मनोज कुमार।
जब समाज की तरफ से आवाज आती है कि मीडिया से विश्वास कम हो रहा है या कि मीडिया अविश्वसनीय हो चली है तो सच मानिए ऐसा लगता कि किसी ने नश्तर चुभो दिया है। एक प्रतिबद्ध पत्रकार के नाते मीडिया की विश्वसनीयता पर ऐसे सवाल मुझ जैसे हजारों लोगों को परेशान करते होंगे, हो रहे होंगे। लेकिन सच तो यह है कि वाकई में स्थिति वही है जो आवाज हमारे कानों में गर्म शीशे की तरह उडेली जा रही है। हम खुद आगे होकर अपने आपको अविश्वसनीय बनाने के लिए तैयार कर रहे हैं।
हमारी पत्रकारिता का चाल, चेहरा और चरित्र टीआरपी पर आ कर रूक गया है। हम सिर्फ और सिर्फ अधिकाधिक राजस्व पर नजरें गड़ाये बैठे हैं। शायद हम सरोकार की पत्रकारिता से पीछा छुड़ाकर सस्ती लोकप्रियता की पत्रकारिता कर रहे हैं। हमें जन से जुड़ी जनसरोकार की पत्रकारिता परेशान करती है जबकि हम उन खबरों को तवज्जो देने में आगे निकल गए हैं जो दर्शकों, पाठकों और श्रोताओं को कभी गुदगुदाती है तो कभी डराती है। कभी उनके भीतर बागी हो जाने का भाव भी भर जाती है तो कभी वह लालच में डूब जाने के लिए बेताब हो जाता है।उसे वह जिंदगी दिखाई जाती है जो सिर्फ टेलीविजन के परदे पर या सिनेमाई जिंदगी में कुछ पल के लिए हो सकती है। कृष्ण और शुक्ल पक्ष को हमने एक कर दिया है।
यह बातें बेबात नहीं है। हालिया दो खबरों की ओर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। ऐसी दो खबरें जिसने समाज को डराया भी और उसमें डूब जाने के लिए मजबूर भी किया। ऐसा लगने लगा था कि मानो अब इसके बाद दुनिया में कुछ बचेगा ही नहीं। अखबारों ने इन खबरों को खबरों की तरह छापने का जिम्मा लिया लेकिन 24 घंटे चिल्लाने वाले टेलीविजन ने कभी डिबेट कर डाली तो कभी इस पर स्पेशल प्रोग्राम चला डाला। इन सबका का कोई परिणाम नहीं निकला क्योंकि परिणाम के लिए इन खबरों पर फोकस किया ही नहीं गया था बल्कि इन खबरों में छिपा डर, रोमांच और लालच ने टीआरपी को हाइट दी।
एक खबर थी चोटीकटवा की। अचानक से किसी महिला की कोई चोटी काट जाता है और इसके बाद सिलसिला चल पड़ता है। एक के बाद एक खबरें आती हैं कि फलां शहर या गांव में महिलाओं की चोटी किसी ने काट ली। यह चोटी कटवा कश्मीर में भी पहुंच जाता है। मामला संजीदा था और इससे आगे वह घर-घर देखा जाने वाला और पढ़ा जाने वाला समाचार था।
जब चोटीकटवा सीरिज चल रही थी तब देश में, खासकर खबरों की दुनिया में कोई दूसरी बड़ी खबर नहीं थी तो इस खबर को इतना हाईप दिया गया कि समाज के एक बड़े वर्ग की महिलाओं में डर व्याप्त हो गया। वे रात में अपने लिहाज से चोटी को बचाकर रखने लगीं। खबरों ने और टेलीविजन के स्पेशल प्रोग्राम ने बता दिया था कि कभी भी, कहीं भी आपकी चोटी कोई भी काट कर ले जा सकता था। खबरों का ऐसा मायाजाल बुना गया कि औरतें कई निरीह और निर्दोष लोगों की पिटाई करने लगीं, उनकी कोई सुनने वाला नहीं था।
चोटी कटवा के मामले में खबर चलाने से लेकर पड़ताल करने और लगभग फैसला सुनाने के अंदाज में मीडिया सक्रिय हो गया था। पुलिस और प्रशासन कुछ करता, इसके पहले ही अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। एक चैनल ने तो अपने क्राइम सीरिज में इस चोटीकटवा प्रकरण पर प्रोग्राम बना डाला। यही नहीं, सीरियल में काम करने वाली नकली पुलिस, नकली सीआईडी और जाने क्या—क्या, सबने पड़ताल की और इस निष्कर्ष पर पहुंचा दिया गया कि चोटी कटवा के लिए गिरोह काम कर रहा है और जो चोटी काटी जा रही है, वह विदेशों में महंगी कीमत में बिकती है तो इसकी तस्करी की जा रही है।
सबसे मजेदार तो यह था कि चैनलों पर चोटी कटवा को लेकर डिबेट हो रही थी। कई पार्टी के दबंग प्रवक्ता इस पर तर्क- कुतर्क कर रहे थे। सामाजिक क्षेत्रों में सक्र्रिय लोग भी अपनी राय देने में पीछे नहीं थे। ऐसा लग रहा था कि चोटीकटवा हमारी कोई परम्परा है और इस पर डिबेट में बैठने वाले लोग माहिर हैं।
