छपा अखबार कश्मीर के पुलवामा में देखकर सच में हैरानी हुई।
खासतौर से कश्मीर में तो ज्यादातर लोग उर्दू - अंग्रेज़ी ही बस जानते हैं।
यहां गुजराती अखबार हालाँकि किसी पाठक को खबर देने के लिए नहीं , सेब की पैकिंग में इस्तेमाल करने के लिए लाया गया है।
बताइए ज़रा गुजरात के कबाड़ी का माल भी यहां पहुँच गया।
1700 किलोमीटर से भी ज्यादा दूर वड़ोदरा से सफ़र तय करता हुआ अखबार अगर यहां पैकिंग के लिए पहुँच रहा है तो इसका मतलब ये भी निकाला जा सकता है कि, जम्मू कश्मीर प्रांत में स्थानीय अखबारों की स्थिति क्या होगी।
यहां पुराने अखबार की आपूर्ति के लिए भी दूर दराज़ के इलाकों पर निर्भर करना पड़ रहा है।
हालांकि यहां से उर्दू और अंग्रेज़ी के कुछ अखबार छपते रहे हैं लेकिन कुछ बंद हो गए और कई अच्छे दौर में नहीं है।
यूं मीडिया की हालत तो पूरे मुल्क में ही खस्ता है।
खैर इस पुरानी रद्दी में आया शादी का एक कार्ड भी उन लोगों के बीच दिलचस्पी का केंद्र बना रहा जो बाग़ में सेब पैकिंग के बुलाये गए थे।
कुछ -कुछ कोशिश करने अपन ने उनको ये पढ़ कर सुनाया।
ये सभी 6 -7 लोग कश्मीरी थे और स्थानीय भाषा के अलावा अन्य भाषा नहीं जानते लेकिन मानते हैं कि हिंदी लिखनी पढ़नी चाहिए।
इनमें से एक नौजवान को हिन्दी न जानने का खामियाजा भुगतना पड़ा जब वो दिल्ली में किसी रेलवे स्टेशन के पास लघु शंका करते ऐसे स्थान पर पकड़ा गया जहां हिन्दी में लिखा था ' यहां पेशाब करना मना है '।
उसे इस जुर्म के लिए जुर्माना भुगतना पड़ा.
वैसे #SadakSeSarhadTak की इस दूसरी मोटर साइकिल राइड में कश्मीर और लदाख में बंगाल और महाराष्ट्र जैस कुछ अन्य राज्यों से आए लोगों के अलावा काफी गुजराती सैलानियों के ग्रुप भी दिखाई दिए हैं।
पैकिंग के काम में लगे सभी लोग पास के गांव के रहने वाले हैं जो एक ग्रुप की तरह काम करते हैं।
इनके अपने भी सेब और बादाम के बाग़ हैं लेकिन जब अपने बाग़ में काम नहीं होता तो ये दूसरे के यहां मजदूरी करने में हिचकिचाते नहीं।
इस तरह के काम करने वाले कई स्नातक या ज्यादा पढ़े लिखे भी मिल जाते हैं।
समझा जा सकता है कि इनके पास साल के 12 महीने कुछ लगा बंधा काम नहीं होता।
सेब पैकिंग के सामान में अखबार का अहम रोल होता है।
जानकार हैरानी हुई कि सेब के सीज़न में यहां पुराना अखबार पचास रूपये किलो बिकता है।
खुद दुकानदार 44 रूपये किलो खरीदकर लाते हैं।
सेब पैकिंग में इससे भी ज्यादा ज़रूरी होती है घास, ये धान की घास है जिसे कश्मीरी में शाली कहा जाता है।
यूं तो पुलवामा कश्मीर के लिए धान का कटोरा कहा जाता है लेकिन जिन सेब किसानों के धान के खेत नहीं हैं वो घास को खरीद कर लाते हैं।
सीज़न में ये घास 50 रूपये बंडल के हिसाब से बिकती है।
आमतौर पर चतुर और तजुर्बेकार सेब बागान मालिक इसे पहले ही खरीद लेते हैं जब दाम 25 रूपये होते हैं।
बाग़ में सेब पेकिंग की थोड़ी बहुत बारीकियां समझ आई जो वाकई दिलचस्प थीं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार और लेखक हैं।
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