ममता यादव।
पत्रकार ददन विश्वकर्मा जिस संस्थान में नौकरी पर थे वहां से निकलकर उन्हें और बेहतर ऑप्शन मिल सकते थे।
पोहे वाला आइडिया सिर्फ आजीविका का साधन खड़ा करना नहीं बल्कि ये बेचैनी कुछ और ही होती है।
जो ये बेचैनी महसूस करता है वही समझ भी सकता है कि यह सिर्फ रोजीरोटी का मामला नहीं है।
हाँ आप ददन विश्वकर्मा के हौसले को सलाम कह सकते हैं कि बतौर इंसान उन्होंने रीढ़ सीधी रखने के लिये यह उपक्रम खड़ा किया।
लेकिन वाकई पत्रकार हैं तो यह दुःख और शर्म की बात है कि जमीर वाले पत्रकारों के लिये मीडिया संस्थानों में जगह नहीं बच पा रही है। दावे के साथ इसलिए यह सब लिख रही हूं क्योंकि वाकई यह सिर्फ रोजीरोटी का मामला नहीं होता।
बतौर पत्रकार मानवीय जीवन मूल्यों को बचाये रखकर स्वाभिमान से सर उठाकर जीने का मामला होता है।
गौर करिये सही पत्रकारों के लिये स्पेस नहीं बच रहा है, उन्हें अपना स्पेस तो बनाना ही पड़ रहा है फिर उसपर टिके रहने की जद्दोजहद किसी और दुनिया से बावस्ता करवा देती है।
आप चाहें तो कहीं लिख लें पत्रकारों के बतौर मानव मूल अधिकारों के मामले में लोग जिक्र भी करने पर आंख पर पट्टी और कानों में रुई ठूंस लेना चाहते हैं। वे भी जो भुक्तभोगी हैं या थे। बाकी पत्रकारिता जगत अपनी अंतरात्मा से ही तय करे कि क्या वाकई सही पत्रकार को पत्रकारिता छोड़ देनी चाहिए? हमने भी गुड़ बेचा था। ददन को आजादी मुबारक! सवाल बहुत सारे हैं लिखूंगी।
इस पत्रकारिता जगत में जिसे आजकल आधुनिक भाषा में मीडिया कहा जाने लगा है एक ऐसा ईको-सिस्टम डेव्हलप कर दिया गया है कि मीडिया शब्द के अनुकूल ही अगर आचरण नहीं किया गया तो आपको आत्मा मारकर या तो जिंदगी जीनी है या एक रबर स्टंप टाईप दंभ का झूठा आवरण ओढ़कर खुद को यह दिखाना है कि देखिए हम पत्रकार हैं।
मीडिया में अब सिर्फ मीडियेटर यानि बिचौलिए चाहिए जर्नलिस्ट या पत्रकार नहीं।
जो जितना बड़ा मीडियेटर वो उतना बड़ा जर्नलिस्ट। शुद्धतम रूप में कहें तो दलाल।
समस्या यह है कि अब नए लोगों के लिए जगह खाली की ही नहीं जाती। आसमान से मैनेजर टाईप संपादकों को लाकर न्यूजरूम या संपादकीय विभाग की छाती पर सवार कर दिया जाता है।
जिनका एकमात्र उद्देश्य मालिकों को टारगेट पूरा करना होता है। खबर भी वैसी ही चाहिए।
पिछले एक दशक में यह ट्रेंड देखा कि दीवाली, 26 जनवरी, 15 अगस्त के मौके पर रिर्पोर्टस को भी विज्ञापन के टारगेट पर लगा दिया जाता है। जीवन गुजारने परिवार पालने की मजबूरी कहिए या रोजीरोटी की बेबसी, पत्रकार न भी नहीं कर पाते।
जो न करे वो नौकरी गंवाए, फिर खाक छाने।
तो कुलमिलाकर पत्रकारिता जगत खुद आईना देखे, सोचे और उपाय निकाले कि ऐसा क्या किया जाए कि पत्रकारों को पत्रकारिता न छोड़नी पड़े।
ददन कोई पहले पत्रकार नहीं हैं, उनसे पहले यूपी के एक पत्रकार ढाबा, तो एक गुड़ के बिजनेस में उतर चुके। मेरी जानकारी में भोपाल में ही कुछेक पत्रकार चाय नाश्ते की स्टॉल लगा चुके। बस उन्होंने उसमें पत्रकार शब्द का उपयोग नहीं किया। खुद मैं ही जैविक उत्पादों मार्केटिंग कर चुकी मगर उसमें मेरा मकसद कभी पत्रकारिता छोड़ना नहीं रहा।
यह ठीक नहीं है।
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