मीडिया ने इस मुद्दे पर समाज को धन्य कर दिया था। चोटी कटवा आने वाले दिनों में हमारे पाठ्यक्रम में शामिल कर लिया जाए तो किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए। लेकिन इस चोटी कटवा प्रकरण में यक्ष प्रश्र यथावत है कि जब यह समस्या देशव्यापी थी तो इसका निराकरण कैसे हुआ? कौन लोग इस मामले में अपराधी की तरह चिंहित किए? लेकिन लगता है कि ऊपरी तौर पर टीआरपी बटोर कर मामला निबटा दिया गया।
इस मामले में ध्यान देने योग्य बात यह थी कि इसे अंतर्राष्ट्रीय बनाने में भी मीडिया नहीं चूका। बताया गया कि किसी रसायन के कारण ऐसा हो जाता है। हालांकि मीडिया क्या, समाज भी इस बात को भूल चुका है।
इसके बाद एक बड़े बवंडर के रूप में ब्लूव्हेल गेम की खबरें मीडिया की टीआरपी का कारण बनी। ब्लूव्हेल गेम कहां से शुरू हुआ और कहां जाकर खत्म हो गया, किसी को खबर नहीं मिली है। पहले की तरह इस पर भी मीडिया ज्ञान बांटता रहा। सरकार से इस खेल पर पाबंदी लगाने की मांग भी मीडिया में डिबेट में भाग लेने वालों ने कर दी। ब्लूव्हेल गेम बच्चों और किशोरों से जुड़ा हुआ था, सो परिवारों का डर जाना अस्वाभाविक नहीं था।
समाज के इस डर ने मीडिया की टीआरपी को हाईप दी। ब्लूव्हेल गेम में जो कहानियां गढ़ी गई, वह डरावनी थी। आप और हम भी सिहर जाते कि कैसे नन्हें बच्चे इस खेल के जाल में फंस जाते हैं और अपनी जान दे रहे हैं। भारतीय समाज के लिए यह नया और डराने वाला अनुभव था। यहां भी वही मजेदार बात की हर डिबेट में बैठने वाला ब्लूव्हेल गेम के बारे में ऐसी बातें कर रहा था, मानो उसने अपनी जिंदगी में कई कई बार इससे जूझा हुआ हो।
दुर्भाग्य और दुखद तो यह था कि बड़ी संख्या में बच्चों ने अपनी जान गंवाई लेकिन ब्लूव्हेल गेम के कारण ऐसा हुआ था, इस बात को जांचना आज भी मुुश्किल है। चोटीकटवा की तरह ब्लूव्हेल गेम पर सीरियल बन गए। ये इतने डरावने ढंग से बनाये गए थे कि दर्शक के रोंगटे खड़े हो जाएं। इन सीरियल्स या खबरों का समाज पर क्या असर होता है, इससे मीडिया को शायद कोई फर्क नहीं पड़ता है। टीआरपी और टीआरपी से मिलने वाले राजस्व उनका शायद आखिरी लक्ष्य होता है।
हैरानी की बात तो यह है कि लगभग तीन महीने तक चोटीकटवा का हंगामा होने के बाद लगभग इतने समय ही ब्लूव्हेल गेम का डर समाज के भीतर बैठा रहा और दोनों मामले बिना परिणाम अचानक से समाज के बीच से गायब हो गए। अब न तो किसी की चोटी कट रही है और ना कोई बच्चा ब्लूव्हेल गेम के आखिरी पड़ाव पर पहुंच कर अपनी जान दे रहा है। क्या ऐसा संभव है? शायद नहीं, किसी कोने में संभव है कि चोटी कटवा सक्रिय हो, वह भी तब जब सचमुच की यह समस्या हो और इसी तरह ब्लूव्हेल गेम आज भी किसी किशोर की जान लेेने पर आमादा हो। लेकिन मीडिया के लिए टीआरपी का विषय थोड़ी है। अब तो उसके पास कई और ज्वलंत विषय हैं जिस पर उन्हें बात करनी है।
हम इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि गरीब से लेकर श्रेष्ठिवर्ग अपना दुखड़ा सुनाने और अपनी बात शासन-प्रशासन तक पहुंचाने के लिए मीडिया के पास आता है। मीडिया ताकत नहीं है बल्कि एक पक्का जरिया है। भरोसेमंद जरिया लोगों की तकलीफ, उनकी बात सही जगह तक पहुंचाने का, उन्हें न्याय दिलाने में मदद करने की।
ऐसे में उसे आत्मविवेचन करना चाहिए कि आखिर उसकी जवाबदारी क्या है? उसे अपनी विश्वसनीयता कायम रखने के लिए बेमतलब की बहस में समय जाया करना चाहिए या सरोकार की पत्रकारिता पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए। समाधान करना मीडिया का दायित्व नहीं है। वह सेतु है समाज और सरकार के मध्य का। वह सूचना का तंत्र है, वह जज नहीं है बल्कि न्याय के पक्ष में अनसुनी और अनचींही बातों को उन तक पहुंचा कर न्याय दिलाने में मदद करना है।
मेरे लिखने का मकसद किसी को आहत करना नहीं बल्कि टेलीविजन को देखते हुए, अखबारों को पढ़ते हुए और अपनी भाषा को बिगाड़ते एफएम की आवाज को सुनते हुए मन खिन्न हो गया तो सोचा कि अपनों के साथ, अपनी बात कर लूं।
लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं और समागम पत्रिका के संपादक हैं।
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