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मैडम को तो एंकर ही बनना है!

मीडिया            Jul 31, 2022


सूर्यांशी पांडे।
लेख मेरा नहीं है, लेकिन शीर्षक मैंने तय किया है. ये शीर्षक मेरे पुरुषत्व को उतनी बार चोटिल कर रहा था. जितनी बार मैं खुद को पुरुष मान लेने के गुमान में था.

पत्रकारिता जैसे पेशे में परसेप्शन बनाने वाले भी हैं और नारीवाद के सबसे बड़े विचारक जाॅन स्टुअर्ट मिल को पढ़ने वाले भी.

मैं खुद को खुशनसीब समझता हूँ कि मैं पहली कैटगरी में नहीं आता)

"पत्रकारिता में करियर बनाना है तो....
और भगवान ने अगर चेहरा 'सुंदर' दिया है, ख़ासकर महिलाओं को, और वो एंकर बनना चाहती है, तो कोई मैच ही नहीं है"
-जगदीश चंद्र

Disclaimer: हाथ जोड़कर सबसे पहले मैं विनम्रता पूर्वक माफ़ी मांगूंगी उन सभी लोगों से जो जगदीश चंद्र जी की इज़्ज़त करते होंगे और शायद मैं जो लिखने जा रही हूं वो उनको पसंद न आए.

मैं यह भी कहना चाहूंगी कि हो सकता है, उनके मुंह से यह बात यूं ही निकल गई हो, मगर उनके मुंह से वो निकला जो कई न्यूज़रूम में बैठे हर मर्द की सोच है.

उन्होंने कुछ ग़लत नहीं बोला लेकिन शायद बहुत कुछ ग़लत दिखा गए, बहुत कुछ जो न्यूज़रूम में होता है उसको दर्शा गए.

और मैं यह भी कहूंगी की यह हर न्यूज़रूम की कहानी नहीं है, मगर हां, कई न्यूज़रूम की सच्चाई है.

'सुंदर' लड़की या फिर किसी भी महत्वकांक्षी लड़की के लिए सबसे पहली धारणा न्यूज़रूम में यही बनती है.

पुरुष हो या महिला पत्रकार हो- उस लड़की के लिए दोनों तरफ़ से चुनौतियां बाहें फैलाए स्वागत में रहती हैं कि आओ तुम्हें तुम्हारी तार्किक शक्ति, तुम्हारी पत्रकारिता से पहले तुम्हारी 'सुंदरता' पर जज किया जाएं.

उसके बाद क्योंकि तुम लड़की हो, सबसे पहले तुम्हें यह बताया जाए कि तुम्हें देश-दुनिया की राजनीति का कुछ पता नहीं है, तुम ख़बरों को पकड़ने में कमज़ोर हो, लेकिन तुमको एंकर बनना है! "मैडम को एंकर बनना है."

इस तरह की ओछी सोच से वो किसी तरह से अपने आपको बचाने का प्रयास करे और मेल पर मेल कर अपने आइडिया शेयर करे तो यह कहा जाए कि यार! इसको क्यों लिखना है, क्यों स्टोरी करनी है.

इसको कुछ आता थोड़ी है, यह तो 'सुंदर' लड़की है बस या फिर यह तो लड़की है, yess boss करती रहे, उससे भी बात न बने तो दो मीठी बातें करे, या फिर आराम से बॉस के साथ चाय पिए, घूमे और बस कभी न कभी इसपर कृपा बरस पड़ेगी क्योंकि इसको पत्रकारिता थोड़ी करनी है- "मैडम को तो बस एंकर बनना है."

फिर भी वो लड़-भिड़ कर किसी तरह से अपनी कुछ स्टोरी, कुछ काम करने में कामयाब हो जाए तो फिर यह कहा जाए कि अरे वो लड़की है ना!

तो उसके लिए तो आसान है लिंक निकालना, थोड़ी स्टोरी तो कोई भी कर लेता है. यह सब तो यह सिर्फ़ इसलिए कर रही है क्योंकि "मैडम को तो बस एंकर बनना है."

अगर ग़लती से लड़की प्रतिभा की धनी और 'सुंदर' दोनों निकल जाए और ऊपर लिखे सारे पैतरे फेल हो जाएं तो उसके व्यवहार को लेकर तरह-तरह की बातें फैलाई जाती हैं।

यह कहकर कि इसको तो एंकर बनना है ना, इसलिए इतना "attitude" है- "मैडम को एंकर जो बनना है।"

और इन सब तरह की सोच को इस कॉन्क्लेव में जगदीश चंद्र जी के इन शब्दों ने एकदम सटीक तौर पर validate कर दिया।

साथ ही उन सभी 'सुंदर' लड़कियों या कहूं उन लड़कियों पर तंज कस दिया है जो न्यूज़रूम में सच में पत्रकारिता करने घुसती हैं।

जो एंकर बनना चाहती हैं मगर अपनी तार्किक शक्ति, ख़बर की सही समझ, जानकारी के बल पर, जो रिपोर्टर बनना चाहती है अपनी धारदार कलम के बल पर।

बहुत कुछ अपने सीनियर्स से सीखकर, अपने सौम्य व्यवहार से अपनी मेहनत से काम करके।

लेकिन जगदीश चंद्र जी की इस बात ने यह साबित कर दिया कि न्यूज़रूम में ऐसी लड़कियों की आवश्कता नहीं है।

वहां उन लड़कियों की आवश्कता है जिनको वाकई में बस 'एंकर' बनना है, जो वाकई में सिर्फ़ किसी भी तरह से, फिर चाहे उन्हें कुछ भी करना पड़े (yes boss या उससे ज्यादा कुछ) 'एंकर' बनना है या पत्रकारिता करनी है।

- Suryanshi

 



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